इश्क़ ने ”ग़ालिब” निकम्मा कर दिया ….
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया वर्ना हम भी आदमी थे काम के जी हां यह कुछ पंक्तियां हैं, जो अकसर हमारे जुबां पर होती है और इन सदाबहार शेर के रचयिता हैं मिर्जा गालिब. मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग ख़ान यानी […]
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना
इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
जी हां यह कुछ पंक्तियां हैं, जो अकसर हमारे जुबां पर होती है और इन सदाबहार शेर के रचयिता हैं मिर्जा गालिब. मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग ख़ान यानी मिर्जा गालिब को शायरी की दुनिया का बेताज बादशाह माना जाता है. उनकी शायरी जीवन के हर मौके पर फिट हो जाती है. यही कारण है कि गालिब की शायरी आज भी लोगों के जुबां पर है, भले ही आज की पीढ़ी यह नहीं जानती कि उसे लिखने वाले कौन हैं. मुगल काल के अवसान काल में गालिब का दौर था. उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 में आगरा में हुआ था, जबकि 71 वर्ष की आयु में 15 फरवरी 1869 को उनका देहांत हुआ था. उन्होंने एक से बढ़कर शेर और गजलें लिखीं. उनके जन्मदिन पर अर्ज है उनकी कुछ गजलें:-
1.
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
2.
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है
3.
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना
4.
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
5.
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
6.
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है
7.
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
8.
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
9.
काबा किस मुंह से जाओगे ‘ग़ालिब’
शर्म तुम को मगर नहीं आती
10.
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है