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मोहन राकेश के जन्मदिन पर पढ़ें, उनकी डायरी के कुछ रोचक अंश

मोहन राकेश हिंदी साहित्य के बड़े हस्ताक्षर हैं. नयी कहानी आंदोलन का उन्हें आधार माना जाता है.आज उनके जन्मदिन के अवसर पर हम आपके लिए लेकर आये हैं उनकी डायरी के कुछ अंश. उन्होंने डायरी बहुत ही रोचक अंदाज में लिखी है, पढ़ें कुछ रोचक प्रसंग जब वे जालंधर में थे- जालन्धर : तिथि याद […]

मोहन राकेश हिंदी साहित्य के बड़े हस्ताक्षर हैं. नयी कहानी आंदोलन का उन्हें आधार माना जाता है.आज उनके जन्मदिन के अवसर पर हम आपके लिए लेकर आये हैं उनकी डायरी के कुछ अंश. उन्होंने डायरी बहुत ही रोचक अंदाज में लिखी है, पढ़ें कुछ रोचक प्रसंग जब वे जालंधर में थे-

जालन्धर : तिथि याद नहीं
अब यह डायरी कुछ दूसरा रूप ले रही है शायद. ऐसा लग रहा है कि अब जो कुछ मैं इसमें लिखूँगा वह अधिक वैयक्तिक होगा. परन्तु, जो जिस रूप में बाहर आना चाहता है, उस पर बन्धन नहीं होना चाहिए.
जालन्धर : तिथि याद नहीं
मैं अभी तक 28 फरवरी की शाम को हुई घटना के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाया. न मुक्त हो पाना शायद अपनी ही कमज़ोरी है. कमज़ोरी है, या sensitiveness —मैं उस विषय में खामख्वाह सोचने लगा हूँ, इस समय भी. हाँ तो…वे दो थीं. वे रिक्शा में मुझसे आगे चलीं, और फिर जानबूझकर उन्होंने रिक्शाओं की होड़ भी शुरू कर दी. होड़ क्यों? वे ही अपनी रिक्शा कभी पीछे रह जाने देतीं, कभी आगे निकलवा लेतीं. हर बार क…किस बदमज़ाकी से हँसती थीं? ‘‘देखिए, हम अब आपको आगे निकलने दे रही हैं.’’ ‘‘देखिए, हम आपसे आगे जा रही हैं…आप हमसे हर बार पीछे रह जाते हैं.’’ ‘‘हम आपके बराबर चलें तो आपको कोई आपत्ति तो नहीं?’’ ‘‘किसी दिन हमें अपने घर बुलाएँ.’’ ‘‘सुना है, आपका नौकर चला गया है…उसे शिकायत थी कि आपके घर मेहमान बहुत आते हैं.’’ ‘‘तो हम किस दिन आपके घर आयें?’’ ‘‘चाय तो पिलाइएगा न?’’ ‘‘आप कंजूस हैं, आपने एक दिन पहले भी और लोगों को चाय पिलाई थी पर मुझे नहीं पूछा था.’’ ‘‘किसी रेस्तराँ में चलिए न?’’ ‘‘किस रेस्तराँ में चलिएगा—रॉक्सी हमें पसन्द नहीं.’’
यह कह रही थी…क…! वह बदसूरत लडक़ी, जिसके पास शायद वासना के अतिरिक्त नारीत्व का और कुछ नहीं है. और उसकी पहले की चेष्टाएँ भी अब अर्थयुक्त बनकर मेरे सामने आ रही थीं—जब उसने दीवाली और नए वर्ष के कार्ड भेजे थे—मुझसे मेरी पुस्तकें माँगने आयी थी और एक दिन कॉलेज में मेरे कमरे में आकर बोली थी, ‘‘एक प्रश्न पूछना चाहती हूँ. पाठ्य विषय में दिलचस्पी नहीं है. क्या यह बताएँगे कि मनुष्य रोता क्यों है?’’ और फिर बाद में व्याख्या करती हुई बोली थी, ‘‘देखिए, मैं यूँ ही जानना चाहती हूँ. मेरी एक सहेली मुझसे पूछती थी. मैं तो जानती नहीं, क्योंकि मैं कभी रोयी नहीं.’’
और जब मैंने रिक्शावाले से कहा कि वह रिक्शा बहुत आहिस्ता चलाए और दूसरे रिक्शावाले को आगे निकल जाने दे, तो उनका रिक्शा भी बहुत आहिस्ता चलने लगा और पुन: मेरे बराबर आ गया. और इस बार र… ने कहा, ‘‘आप तो हमसे डरकर पीछे जा रहे हैं कि कहीं सचमुच इन्हें चाय न पिलानी पड़े. चलिए, हम आपको चाय पिलाती हैं.’’
और क… बोली, ‘‘देखिए, हमारा घर पास है. हमारे साथ चलिए. हम आपको चाय पिलाएँगी. चलिए, चलते हैं?’’
उन्होंने रिक्शावाले को हिदायत दे रखी थी कि मेरा रिक्शा तेज़ चले या आहिस्ता, वह रिक्शा बराबर ही रहे.
कचहरी पहुँचने से पहले, उनके रिक्शावाले ने पीछे से रिक्शा बराबर लाकर पूछा, ‘‘साहब, वे पूछ रही हैं कि आप क्या मॉडल टाउन नहीं चल रहे? उन्होंने रिक्शा मॉडल टाउन का किया है.’’
मैंने यह उत्तर देकर कि मुझे कुछ काम है, और मैं यहीं उतर रहा हूँ, रिक्शावाले से रिक्शा रोक लेने के लिए कहा. मेरा रिक्शा रुकने पर उनका रिक्शा भी रुक गया.
‘‘हमने आपकी वज़ह से मॉडल टाउन का रिक्शा किया है, और आप यहाँ उतर रहे हैं?’’ क… बोली.
‘‘मुझे यहाँ कुछ काम है,’’ मैंने कहा, ‘‘इस समय क्षमा करें…’’ और मैं बिना पीछे देखे सीधा चल दिया. मुझे खेद था कि ये लड़कियाँ इतनी बदमज़ाक क्यों हैं? मैं ‘प्योरिटनिज़्म’ का दावेदार नहीं, परन्तु कोमलताप्रिय मानव, मानव-व्यवहार में… विशेषतया एक नारी के व्यवहार में कोमलता और शिष्टता की आशा तो करता ही है! नारी का एक-चौथाई सौन्दर्य, उसकी त्वचा के वर्ण और विन्यास में रहता है, और सम्भवत: तीन-चौथाई अपने ‘वदन’ में. और जहाँ, वह एक-चौथाई भी नहीं, और यह तीन-चौथाई भी नहीं—उस वासनायमी मिट्टी…उस दलदल को क्या कहा जाए? फिर भी इस घटना से एक बात अवश्य हुई, मेरे दिमाग़ से थोड़ा जंग उतर गया.
दूसरे दिन क… ने एक कॉपी मुझे दी—यद्यपि मैंने क्लास से कुछ लिखकर लाने के लिए नहीं कह रखा था. कॉपी में ग़लत अँग्रेज़ी में लिखी चिट थी—‘Somehow or the other, please do come at my home, only for some time.’’ और बाकी का जो पृष्ठ देखने के लिए मोड़ा गया था, उस पर कुछ ऐसे-ऐसे उदाहरण थे : ‘‘Divers mostly in the water die;
A lover when the sex feels shy.’’ तथा
‘‘Loving a beautiful woman is the best way of glorifying God.’’ पढक़र एक बार तो मैं जी खोलकर हँस लिया. Loving a beautiful woman! तो यह लडक़ी भी अपने को beautiful woman समझती है! खूब! शायद उसका दोष नहीं.
—और यहाँ आकर मैं क्षण-भर के लिए सोचता हूँ. यहाँ अवश्य ही थोड़ा विश्लेषण करना चाहिए. कुछ दिन पहले—बहुत दिन नहीं—शायद महीना-भर पहले ही एक और लडक़ी की कॉपी में मुझे ऐसे ही काग़ज़ मिले थे. एक बार, फिर दूसरी बार, फिर तीसरी बार. कुछ ऐसे ही उद्धरण उसने भी संकलित कर रखे थे :
‘‘Man loves little and often,
Woman loves much and rarely.’’
‘‘He who loves not wine, woman and song,
Remains a fool his whole life long.’’
‘‘परस्पर भूल करते हैं, उन्हें जो प्यार करते हैं!
बुराई कर रहे हैं और अस्वीकार करते हैं!
उन्हें अवकाश ही रहता कहाँ है मुझसे मिलने का
किसी से पूछ लेते हैं, यही उपकार करते हैं.’’
‘‘चाहता है यह पागल प्यार,
अनोखा एक नया संसार!’’
उन काग़जों को पढक़र मुझे उस तरह की वितृष्णा का अनुभव क्यों नहीं हुआ था? इसलिए कि उस लिपि के मध्य जिन हाथों का सम्बन्ध था, उन हाथों की त्वचा कोमल और सुन्दर है? लिखनेवाली की आँखों और ओंठों में आकर्षण है. वह चकित मृगी-सी मेरी ओर देखा करती है? उसकी आँखें मुझे मासूम क्यों लगती हैं? क्या यह चेहरे का ही लिहाज़ है कि मुझे उसका यह सब लिखना बुरा नहीं लगा? वह बच्ची भी तो है. शायद वह समझती भी नहीं कि वह क्या लिख रही है. यौवन के प्रथम उबाल में वह सब लिखने को यूँ ही मन हो आता है—और फिर पात्र वही बन जाता है, जिसे सम्बोधित कर पाना सम्भव हो. यह विश्लेषण उसके साथ अन्याय भी हो सकता है. वह उन दो लड़कियों की तरह, जिनका मैंने पहले उल्लेख किया है, ‘फ्लर्ट’ तो प्रतीत नहीं होती. उसे चाहनेवालों की कमी नहीं है. साधारणतया लोगों की धारणा है कि वह बहुत मासूम है. मैं नहीं जानता, क्योंकर उसने यह initiative लेने का साहस किया? जो कुछ भी है, वह लडक़ी अच्छी है. यदि वह अपने-आप न सँभल गयी तो मुझे उसे समझा देना होगा.—परन्तु…
जालन्धर : तिथि याद नहीं
उस दिन वह आयी थी—वह जो अब तक अकेली दिखती रही है—उसके साथ क… थी—ये दोनों इकट्ठी क्यों और किस तरह आयीं, यह मैं नहीं जानता. मैं बस स्टॉप के पास खड़ा था—कॉलेज जाने के लिए बस पकडऩे के उद्देश्य से—जब मैंने उन दोनों को पास से गुज़रते देखा—मेरे पास दो लडक़े खड़े बात कर रहे थे. वे गुज़र गयीं, और पेड़ के पास जाकर उसकी ओट में खड़ी हो गयीं—बस आ गयी, मैं बस में बैठ गया. उसी समय एक रिक्शावाले ने आकर कहा, ‘‘आपको वहाँ कोई बुला रही हैं.’’
मैं उतरकर वहाँ चला गया. उसने कहा, ‘‘देखिए, हम तो आपसे मिलने आयी हैं, और आप चले जा रहे हैं.’’
‘‘मुझे कॉलेज जाना है—मेरी दो बजे से क्लास है. कहिए?’’ मैंने कहा.
वे चुप रहीं.
‘‘कोई विशेष काम हो तो आप बताएँ…’’
वे चुप रहीं.
‘‘तो इस समय तो मैं जा रहा हूँ—’’
वे चुप रहीं.
मैंने रिक्शा लिया और चल दिया.
वे लौट गयीं.
जालन्धर : 24.9.55
दस महीने के बाद—केवल अपने को अपनी याद दिलाने के लिए.
नौकरी के दलदल और अपने आत्म में गहरा संघर्ष है—मैं जीतूँगा—ज़रूर जीतूँगा.
जालन्धर : रात्रि—26.1.57
—आज सवा साल के बाद, बल्कि सोलह महीने के बाद—इस दौरान ज़िन्दगी के सबसे बड़े द्वन्द्व से गुज़रा हूँ—मैंने पिछले छह साल की घुटन को समाप्त करना चाहा है—जिस औरत से मैं प्यार नहीं कर सकता, उसके साथ मैं ज़िन्दगी किस तरह काट सकता हूँ? आज वह मुझ पर ‘वासना से चालित’ और ‘इन्सानियत से गिरा हुआ’ होने का आरोप लगाती है—क्योंकि मैंने उससे तलाक चाहा है—क्योंकि मैं अपने अभाव को पूर्ति के लिए एक ऐसे व्यक्ति का आश्रय चाहता हूँ, जो मुझे खींच सकता है, बाँधकर रख सकता है.
(साभार.hindisamay.com)

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