सरस्वती के वरद पुत्र ”निराला” ने जीवन का विष पीकर बहाई हिंदी में ”अमृतमयी गंगा”

-विश्वत सेन- कपिल मुनि के श्राप से भस्म हुए करीब 60 हजार सगरपुत्रों का उद्धार करने के लिए इक्ष्वाकु वंश के राजा दिलीप के बेटे भगीरथ ने गंगा को धरती पर उतारने का काम किया, तो छायावाद के चार प्रवर्तकीय स्तंभों (जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला) के मूर्धन्य और मुक्तक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 21, 2018 9:22 PM

-विश्वत सेन-

कपिल मुनि के श्राप से भस्म हुए करीब 60 हजार सगरपुत्रों का उद्धार करने के लिए इक्ष्वाकु वंश के राजा दिलीप के बेटे भगीरथ ने गंगा को धरती पर उतारने का काम किया, तो छायावाद के चार प्रवर्तकीय स्तंभों (जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला) के मूर्धन्य और मुक्तक कविता के प्रवर्तक सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने हिंदी साहित्य में अपना अमूल्य योगदान देकर गंगा उतारने का काम किया. आज वसंत पंचमी या फिर सरस्वती पूजा है और आज निराला का जन्मदिन है. वसंत पंचमी के दिन निराला की चर्चा न हो, ऐसा होना असंभव सा लगता है.

‘निराला’ एक ऐसा व्यक्तित्व, जिनका नाम सामने आते ही आम जनमानस का शीश श्रद्धा से नत हो जाता है. 21 फरवरी, 1896 (11 माघ शुक्ल, संवत 1953) को बंगाल के मेदिनीपुर जिले के महिषादल रियासत में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म हुआ था, मगर वसंत पंचमी को उनका जन्मदिन मनाया जाता है. हिंदी साहित्य में उन्हें विद्या की अधिष्ठात्री देवी मां सरस्वती का वरदपुत्र माने जाने और सरस्वती के महान के साधक होने के नाते उनका जन्मदिन वसंत पंचमी को मनाया जाता है.

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विषमय जीवन, अमृतमयी कृति

निराला का निजी जीवन जितना अधिक विषमय रहा, साहित्यिक कृतियां उतनी ही अमृतमयी साबित हुईं. ‘निराला’ हिंदी साहित्य का एक ऐसा नाम हैं, जिन्होंने गंगा बहाने के साथ ही अपनी रचनाओं में प्रचलित ब्रह्मसंबंधी विचारधारा से इतर हटकर सृष्टि के प्राचीन विकासवादी विचारधारा के माध्यम से मानव जीवन में व्याप्त अज्ञानता के अंधकार को भी दूर करने का भगीरथ प्रयास किया.

कबीर, तुलसी और रवींद्र का संगम हैं निराला

छायावाद के चार स्तंभों में से एक और मुक्तक छंद की कविताओं के प्रवर्तक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के बारे में डॉ राम विलास शर्मा ने ‘निराला की साहित्य साधना’ में लिखा है, ‘कबीर का फक्कड़पन, तुलसी का लोक-मांगल्य और रवींद्र का सौंदर्यबोध की त्रयी निराला में न केवल विलीन होती है, बल्कि उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को ऐसी ऊंचाइयां प्रदान करती है, जिसका उदाहरण हिंदी साहित्य में विरल है.’

अपनी उत्तर-पीढ़ी के लिए बहाया गंगा

वहीं, धर्मवीर भारती ने निराला पर लिखे एक स्मरण-लेख उनकी तुलना पृथ्वी पर गंगा उतार कर लाने वाले भगीरथ से की थी. धर्मवीर भारती ने लिखा है, ‘ भगीरथ अपने पूर्वजों के लिए गंगा लेकर आये थे. निराला अपनी उत्तर-पीढ़ी के लिए.’ निराला को याद करते हुए भगीरथ की याद आये या ग्रीक मिथकीय देवता प्रमेथियस या फिर प्रमथ्यु की, तो यह आश्चर्य की बात नहीं है.

नीम का वो पेड़ और पत्थर की बेंच थी अहम

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के जन्मदिन के अवसर पर वसंत पंचमी, 1963 को अपने एक संस्मरण में ‘वसंत पंचमी, संसद का प्रांगण और निराला की याद’ नामक शीर्षक से लिखे लेख में धर्मवीर भारती ने लिखा है, ‘नीम के पत्ते पियराने लगे होंगे, आम मोजरा गये होंगे, आसपास की बस्ती में ग्रामवधुओं ने वसंत की पियरी रंग ली होगी. कछार की रेती में गंगास्नान के गीत गूंज उठो होंगे. वर्षों बाद इस बार फिर प्रयाग में साहित्यकार संसद के प्रांगण में चहल-पहल होगी. देश के कोने-कोने से लेखक जुटे होंगे, लेकिन खालीपड़ी होगी नीम तले की वह पत्थर की बेंच, जिस पर निराला बैठा करते थे. चहल-पहल के बावजूद खाली-खाली लगेगा वह आंगन, जहां वे टहल-टहलकर सोचा करते थे, गुनगुनाया करते थे.’

निराला के लिए बुलायी गयी थी साहित्य संसद

वसंत पंचमी को निराला के जन्मदिन के मायने को बताते हुए धर्मवीर भारती लिखते हैं, ‘क्या सोचा था शरद की गंगा सी पुण्य सलिला ममतामयी महादेवीजी ने, जब उन्होंने संसद के तत्वावधान में देश भर के लेखकों को बुलाया, राष्ट्र के वर्तमान संकट पर विचार करने के लिए, निराला के जन्मदिवस के अवसर पर वसंत पंचमी के दिन.’

निराला ने शब्दों को छोड़ा निर्बंध

इतना ही नहीं, निराला की संघर्ष रचनाधर्म और उनकी जिजीविषा के बारे में वे लिखते हैं, ‘आज अगर निराला होते! नहीं, संघर्षों से थक-थककर जिन्होंने शब्दों को निर्बंध छोड़ दिया था, वे अस्तकाल के निराला नहीं-आज अगर वे निराला होते-‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘तुलसीदास’ के निराला, प्रखर विवेक वाले-तीक्ष्ण दृष्टि वाले-बिना किसी समझौते के मुंहफट सच कहने वाले निराला, तो आज वे क्या कहते?’

प्रकृतिस्थ होकर कृतियों में पिरोया मानवतावादी विचारधारा

निराला के प्रखर विवेक, उनका रचनाधर्म और ब्रह्मवादी सोच से इतर मानवतावादी सोच के बारे में डॉ राम विलास शर्मा ने ‘निराला की साहित्य साधना’ में कुछ इस तरह उल्लेख किया है, ‘निराला की प्रसिद्ध गीत है : ‘कौन तम के पार-रे कह!’ संभव है, इसकी मूल धारणा उन्होंने ऋग्वेद से प्राप्त की हो. जब न सत था, न असत था, न लोक था, न परम व्योम था, तब सबको कौन ढंके था? आगे इसी प्रश्न का उत्तर दिया गया है पहले अंधकार था, अंधकार से सब ढंका था, वह सब केवल अव्यक्त जल था. निराला के गीत में तम है और जल है, इसके साथ प्रश्न है, कौन तम के पार? अर्थात आरंभ में केवल अंधकार था.’

निराला का हुआ विवेक-शून्य विरोध

निराला के बारे में डॉ शर्मा ने आगे लिखा है, ‘निराला जब तक जीवित रहे, उनका विवेक-शून्य विरोध ही अधिक हुआ. उनकी मृत्यु के बार उनका व्यक्तित्व श्रद्धा की फूलमालाओं के नीचे छिप गया.’ वे आगे लिखते हैं, ‘काव्य, कथा-साहित्य, आलोचनात्मक निबंधों के अलावा निराला ने दिश की राजनीतिक, सामाजिक समस्याओं पर बहुत कुछ लिखा है. ऐसी काफी सामग्री ‘सुधा’ की संपादकीय टिप्पणियों में बिखरी हुई है.’

जनमानस को उद्वेलित करती हैं निराला की कृतियां

निराला की बेबाक काव्य साधना जितना अधिक उनके व्यक्तित्व को निखारती हैं, उससे कहीं अधिक उनकी आलोचना, कहानी और उपन्यास समेत साहित्य की अन्य विधा जनमानस को उद्वेलित करती हैं. सही मायने में देखा जाये, निराला ने हिंदी के विष को पिया और उसके बदले में उन्होने अमृत का वरदान दिया. 1923 में जब कोलकाता से ‘मतवाला’ का प्रकाशन शुरू किया गया, तो उस समय निराला ने उसके कवर पेज पर दो पंक्तियां लिखी थी, ‘अमिय गरल शशि सीकर रविकर राग-विराग भरा प्याला/पीते हैं, जो साधक उनका प्यारा है यह मतवाला.’

विष को पीकर अमृतमय दिया वरदान

अपने जीवन के दुखों, उसके अंदर के विष और अंधेरे को निराला ने जिस तरह से करुणा और प्रकाश में बदलने का काम किया, वह हिंदी साहित्य में देखने को नहीं मिलता. निराला ने अपने व्यक्तिगत दुर्भाग्य के साथ-साथ नियति के क्रूर आपद, छल और अपमान को भले ही सहा हो, लेकिन अपनी कृतियों में कभी भी कटु नहीं हुए. आज उसी अमृतमय व्यक्तित्व का जन्मदिन है, आज वसंत पंचमी है.

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