विश्व पुस्तक मेले पर एक लेखक की डायरी

– विजय शर्मा- पुस्तक मेला साहित्य प्रेमियों का सबसे बड़ा त्योहार होता है. नयी किताबों की खुशबू, किताबों को स्पर्श करना, उन्हें उलट-पुलट कर देखना, खरीदना. भूले-बिसरे दोस्तों-परिचितों से मिलना, नये दोस्त बनाना. ओह! कितना मजा आता है इन सबमें. बचपन में पिता के कंधे पर बैठ कर गांव का मेला देखने से बिल्कुल भिन्न […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 24, 2018 1:35 PM


– विजय शर्मा-

पुस्तक मेला साहित्य प्रेमियों का सबसे बड़ा त्योहार होता है. नयी किताबों की खुशबू, किताबों को स्पर्श करना, उन्हें उलट-पुलट कर देखना, खरीदना. भूले-बिसरे दोस्तों-परिचितों से मिलना, नये दोस्त बनाना. ओह! कितना मजा आता है इन सबमें. बचपन में पिता के कंधे पर बैठ कर गांव का मेला देखने से बिल्कुल भिन्न लेकिन उतनी ही सुखद अनुभूति. हम साल भर पुस्तक मेले का इंतजार करते हैं. मुझे याद है जब जमशेदपुर में टैगोर सोसाइटी की ओर से पहले पुस्तक मेले का आयोजन हुआ तो मैं खूब उत्साहित थी. और संयोग से उस पुस्तक मेले की अगले दिन जो तस्वीर अखबार में प्रकाशित हुई थी उसमें हम पुस्तक प्रेमी पति-पत्नी प्रमुखता से नजर आ रहे थे. तब उम्र कम थी और अखबार में फ़ोटो देख कर रोमांच हुआ था. कटिंग काफ़ी दिन तक संभाल कर रखी. खूब किताबें खरीदी, कई दिन मेले में घूमते रहे. फ़िर यह सालाना जलसा अब तक जारी है. जमशेदपुर पुस्तक मेले पर फ़िर कभी और. अभी तो मैं दिल्ली का विश्व पुस्तक मेला 2018 घूमने जा रही हूं. असल में मैं तो घूम आई, अब उसे दर्ज कर रही हूं.
तो ऐसा है कि 2008 से विश्व पुस्तक मेले में जाना हो रहा है. उस बार मेरी पहली पुस्तक ‘अपनी धरती अपना आकाश: नोबेल के मंच से’ संवाद प्रकाशन से आई थी. और इस बार जब मेले में प्रवेश किया तो सबसे पहले संवाद प्रकाशन के आलोक श्रीवास्तव से ही टकराई. संवाद ने विश्व साहित्य को कम दर पर हिंदी के पाठक को उपलब्ध कराया है. बीच में ‘अहा! जिंदगी’ के कारण संवाद प्रकाशन का काम तकरीबन स्थगित रहा. आलोक श्रीवास्तव ने बताया कि अब वे पूरे जोर-शोर से संवाद के काम में फ़िर से जुटने वाले हैं. वहां से निकली तो कृष्ण मूर्ति फ़ाउंडेशन के स्टॉल पर मुकेश जी मेरा इंतजार कर रहे थे. उन्हें मेरे पेन ड्राइव से कुछ फ़िल्में लेनी थीं. उनके लिए कैरा नाइटली वाली ‘अन्ना कैरेनीना’, चार्ली चैपलीन की ‘मॉर्डर्न टाइम’ तथा एक मलयालम फ़िल्म ‘बुक ऑफ़ जॉब’ ले कर गई थी. तकनीक ने फ़िल्म देखना, उसे इधर-उधर ले जाना, आदान-प्रदान करना सुलभ कर दिया है.
पहले मेला फ़रवरी में लगता था हम दूर-दराज के लोग किसी तरह पहुंच जाते थे. लेकिन पिछले दो साल से जनवरी में लग रहा है अत: कोहरा रेल का काफ़ी समय खा जाता है. इस बार भी 12 जनवरी जब मुझे मेले में होना था, मैं ट्रेन में थी. सुबह साढ़े दस बजे दिल्ली पहुंचना था रात को दस बजे पहुंची. अनघा बैंग्लोर से उड़ कर दोपहर से गांधी शांति प्रतिष्ठान (जहां हमें ठहरना था) में मेरा इंतजार कर रही थी. बहन ने पूछा, तुम्हें स्टेशन से लेती चलूं मगर मैं ट्रेन में थी और वह इंतजार करके गांधी शांति प्रतिष्ठान पहुंच गई. शुक्र है ट्रेन वालों ने चावल-दाल खाने को दिया वरना राजधानी एक्सप्रेस में उपवास करने के अलावा कोई चारा न था. उसमें फ़ेरी वालों का प्रवेश निषेध है. यह दीगर है कि दाल में नमक न था, चलो अच्छा है, रेलवे की नमक हलाली नहीं करनी होगी.
हां, तो, मेले में थोड़ा आगे बढ़ी तो बड़े प्रेम से प्रज्ञा रोहिणी मिली. उसका सृजनात्मक लेखन बहुत रोचक और सार्थक होता है. उसकी किताब का विमोचन होना था लेकिन मुझे यश प्रकाशन के स्टॉल पर अपनी किताबों के विमोचन के लिए पहुंचना था. तभी रमेश उपाध्याय जी मिले. हमने बड़े प्रेम से एक-दूसरे का हालचाल पूछा. यश के स्टॉल पर कवयित्री मनीषा जैन की किताब का विमोचन हो रहा था. उसे बधाई दी. विभास वर्मा और बलवंत कौर समय से पहुंच कर मेरा इंतजार कर रहे थे. सत्यनारायण पटेल, रचना त्यागी पहुंच हुके थे. और हां, जाने कैसे संयोग से भाई प्रेमपाल शर्मा हर बार इस मौके पर मिल जाते हैं.
मेले में पुस्तकों का विमोचन अधिकतर एक खानापूर्ति होता है. किताब की प्रति हाथ में ली और मोबाइल के स्पर्श से कैमरे में कैद हुए और हो गया विमोचन. इसी तरह इस बार मेरी 6 पुस्तकों का लोकार्पण इस मेले में हुआ. हां, कुछ लोगों की पुस्तकों का बाकायदा लेखक मंच पर लोकार्पण होता है, लोग उस पर अपनी बात रखते हैं. मुझे ऐसे मंच साझा करने का एकाध बार अवसर मिला है. इस बार हॉल नं. 10 जहां इंग्लिश की नई-पुरानी किताबें प्रदर्शित थीं वहां लेखक मंच पर ‘लोटस फ़ीट’ प्रकाशन की ओर से ट्रांसलेसन पर कार्यक्रम चल रहा था. मुझे भी अपनी बात रखने के कुछ पल मिले.
कौन कहता है हिन्दी के पाठक नहीं हैं? अगर ऐसा होता तो नए-नए प्रकाशन गृह न खुलते. मेले में जिन प्रकाशकों से बात की उनका अनुभव भी कहता है कि लोग किताबें पढ़ते हैं, लोग पुराने लेखक पसंद करते हैं, नए-नए विषय की किताबें पढते हैं. मेले में पुरानी किताबों के ऊंचे मूल्य के नए अवतार खूब देखे. जिन किताबों को कभी 1 रुपए, 5 रुपए में पढ़ा था अब वे ही 400-500 रुपयों में धड़ाधड़ बिक रही थीं. स्त्री-पुरुष, युवा-प्रौढ़, वृद्ध सब मेले में किताबों के संसर्ग में नजर आए. पुस्तकालयी खरीद पर निर्भर करने वाले, मुनाफ़े को जीवन का उद्देश्य मानने वाले और पाठकों की चिंता न करने वाले प्रकाशक तो हैं ही, वहीं पेपरबैक, कम मूल्य की किताबें प्रकाशित करने वाले प्रकाशक भी काफ़ी संख्या में हैं.

मेरा मानना है कि ऐसे पाठक फ़्रैंडली प्रकाशक ही स्थापित, मुनाफ़े को सब कुछ मानने वाले प्रकाशकों का वर्चस्व तोड़ेंगे. गंभीर लेखक यदि इन प्रकाशकों का संग देंगे तो इनका भी मान बढ़ेगा और प्रकाशक, पाठक-पुस्तक सबका भला होगा. मेले में मुझे ऐसे कई प्रकाशक नजर आए. जिनका अभी बहुत नाम नहीं है मगर जिनका काम अच्छा है. जो अधिक पारदर्शी हैं. जरूरी नहीं कि दिल्ली के प्रकाशक ही सारा व्यापार करें. कानपुर जैसे छोटे शहरों से भी प्रकाशक उभर रहे हैं. तकनीकि सुविधाओं के चलते प्रकाशन आसान और आकर्षक हुआ है.

प्रकाशन की बात चली है तो बताती चलूं कि एक बात बहुत प्रसन्नता की है. इस बार दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में झारखंड के लोगों की किताबें नजर आई हालांकि इसे बहुत कहना ठीक नहीं है, लेकिन यहां से किताबें आने लगी हैं यह आशा का शुभ संकेत है. आदिवासी लेखन दिखाई दिया. महादेव टोप्पो (जंगल पहाड़ के पाठ, सभ्यों के बीच आदिवासी) विनोद कुमार ‘रांची’ (आदिवासी जीवन-जगत की 12 कहानियां एक नाटक, रेड ज़ोन, विकास की अवधारणा). अपने अलावा झारखंड के जयनंदन, रणेंद्र, अनुज लुगुन, जयनंदन, शेखर मल्लिक, राहुल सिंह, अखिलेश्वर पाण्डेय, प्रियंका ओम, पंकज मित्र, निर्मला पुतुल की किताबें देख कर अच्छा लगा.
पुस्तक मेले में कई फ़ेसबुकिया मित्रों से पहली बार मुलाकात हुई. बिछड़े भाई-बहन मिले. कुछ पुराने दोस्त मिले तो कुछ नए दोस्त बने. किताबों से जुड़े ढ़ेर सारे लोगों से मुलाकात हुई. सुधीर वत्स, बलवंत कौर, विपिन चौधरी, विभास वर्मा, आलोक श्रीवास्तव, मैनेजर पाण्डेय, हनीफ़ मदार, अनीता, विवेक निराला, अंकिता पाठक, उमा शर्मा, अभीक देव, भारतीय ज्ञानपीठ के लीलाधर मंडलोई और महेश्वर दत्त शर्मा, प्रांजल धर, विपिन शर्मा ‘अनहद’, मनमोहन चड्ढ़ा, शेखर मल्लिक, ज्योति, ओमा शर्मा, प्रेमपाल शर्मा, राहुल सिंह, पल्लव, अमिताभ राय, कथादेश के संपादक हरिनारायण, गोबिंद प्रसाद, विकास नारायण, अमृता बेरा, मदन कश्यप, गीताश्री, प्रभात रंजन, वाणी प्रकाशन की अदिति महेश्वरी और अरुण महेश्वरी, राजकमल प्रकाशन समूह के अशोक महेश्वरी, आमोद अम्हेश्वरी तथा अलिंद महेश्वरी, यश पब्लिकेशन्स के राहुल भारद्वाज, जतिन भारद्वाज तथा शांति स्वरूप शर्मा, गिरधर राठी, बोधि प्रकाशन के माया मृग, अंतिका प्रकाशन और बया के संपादक गौरीनाथ, अशोक कुमार पाण्डेय, मुकेश, दिनकर शर्मा (नाम किसी क्रम में नहीं हैं, सब गड़मड़ है.) ढेर सारे नए-पुराने लोगों से मिलना हुआ बात किसी से न हो पाई. इतना बड़ा मेरा साहित्यिक परिवार है, बहुत सारे नाम छूट रहे हैं.
लौटते समय किताबों के दो-दो बैग इतने भारी थे कि न चाहते हुए भी कुली करना पड़ा. मौका देख कर उसने चपत लगाई खूब ज्यादा रुपए लिए और गलत जगह पर खड़ा करके चलता बना. किताबों को मेले से गेट नंबर दस, सड़क तक लाना भी बड़ा कठिन था. बैग घसीटते हुए कंपार्टमेंट तक आते-आते साँस फ़ूल गई. एक अनजान युवक ने सहायता की, पानी पिलाया. लोग कहते हैं आज की नौजवान पीढ़ी लापरवाह है. मेरा अनुभव इसे गलत साबित करता है. लेकिन रही-सही कसर रेलवे ने पूरी कर दी. रेल दिल्ली से समय पर चली लेकिन सात घंटे देर से जमशेदपुर पहुंची, रात के ढ़ाई बजे.
अब इस मेले से लाई गई किताबों के साथ पिछली जमा किताबों तथा पत्रिकाओं को पढ़ना शुरु होगा. प्रूफ़ रीडिंग के कारण बहुत दिनों से लिखना-पढ़ना बाधित रहा. कई नई योजनाएं मन में हैं, काम शुरु करना है. सुना है अगला विश्व पुस्तक मेला प्रगति मैदान में नहीं होगा. यह चिंतनीय है. सर्दियों के बावजूद जाना होता रहा है, अब कहां होगा, यह देखना होगा. लेकिन मेले का आकर्षण शायद भविष्य में भी खींच ले जाएगा. अगले मेले और उसके स्थान के तय होने की प्रतीक्षा है. तब तक आइए इस मेले से लाई गई किताबें पढ़ी जाएं. यदि आप मेले में गए होंगे, किताबें खरीदी होंगी तो पढ़ना शुरु कीजिए वरना मुझसे कुछ पत्रिकाएं और किताबें ले जाइए और पढ़िए. आप पढ़ेंगे तो किताबें प्रकाशित होंगी, किताबें प्रकाशित होंगी तो मेले लगेंगे. मेले लगेंगे तो हम मिलेंगे, हम मिलेंगे किताबों से, किताबें मिलेंगी हमसे. मुझे लगता है पढ़ने की संस्कृति विकसित करने के लिए शहर-शहर, गांव-गांव में पुस्तक मेले लगने चाहिए.
लेखक का परिचय
डॉ विजय शर्मा
पीएचडी, पूर्व एसोशिएट प्रोफ़ेसर, इग्नू एकेडमिक काउंसलर, वर्कशॉप फ़ेसीलिटेटर, विजिटिंग प्रोफ़ेसर हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी तथा रॉची एकेडमिक स्टाफ़ कॉलेज, देश के विविध स्थानों पर अनेक सेमीनार एवं कार्यशाला आयोजित, विवि परीक्षक, सेमीनार में शोध-पत्र प्रस्तुति, कई हिन्दी और इंग्लिश पत्रिकाओं में सह-संपादन, अतिथि संपादन ‘कथादेश’ दो अंक, हिंदी साहित्य ज्ञानकोश में सहयोग.
प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, आलेख, पुस्तक-समीक्षाएं, फिल्म समीक्षाएं, अनुवाद प्रकाशित. आकाशवाणी से भी कहानियां, वाताएं आदि का प्रसारण.
संपर्क : 326, ए न्यू सीताराम डेरा, एग्रिको, जमशेदपुर, झारखंड, पिन – 831009
मोबाइल : 9430381718, vijshain@gmail.com

Next Article

Exit mobile version