गांव की राजनीति को उकेरती है सिनीवाली की कहानी : ग्राम स्वराज
सिनीवाली उन्होंने गांव में दो मंजिला मकान बनवा रखा है, पर आते कम ही हैं गांव सालभर में एकाध बार या उससे भी कम. कैसे आ पाते, उन्हें फुरसत ही नहीं मिलती. फुरसत रहे भी कैसे, मुख्यमंत्री के खास आदमियों में इनकी गिनती होती है. संयुक्त सचिव हैं संयुक्त सचिव! पद के हिसाब से काम […]
सिनीवाली
उन्होंने गांव में दो मंजिला मकान बनवा रखा है, पर आते कम ही हैं गांव सालभर में एकाध बार या उससे भी कम. कैसे आ पाते, उन्हें फुरसत ही नहीं मिलती. फुरसत रहे भी कैसे, मुख्यमंत्री के खास आदमियों में इनकी गिनती होती है. संयुक्त सचिव हैं संयुक्त सचिव! पद के हिसाब से काम भी तो होता ही है.
इतने बड़े पद पर वो हैं और गर्व की बात पूरे गांव के लिए है, खासकर उस जाति की छाती चौड़ी है इस बात पर. इनकी ईमानदारी का डंका भी खूब बजा, पर ये आवाज बहुत लोगों को पसंद नहीं आयी. ईमानदारी कहने सुनने तक तो ठीक है, पर वो ईमानदारी और आदर्श किस काम का, जो गांव के लोगों को तो छोड़िए, अपनी जाति और अपनों का भी काम न करे, पर इन बातों पर अधिक बात करने से क्या फायदा, प्यारे मोहन रजक तो अब रिटायर हो चुके हैं. सालभर बीतने को भी आया. हां, रिटायर होने के बाद कुछ दिनों के लिए वो गांव जरूर आये थे.
फिर ये गांव वाले. घर, जिसे लोग हवेली भी कहते हैं, की रंग पुताई क्यों हो रही है! अच्छा—–अच्छा लगता है, बुढ़ापा गांव में काटने की सोच रहे हैं. अब तो गांव की याद आयेगी ही—–वो वाला रुतबा तो रहा नहीं—– हमेशा आदमियों से घिरे रहते. अब कोई हालचाल भी पूछने आ जाये, तो बड़ी बात है. बेटा भी बाहर ही रहता है, पत्नी है नहीं—–दीवार भी काटने दौड़ता होगा. ऐसे में गांव की मिट्टी तो याद आयेगी ही. ये तो उनसे खार खाये लोगों का मानना था, पर किसी के व्यक्तित्व का सही-सही अंदाजा लगा पाने वाले लोग कम ही होते हैं.
अब खुलकर बता ही देते हैं कि गांव में मुखिया का चुनाव होने वाला है और इस बार अनुसूचित जाति के लिए इस पंचायत के मुखिया का पद आरक्षित हैं.
गांव के प्रतिष्ठित, संभ्रांत और पढ़े-लिखे लोगों ने सोचा, क्यों न प्यारे मोहन रजक को ही मुखिया पद का दावेदार बना दिया जाये. जब वो संयुक्त सचिव रह चुके हैं, तो मुखिया का काम संभालना कौन सी बड़ी बात होगी. उनकी ईमानदारी तो मिसाल है. सरकार जो एक करोड़ रुपया सालभर में मुखिया को गांव के विकास के नाम पर देती है, उससे कौड़ी भी इधर-उधर नहीं होने देंगे. जब एक कौड़ी भी इधर-उधर नहीं होगा, तो गांव का विकास ही होगा. सारी समस्या दूर हो जायेगी, गांव चमक उठेगा.
उन लोगों ने पटना जाकर प्यारे मोहन रजक को मना लिया. आपने राज्य की तो खूब सेवा की अब जरा अपना गांव संभालिये. आपके गांव को भी आपकी जरूरत है. उन्होंने भी सेवा के नाम पर हां भर दी. इधर उन्होंने हां कहा, उधर गांव में बात फैल गयी.
गांव आते ही लोगों ने बांह फैलाकर इनका स्वागत किया. कई दिनों तक लोग मिलने आते रहे और जताते कि आपके मुखिया बन जाने से गांव का कितना भला होगा. ये तो गांव का सौभाग्य है कि आपके जैसा सपूत है इसकी गोद में.
आम लोगों के मन में ये बात बैठ गयी कि मुखिया तो यही बनेंगे, लेकिन साधारण लोगों से अलग भी एक वर्ग होता है, जो आसानी से कोई बात नहीं मानता.
सदन मांझी अपने कुछ मित्रों के साथ कल प्यारे मोहन बाबू से मिलने गया. हालांकि, मोहन बाबू सरल स्वभाव के हैं और सभी से दिल खोलकर मिलते हैं, पर ऐसी क्या बात हो गयी कि सदन मांझी के आते ही वो गाड़ी में बैठकर कहीं बाहर निकल गये. कितनी भी जल्दी में हों, दो मिनट रुककर हालचाल तो पूछ सकते थे. ये क्या बात हुई, ये तो सरासर बेइज्जती हुई, वो भी चार लोगों के सामने. बेचैनी तब से बनी हुई है. मन लगातार तब से बिना रुके तर्क-कुतर्क करने में लगा है. कल सांझ से ही वो कसमसा रहा है. कोई अपना मिले तभी तो कहें कि इस बेइज्जती के पीछे कहीं जात वाली बात तो नहीं! हम मांझी और वो रजक! हुंह, बड़ा आदर्श बघारते थे. चुनाव अच्छे अच्छों की मति फेर देता है. आखिर आ गये न अपनी जात पर.
तभी उसकी नजर सुदामा पर पड़ी. सुदामा झोला लिये तेजी से कहीं जा रहा था. सदन उससे अधिक तेजी से लपकता हुआ उसके पास पहुंचा, जैसे प्यासा कुंए के पास जाता है. सदन ने पूछा, "ई बेरा कहां ?"
"घर में कुछ कुटुम आ गये हैं. चौक से जरा सौदा पानी लेने जा रहा हूं", सुदामा ने कहा.
" मतलब, तुम भी जल्दी में ही हो!"
सुदामा बोलने के अंदाज से ही बात ताड़ गया. आंखों ही आंखों में इशारे से पूछा, "क्यों सब ठीक है ना ?"
इतना सुनते ही सदन ने कल वाली बात ज्यों का त्यों ही नहीं, बल्कि झन्नाटेदार मिरची और नमक मिलाकर बता दिया. जिस तरह गर्म तेल में मिर्च डालने पर छन्न की आवाज के साथ मिर्च नाचने लगता है, बिल्कुल उसी तरह ये सुनकर सुदामा भी नाचने लगा, "अच्छा तो ये बात है—–होंगे बड़का नौकरी में अपने लिए, हमलोगों को उससे क्या—–बड़का आदमी हैं, तो क्या इसका ये मतलब तो नहीं कि हमसे दो बात बोल भी नहीं सकते. बाप तो उसका धोबिया पाट पकड़े-पकड़े मर गया. मांझी सुनते ही नाक मुंह सिकोड़ लिया, लेकिन अब मांझी, मांझी नहीं रहा—–मुख्यमंत्री तक बन गया है."
मुख्यमंत्री सुनते ही सदन के मन में कल से घूम रही बात एक जगह जाकर स्थिर हो गयी. वो जगह थी मुखिया. जब मांझी मुख्यमंत्री बन सकता है, तो हम मुखिया क्यों नहीं बन सकते? ईंट का जवाब, पत्थर यही होगा. प्यारे मोहन बाबू को भी नहीं पता था कि भांजे के एक्सीडेंट की खबर सुनकर हड़बड़ा कर जाना उनके लिए प्रतद्विंद्वी खड़ा कर देगा.
मुखिया बनना एक तरह से प्यारे मोहन रजक का तय है. ऐसा गांव के लोग मान रहे थे, लेकिन संजय भी ऐसा माने ये कोई जरूरी तो नहीं, क्योंकि कुछ लोग स्वभावतः किसी भी बात का विरोध करने के लिए हमेशा कमर कसे रहते हैं.
यहां भी संजय पासवान कमर पर एक हाथ धरे और एक हाथ हवा में नचा-नचा कर अपने स्वभाव को सिद्ध कर रहा है, " आज तक अपने गांव के लिए क्या किया—–कुच्छो नहीं ना ? बहुत देखे हैं गांव का उद्धार करने वाले—–कभी देह में गांव की माटी लगने ही नहीं दिया, वो क्या समझेंगे गांव क्या होता है !"
कुछ उमर कम थी, कुछ जोश अधिक! कुछ-कुछ मिलकर बहुत कुछ हो गया. उमर यही कोई 21-22 बरस है, बस जवानी आकर थोड़ी स्थिर हुई है. चेहरा तो यही बता रहा है, पर किसी भी उम्र का लिहाज ये मुश्किल से ही कर पाता है.
"ये गांव का उद्धार करने नहीं आये हैं. सेवा के नाम पर मेवा खाने आये हैं मेवा—–र्इ जो हर साल एक करोड़ मुखिया को मिलने वाला है खर्च करने के लिए, कितना खर्च होता है, कितना जेब में जाता है, ये तो गांव की हालत ही बता देती है. गांव देखकर तो लगता है, जैसे हमेशा कोई बीमार कुंहर रहा हो !"
कुपोषित गुड्डू हंसते हुए बोला, "तभी तो टुनटुन मुखिया का तोंद इतना बाहर फेंक दिया है, जैसे सारा पैसा अपने तोंद में जमा कर लिया हो. पता चल जायेगा बच्चू को—–इस बार तो चुनाव लड़ने वाले लिस्ट से ही बाहर हो गया है."
" तुमको न, हमेशा मसखरी सूझता है. दिमाग नाम की चीज ही नहीं है तुम्हारे पास—–जब देखो हीं हीं—-!" राजो की झिड़की खाकर गुड्डू का दांत भीतर हो गया.
संजय अति उत्साही और वाचाल था, वहीं गुड्डू पर कमजोर बुद्धि वाली कुल्हाड़ी चली थी. वो कब कहां किस बात पर अपना दांत बाहर कर देता था, कहना मुश्किल है. इन तीनों में समझदार राजेश्वर यानी राजो ही है. मन तो राजो का भी है कि मुखिया की दौड़ में जरा एक बार दौड़ा जाये, पर घर से पैसों के मामले में स्थायी रोगी था. कोई इतने पैसे की सहायता भी नहीं करने वाला था, क्योंकि जो इतना पैसा उसपर लगायेगा, वो खुद ही मुखिया के लिए क्यों नहीं खड़ा हो जायेगा. आखिर मुखिया बनने के लिए कोई भी पढ़ाई-लिखाई या ऐसा कुछ जरूरी नहीं है, बस अठारह बरस से ऊपर का होना चाहिए.
राजो चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता था, क्योंकि वो जानता था, चुनाव जीतना पैसों का खेल है. उसने अपने मन की बात संजय के मन की बेचैनी वाली मिट्टी में डाल दी. वह जानता था, बस कोई खाद पानी देने वाला मिल जाये, फिर देखो कमाल.
बोलने से पहले कुछ देर वो चुप रहा फिर बोला, " धोबी इस गांव में जितने घर हैं, उससे कम तो हम पासवान भी नहीं हैं, तो क्यों नहीं——!"
पूरी बात सुनने का धीरज संजय के पास कहां है, वह बीच में ही बोल पड़ा, " वो खाली अपने जात पर नहीं उछल रहे हैं—–वो जो कहते हैं न पढ़लका लोग और फोरवर्ड भी उन्हीं के साथ हैं. वही लोग न उन्हें पटना से खींच कर लाये हैं गांव का उद्धार कराने—–तभी तो ताल ठोक रहे हैं इस उमर में भी."
"यार, इतना नहीं घबराते, कभी-कभी एक चाल भी पटकनिया दे देती है."
राजो अपनी आंखें लक्ष्य की ओर साधते हुए बोला, " एक अंतर है उनमें और—–",
ये शब्द सुनकर संजय की बेचैन आंखें राजो पर ठहर गयी. जब तक संजय इशारा भांपता और अपना नाम सुनकर उसके अंग प्रत्यंग खुशी से उछलते तब तक राजो ने साफ-साफ अंतर बता दिया.
"प्यारे मोहन रजक आदर्शवादी हैं, वो एक रुपइय्या भी तामझाम, परचार, झूठ-सच पर खर्च नहीं करेंगे. आदर्श अभी कितनों की समझ में आता है. जो ईमानदार होते हैं, अधिकतर लोग उन्हें सनकी मान लेते हैं."
" तो "
" ऐसा नहीं है कि इनकी कदर अभी नहीं है—–कदर तो है पर कम लोग करते हैं और चुनाव में तो सिर्फ संख्या मायने रखती है, कदर नहीं."
गुड्डू बगल में तब से झिड़की खाकर चुपचाप बैठा था, वो भी चुनाव का कम ज्ञान नहीं रखता था. हालांकि, वोट देने का अधिकार उसे एकाध साल पहले ही मिला है पर जानकारी का क्या, यहां हर चलता फिरता आदमी पूरी तरह साक्षर हो न हो पर राजनीति पर, वो भी गांव की राजनीति पर मिनटों नहीं घंटों बात कर सकता है. उसने फिर दांत निकालते हुए एक वाक्य में मुखिया बनने का ज्ञान उड़ेल दिया, " पइसा जिसको छींटने आता है, उसका तो मुखिया बनना तय समझो!"
राजो और संजय ने आज तक कभी भी गुड्डू को गंभीरता से नहीं लिया, बस दुकान से पान, पत्ती, चाय ठंडा लाने के लायक समझता था. वो भी अपनी समझदारी चुनाव के बहाने एक लाइन में दिखा देगा अंदाजा नहीं था. उन दोनों की नजर में गुड्डू की कीमत कितनी बढ़ी, ये तो बाद की बात है.
राजो ने बात आगे बढ़ायी, " तुम्हारे पास भी तो एफ सी आई का पैसा है, बाकी तो—–!"
संजय पासवान के पिता एफसीआई में हैं. वहां काम के हिसाब से बहुत ज्यादा वेतन मिलता है और साथ में ऊपर-झापर अलग से.
इतना सुनते ही संजय की आंखों में भरी दोपहरी में एक दो नहीं, ढेर सारे सपने झिलमिलाने लगे और वह अपने जेब से निकाल कर चौड़े स्क्रीन वाले मोबाइल अपने कानों से सटा लिया.
इधर, सदन मांझी गांव में अपनी जाति की संख्या के कारण जो सबसे अधिक है, सो उसके भी मुखिया बनकर गांव का सेवक बनने की इच्छा थी या फिर करोड़पति बनने की इच्छा जोर मारने लगी.
फिर क्या था, जैसे जैसे नोमीनेशन का दिन नजदीक आता गया, वैसे-वैसे प्रत्याशी जंग के मैदान में उतरने लगे. पुरुष, महिला, नवयुवक, बुजुर्ग तक सभी चुनाव के मैदान में दंड-बैठक देने लगे.
कहां प्यारे मोहन रजक, पढ़े लिखे कर्मठ, ईमानदार, आदर्शवादी, सूर्य की तरह चमकने वाले थे, पर नोमीनेशन आते-आते तो गांव जुगनू बल्ब से जगमगाने लगा.
नोमीनेशन के सबसे पहले दिन प्यारे मोहन रजक का जाना तय हुआ. उन्हें बहुत शोर-शराबा पसंद नहीं था. उन्होंने सोचा, दस-पंद्रह लोगों को लेकर नामांकन कराने चले जायेंगे, पर उनके हितैषियों को ये अच्छा नहीं लगा. चुनाव आखिर चुनाव होता है. इन बातों का बहुत असर पड़ता है. उनके नहीं चाहते हुए भी तीस-चालीस आदमी और कुछ गाड़ियां तो हो ही गयीं. बहुत शांतिपूर्वक उनका नोमीनेशन हो गया. वे दूसरे दिन से आगे की योजना में लग गये.
सदन मांझी, जिसकी उम्र लगभग पचास साल है, रंगीन चेक वाला कुरता, सफेद चूड़ीदार पाजामा, उजला चप्पल पहने और हाथों में मोबाइल लिए लगभग दो सौ लोगों के सिरमौर बना चला जा रहा था. साइकिल, मोटर साइकिल और चरपहिया वाहन. इन्होंने पुरुषों के साथ महिलाओं को भी अपने जुलूस में शामिल किया है, साथ में कच्ची उम्र की अंकुरित होती फसल भी.
जो बच्चे अभी दुधमुंहा थे, वो भी अपनी मां की गोद में राजनीति का पाठ पढ़ रहे थे. हालांकि, इतनी भीड़, धूप और हो-हल्ला में ये बच्चे रो अधिक रहे थे. इस तरह का जुलूस सड़क पर आम लोगों की परेशानी का कारण भी बन जाता है, पर कौन बोले. बोलने पर उंगलियों के निशान गाल पर पड़ जाने की संभावना और हाथ कालर तक पहुंचने में देर नहीं लगती. एक तरह से ये जुलूस नहीं शक्ति प्रदर्शन का दूसरा रूप हो जाता है. इसी दिन कुछ और लोगों ने भी अपनी हैसियत के हिसाब से प्रदर्शन कर नोमीनेशन करवाया.
जैसे-जैसे नोमीनेशन होता गया, वैसे-वैसे गांव में चर्चा जोर पकड़ने लगी. जुगनू दास चौथे दिन नोमीनेशन के लिए पहुंचा. हालांकि, दास लोगों की संख्या गांव में सबसे कम है, लेकिन महादलित होने के कारण और मिशनरी के कारण संख्या में कम होते हुए भी इनमें राजनीतिक जागरूकता अधिक है. जुगनू दास ने चंदे से चुनाव में होने वाले खर्च का इंतजाम किया. खैर, जैसे भी हो और जो भी हो, नोमीनेशन के तामझाम में इसने भी कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन संख्या में कम होने के कारण जुलूस में आदमी से अधिक गाड़ियां ही थी. जुगनू दास उजले कुरते पाजामा और उजले जूते में बहुत फब रहा था. ऐसे इसकी उम्र पैंतालीस साल ही है, पर दिखता अपनी उम्र से अधिक है.
इस तरह पांचवें दिन तक करीब 20 प्रत्याशियों ने अपना नामांकन कराया. कोई शक नहीं कि इनमें कांटे की टक्कर है, लेकिन कुछ वोट काटने के लिए भी खड़े होते हैं या करवाये जाते हैं, जिन्हें गांव में भोटकटवा कहा जाता है.
जो भी हो, इन दिनों गुलजार रहा गांव. खासकर, गांव से ब्लॉक तक जाती हुई सड़क, क्योंकि मोटरसाइकिल, गाड़ी, अपनी ही लय में खुशी से झूमते अबीर लगाये लोग, गले में गेंदा फूल की माला पहने प्रत्याशीगण. आजकल गेंदा सालों भर आसानी से मिल जाता है, क्योंकि आसपास गेंदा की खेती होने लगी है और जरूरत पड़ने बाहर से भी मंगाया जाता है. अपने अपने प्रत्याशियों के जय-जयकार करते नारे, प्रफुल्लित चेहरे, प्लास्टिक की थैली में रसगुल्ला और सिंघाड़े ढोते हाथ, साथ में आज कुछ तूफानी करते हैं वाली बोतल, क्योंकि नामांकन के बाद जबरदस्त नाश्ते का इंतजाम होता है. मतलब गांव से लेकर सड़क, सड़क किनारे की दुकान, दुकान में बैठा दुकानदार और ब्लॉक, सब गुलजार ही गुलजार.
चुनावी उत्साह के आगे गांव वालों को आजकल और कोई समस्या नजर नहीं आती, लेकिन अभी अंतिम धमाका बचा ही था, क्योंकि संजय पासवान ने अब तक नोमीनेशन नहीं कराया था. संजय ने उस दिन भरी दोपहरी में जो सपना देखा था, उसमें रंग भर दिया भूतपूर्व मुखिया टुनटुन महतो ने.
हालांकि, पासवानों की संख्या इस गांव में रजक लोगों के बराबर ही थी, पर टुनटुन महतो के मिलते ही पासवान लोगों का पलड़ा भारी हो गया. पैसों की तो बात ही क्या, ये तो पानी है. पानी की ही तरह चुनाव के समय पैसा बहा दिया जाता है.
टुनटुन महतो की घाघ बुद्धि ने संजय की कच्ची बुद्धि और अतिरक्ति जोश का फायदा उठाया. इसी बहाने वो अपने आदमी को मुखिया बनाना चाहता है. गद्दी प्रत्यक्ष नहीं, तो अप्रत्यक्ष ही सही. जिस ताकत पर सबको उंगलियों पर नचाया, उसी ताकत के कारण दूसरों के आगे—–,ये बरदाश्त करने वाली बात तो नहीं होती न—–! और भी कई कारण मिले और टुनटुन महतो चुनावी दावपेंच, अपने अनुभव के साथ कृष्ण की तरह संजय के सारथी बन गये.
नामांकन तो बीस प्रत्याशियों का हुआ, पर आज ये जुलूस देखते ही बन रहा है, जैसे नामांकन कराने नहीं जा रहे, बल्कि चतुरंगिणी सेना के साथ युद्ध जीतने जा रहे हों.
लगभग चार सौ से पांच सौ समर्थकों का चमकता मुखमंडल और दिग्-दिगंत को हिला देने वाले नारों के साथ भीड़ सड़क पर सरक रही है. करीब सौ गाड़ियां मंथर गति से बढ़ रही हैं. इन्होंने इतनी गाड़ियों का इंतजाम कहां से किया होगा, आज के समय में ये समझना बड़ी बात नहीं है. हवा में उड़ते गुलाल और लाल-पीले-हरे चेहरे होली के त्योहार का भ्रम पैदा कर रहे हैं. हालांकि, होली महीना भर पहले ही बीत चुकी है.
उस भीड़ में संजय दूर से ही चमक रहा है. एकदम दूध की तरह उजला पैंट, शर्ट और जूता. ऊपर से नीचे तक उजला ही उजला. गले में मोटी जंजीर डिजाइन वाली चेन. हाथ में सोने का ब्रेसलेट और छोटा-छोटा खुटियाया दाढ़ी. कुछ दिन पहले तक बालों पर तरह-तरह का प्रयोग करता था, लेकिन अभी चुनाव को ध्यान में रखते हुए साधारण बाल रखा है. गले में जितना संभव हो सके, उतनी फूलों की माला. आजतक घर के लिए एक किलो वजन अपने हाथों से नहीं उठाया, लेकिन आज उससे अधिक वजन गले में लटकायेए है. हालांकि, माला के कारण सोने का मोटा चेन दिखाई नहीं दे रहा है. लाल तिलक जो गांव से निकलते समय मां दुर्गा के मंदिर में लगाया था, वो उसके मुखमंडल को चमका रहा था. इस अद्भुत रूप के साथ जितना संभव हो मुस्कुराते, हाथ जोड़ते तो कभी हाथ हिलाते, तो कभी मोबाइल लहराते, चमकाते आगे बढ़ रहा है.
संजय के बाएं राजो एवं गुड्डू और दाएं टुनटुन महतो चल रहे हैं. गुड्डू का दांत आज कुछ अधिक ही बाहर निकल रहा है.
ये भीड़ ब्लॉक से कुछ कदम की दूरी पर रुक गयी. नामांकन के लिए ब्लॉक के भीतर दो लोगों के जाने की अनुमति होती है. इसलिए संजय राजो के साथ भीतर चला गया. बाहर रुकी भीड़ कुछ देर का इंतजार बहुत बेचैनी से कर रही थी, क्योंकि संजय के बाहर आते ही इतना जोर नारा लगाना है कि आकाश फट जाये.
हुआ भी ऐसा ही. तैयारी पहले से ठो- पीट कर दी गयी थी. जैसे ही संजय उज्ज्वल वस्त्र में धवल दंतपंक्ति निकाले हुए हवा में हाथ लहराते बाहर आया, भीड़ ने बहुत जोर का नारा लगाया, " संजय भैया—–जिंदाबाद—–जिंदाबाद—–जिंदाबाद !"
कुछ देर के लिए लगा, इस नारे के अतिरक्ति वातावरण में कुछ बचा ही न हो. बस जिंदाबाद जिंदाबाद की गूंज ही चारों ओर और भीड़ ने लपक कर संजय को कंधों पर उठा लिया. भीड़ का वही उत्साह था, जो जीत के बाद होता है.
नामांकन के बाद सभी प्रत्याशी जमकर नाश्ता कराते थे, वहीं संजय ने नाश्ते के बाद गांव में रात में भव्य भोज का आयोजन किया, पर क्या, मुखिया बनने के लिए इतना बहुत था! नहीं, ये तो शुरुआत है. अभी तो सारे दाव पेंच बाकी ही हैं.
प्यारे मोहन रजक सुबह दो तीन आदमियों के साथ गांव में सबसे मिलने घर घर जाने लगे. गांव की समस्या पर विचार करते. इसके समाधान और विकास की बातें करते. बताते कि किस तरह वे गांव को तेजी से विकास के रास्ते पर ले जा सकते हैं, लेकिन इसके लिए हम सबको पहले एकजुट होना होगा.
जुगनू दास के पास बहुत आदमी तो नहीं थे, फिर भी वो जुगनू की तरह कभी यहां तो कभी वहां जगमगाते रहते.
सदन मांझी और अन्य प्रत्याशी भी सुबह से शाम तक लोगों से मिलते-जुलते. संजय जिसने कभी उगते सूरज की लालिमा नहीं देखी, वो भी सूरज के उगने से पहले कभी मंदिर में दिखता, तो कभी किसी के घर पर अपने दल-बल के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता. गांव धीरे-धीरे पूरी तरह से चुनावी रंग में रंग गया.
चुनाव चिह्न आते ही चुनावी गर्मी इतनी बढ़ गयी कि अगर इस गर्मी को मापने का कोई यंत्र होता, तो शायद वो भी चटक जाता. प्रचार के सभी नियमों को ताखे पर रखते हुए जबरदस्त कानफोड़ू प्रचार शुरू हो गया. रिक्शा, ठेला, टेम्पो गांव के गली-गली में घूमने लगे. अगर कोई रास्ता बहुत संकरा होता, तो दूसरे रास्ते से वहां तक पहुंचा जाता. गांव के जन-जन तक अपनी आवाज पहुंचाना इनका लक्ष्य था. लाउडस्पीकर में रिकार्डेड प्रचार होते, जो सभी प्रत्याशियों ने बाहर से अपने अपने हिसाब से फिल्मी अंदाज में रिकार्ड करवाया था.
तदवीर बदल सकती है, तस्वीर बदल सकती है.
आपका साथ मिला तो तकदीर बदल सकती है.
भाइयों और बहनों, बहुत सोच-समझकर फैसला करें—–जुगनू दास को ही अपना मुखिया चुनें. बैगन छाप पर ही मोहर लगाएं.
इतना सुनते-सुनते दूसरी आवाज गूंजने लगती. कभी न मैं आराम करूंगा, आपके गांव का विकास करूंगा —–लगनशील, कर्मठ पूरे राज्य में अपनी सूझबूझ का लोहा मनवाने वाले, ईमानदार, कर्तव्यनष्ठि प्यारे मोहन रजक को ही अपना वोट दें. आपके गांव का भविष्य आपके हाथों में है.
सुयोग्य, सुशिक्षित, जुझारू, प्रगतिशील उम्मीदवार संजय पासवान नयी तस्वीर बनाने जा रहे हैं, इतिहास लिखने जा रहे हैं, नयी सोच और सूझबूझ के साथ. इस नयी उम्र को सलाम, जो अपना कीमती समय निकालकर आपकी सेवा करना चाहते हैं. इनका चुनाव चिह्न जानते हैं आप, पहचानते हैं आप, हां, कैरम बोर्ड छाप. चाचा-चाची, भैया-भौजी, फिर सोचना क्या? कैरम बोर्ड छाप पर वोट देकर अपने गांव के बेटे संजय पासवान को जितायें.
सदन मांझी जो खेत बेचकर चुनाव में उतरा था, वो भी अन्य उम्मीदवारों के प्रचार की नब्ज थामे था. बहुत सारे उम्मीदवार ऐसे भी थे, जो खेत बेचकर या फिर सूद पर पैसा लेकर ये सब कर रहे थे.
गांव वालों को तो शुरू-शुरू में अच्छा लगा. वातावरण से नीरसता टूटी. उत्सव जैसा माहौल बन गया. बच्चे लाउडस्पीकर वाले ठेला-रिक्शा के पीछे दौड़ते रहते, पर दो-चार दिनों में ही लगभग 20 उम्मीदवारों का प्रचार सुनते-सुनते लोग ऊबने लगे. एक प्रचार खत्म नहीं होता कि दूसरा शुरू हो जाता. दरवाजे पर दल-बल के साथ आये उम्मीदवारों का स्वागत करते करते लोग थकने लगे. इस काम के अलावा जैसे उन्हें कोई काम ही न था, लेकिन इनके थकने और ऊबने से क्या होता, माहौल तो और भी कई तरीके से बन जाता है.
पान की गुमटी के सामने ये जो सिकिया पहलवान सोंटा है, इसकी लंबाई छह फुट से ज्यादा जरूर है, पर इसे अपने आप पर बहुत गुरुर भी है कि इसकी बात को कोई काट नहीं सकता. ये तर्क के नाम पर कुतर्क करने लगता है. ये सामने वाले को बोलने ही नहीं देता. ये अलग बात है कि अधिकांश लोग इसकी ऊपरी मंजिल खाली समझते हैं. इसलिए लोग इससे कम ही मुंह लगाते हैं.
इस सोंटा पहलवान के ठीक सामने पांच फुट लंबा बड़ा सा तोंद, दांतों में पान की काई जमाये हुए. मिनट-मिनट में पिच-पिच करते और बात करत-करते सामने वालों पर पीक से गुलाबजल का छींटा मारने वाला लड्डू लाल खड़ा है. मुंह में मगही पान, पीली पत्ती चभलाते हुए बीच बीच में अलग से चूना खाते और अपनी बातों से सामने वाले को तिलमिला देना इसकी खासियत है. साफ-साफ कहें तो ये अपनी जुबान में दियासलाई दबाये रहता है.
…और इस सोंटा पहलवान की खासियत ये है कि बात बात पर लहक उठता है. सोंटा, लड्डू लाल से बात करते हुए चेहरा नीचे की तरफ रखता है, क्योंकि लड्डू लाल की लंबाई कम है और लड्डू लाल आंख ऊपर रखता है, ताकि बातों का सीधे आदान-प्रदान हो सके. पिच से धरती लाल करते हुए लड्डू लाल बोला, " क्यों सोंटा, प्यारे मोहन रजक को ही जिता रहे हो न !"
सोंटा इनका नाम सुनते ही पिनक गया. उसकी सोच साफ थी, चाहे कोई जीते पर इस रजक को नहीं जीतना है. बोला, " काहे मजाक करते हो—–उनका तो कोई चांस ही नहीं है—–दो दिन गांव में रह कर कोई मुखिया नहीं बन जाता."
लड्डू लाल मजा लेता हुआ बोला, " फिर भी संयुक्त सचिव रह चुके हैं. बड़े-बड़ों से इनकी जान पहचान है."
" यहां ये जान-पहचान कोई काम नहीं देगा—–ये गांव है गांव ! इनके सात पुश्तों का हिसाब सबके सामने है."
" जो कहो, आदमी हो तो इनके जैसा! इस जमाने में भी इनके चरत्रि पर एक्को गो दाग नहीं लगा है—–ये क्या कम है!"
बीच में ही चिढ़ते हुए सोंटा बोला, " तो फिर चरित्र का तमगा गले में टांग कर गांव में घूमते रहें !"
" अरे ऐसा कैसे बोल सकते हो—–उनके जैसा ईमानदार——-!"
" ऐसी ईमानदारी किस काम की—–आज तक अपने गांव के लिए किया क्या है—–ठिठुआ ! गांव की छोड़ो, अपना भतीजा आज तक गंगा जी में कपड़ा धोता है—–हुंह—–ऐसे लोगों को तो स्वार्थी कहा जाता है—–अब जब नौकरी से छुट्टी मिली तो स्वार्थ साधने गांव तक आ पहुंचे. मैं पूछता हूं, सेवा करने के सौ तरीके हैं फिर मुखिया बनने के लिए जान क्यों दे रहे हैं !"
" ऐसे मत बोलो, कम से कम उमर का लिहाज तो करो !"
" भांड़ में जाय लिहाज—–इ बात सब समझ रहा है. मैं तो कहता हूँ लिख कर रख लो लिखकर—–कोई भी जीते पर वो कभी नहीं जीतेंगे."
एक सांस में सोंटा अपनी बात कह गया जैसे चुनाव परिणाम अभी यहीं घोषित कर दिया हो. बोलते-बोलते सोंटा तैश में आ गया और गुस्से से हांफने लगा. ये बात अलग है कि लड्डू लाल अपना काम करके मुस्कुराता रहा.
जुगनू दास, सदन मांझी और अन्य दावेदारों पर भी लोग चर्चा करते रहते पर लोगों का मानना था कि असली टक्कर तो संजय और प्यारे मोहन रजक के बीच ही है. प्यारे मोहन बहुत बड़े आदमी हैं और संजय के नोमीनेशन में सबसे अधिक लोग थे और उससे भी बड़ी बात कि सबसे अधिक गाड़ियां थीं. वोट देने वाले गाड़ी की संख्या देखकर भी वोट देते हैं.
प्यारे मोहन अपनी ईमानदारी, योग्यता, अनुभव, कर्मठता के आधार पर चुनाव लड़ रहे थे और संजय शिक्षा के नाम पर मैट्रिक, योग्यता कभी भी कहीं भी लड़ाई के लिए तैयार.
जहां एक ओर लोग बिना पूछे खटाखट निर्णय पर निर्णय दे रहे थे , फलां जीतेगा—–नहीं नहीं फलां ही जीतेगा. हर कुछ मिनट पर यहां जीत के दावेदार बदल दिए जाते.
जीत का अंदाजा सिर्फ इस बात से नहीं लगाया जा सकता है कि गांव में किनकी जनसंख्या कितनी है बल्कि चुनाव जीतने के लिए वो कितना पैसा छीट रहे हैं, जीत इस बात पर विशेष रूप से निर्भर करती है. अन्य जातियों पर जो चुनाव में खड़े नहीं हो पाए है, उन पर उम्मीदवारों की गद्धि दृष्टि लगी हुई है, क्योंकि ये वर्ग चुनाव लिस्ट से बाहर होते हुए भी तराजू की डंडी की तरह हो गया है. जिसकी तरफ ये डंडी झुकी, उधर पलड़ा भारी हो गया. एक-एक वोट बटखारे से कम नहीं है.
सोनरवा टोली में अकेले साठ वोट है, क्योंकि वो पूरा गोतिया मिलकर सोच समझ कर किसी एक को ही वोट करते हैं इसलिए इन वोटरों को खरीदने के लिए संजय, जुगनू, सदन और अन्य उम्मीदवार भी घूमने लगे। पता किया जाने लगा कि फलां फलां टोला, फलां फलां घर कितना में बिकेगा. लेकिन ये हो रहा है बल्किुल गुप्त तरीके से.
कुछ लोग किसी भी कीमत पर नहीं बिकते. जब बिकते ही नहीं तो उनका मोलभाव क्या होता ! ये मान लिया गया कि ये प्यारे मोहन के साथ हैं. ऐसे तो कुछ घर ही हैं लेकिन बाकी या कहिए अधिकांश लोग तो बिकने के लिए तैयार ही हैं. कोई तेल लगवा कर मुंह खोलता है तो कोई सामने वाले के पूछने से पहले ही मुंह फाड़ देता है. कुछ तो ऐसे हैं कि यहां वहां, सब जगह मुंह मार आते हैं. सौ दो सौ, एक दो बोरी गेहूं से लेकर जो मिल जाए. इन लोगों के लिए तो चुनाव लॅाटरी है लॅाटरी.
रात के अंधेरे में मोलभाव होता और सुबह चर्चा सरेआम होने लगती कि अरे फलां तो सिर्फ एक चापाकल पर बिक गया तो—–, अरे उसके बगल वाले के यहां तो चापाकल के साथ मोटर भी. आखिर इनके यहां दस वोट है जबकि उसके यहां तो सिर्फ तीन ही वोट है.
एक टोले ने सदन मांझी से बहुत दिनों से खाली जमीन पर मंदिर बनवाने की मांग रख दी. और वो भी तैयार हो गए आखिर सबका मालिक एक है. चुनाव कितनी सदबुद्धि देता है.
संजय पासवान से कला मंदिर बनवाने की मांग की गई. इधर मुंह खुला उधर मुंह में हां या कहें पैसा भर दिया जाता. इस तरह सभी उम्मीदवार रुपये और प्रचार के रास्ते अपनी अपनी जीत सुनिश्चित करने में लगे थे.
संजय सबसे अधिक खर्च कर रहा था. पैसा को पैसा तो वो पहले भी नहीं समझता था लेकिन आजकल तो हाथ के मैल के बराबर भी नहीं. इस मैल को इस तरह हाथ से साफ होते देख उसके बाप को लगता जैसे देह से एक एक बूंद खून निकाला जा रहा हो सूई से. जब देह से बहुत खून संजय ने बूंद-बूंद निकाल लिया तो आखिर एक दिन तंग आकर वो बोल ही पड़े, " इ चुनाव के चक्कर में घर फूंक दोगे क्या ! एक एक रुपया कितना मुश्किल से जोड़े हैं—–तुम तो गुड्डी की तरह रुपया उड़ा रहे हो."
संजय जवाब हमेशा मुंह पर ही रखता है, चाहे वो बाप हो या बाप की उम्र का या कोई और हो. " कितना खर्चा होगा—–पांच लाख—–दस लाख—–होने दीजिए—–जीत गए तो सब हिसाब-किताब एक दिन में कर देंगे. साल में एक करोड़ का बजट होता है. जेब में हजार नहीं लाखों आएगा—–पांच साल में कितना हो जाएगा! ये घाटे का सौदा नहीं है."
ये करोड़ तो बहुत आदमियों को नचा रहा था. सभी छल और धन के रास्ते जीत वाले पहाड़ पर सांस फुला-फुला कर चढ़ाई कर रहे थे. बस एक प्यारे मोहन रजक अपने रास्ते चल रहे थे. वो न तो बढ़ा चढ़ा कर प्रचार करते न वोट खरीद रहे थे. लेकिन उनके हितैषी अब तक के चुनाव और वर्तमान चुनाव के आधार पर बार बार समझा रहे थे कि घी अब सीधी उंगली से नहीं निकलती है. समय बहुत बदल गया है. उंगली परमानेंट टेढ़ी ही रखनी पड़ती है. पर वो ऐसी बातों पर ध्यान ही नहीं देते. बातों को बेअसर होते और समय निकलते देख कर एक दिन उनके शुभचिंतकों ने उनके बेटे को फोन कर दिया कि इस हालत में तो जीतना मुश्किल है. ये न खर्च करते हैं न प्रचार. जनता अब सादगी की भाषा नहीं समझती है. उसे तो वोट के बदले नोट चाहिए. कम से कम ये तो सोचिए, हारने के बाद कितनी बेइज्जती होगी गांव भर में.
बेटे ने सोचा, नौकरी तो अपनी जगह है, वो तो होती रहेगी, सही समय पर सही निर्णय बहुत कुछ बदल देता है तो फिर सही जगह पर पहुंच जाना चाहिए.
गांव में बच्चे, बूढ़े, औरत, मर्द सभी झुंड झुंड प्रचार करने में जुटे हुए थे. कुछ उम्मीदवारों ने ढाई सौ रुपये पर मजदूरी करने वालों को भी प्रचार के समय भीड़ लगाने के लिए रख लिया.
इस बार के चुनाव प्रचार में एक नई अलबेली बात हुई, सत्तर बहत्तर वर्ष की बुजुर्ग महिला जो आजतक पर्दे में रही, किसी के यहां शादी ब्याह में उनका जाना बड़ी बात मानी जाती और फिर इस उम्र में जब उनका चलना फिरना मुश्किल है, मुंह से साफ साफ आवाज भी नहीं निकलती, वो भी बाल रंगाकर और दांत बनवा कर प्रचार करने के लिए तैयार हो गईं. घर घर बोलेरो गाड़ी से प्रचार करने लगीं। ये उनका गांव की मिट्टी से प्रेम था या——-!
प्यारे मोहन के बेटे ने तो फोन पर ही कह दिया कि प्रचार में कोई कमी नहीं हो. वोट खरीदने के लिए भी रुपये पैसे की कमी न करें. लेकिन रुपया तो तभी खर्च होगा जब प्यारे मोहन अपने आदर्शों से समझौता करेंगे. आदर्शों को बेचकर वो वोट नहीं खरीदना चाहते थे. उनके बेटे के गांव पहुंचते-पहुंचते गुरिल्ला प्रचार शुरू हो चुका था यानि जो बिक चुके थे उन्हें फिर से खरीदा जा रहा था. वोटों की बोली लग रही थी और कीमत सैंकड़ा पार कर हजार पर जा टिकी थी. प्यारे मोहन बाबू के बेटे ने भी तिजोरी का मुंह खोल तो दिया पर उनकी दाल गल नहीं रही थी. एक तो दाल आग पर चढ़ाने में ही बहुत देर कर दी, दूसरा प्यारे मोहन बाबू के व्यक्तित्व के कारण किसी को भरोसा भी नहीं हो रहा था कि वोट खरीदने के लिए वो ये सब कर सकते हैं.
इस तरह नोमीनेशन से अंतिम दिन के चुनाव प्रचार और वोटों के मोल जोल के साथ प्रचार रुक गया और सरकारी घोषणा के अनुसार चुनाव भी शांतिपूर्ण ढ़ंग से समाप्त हो गया.
इतने उम्मीदवारों के परिश्रम, खेत बेचकर, सूद पर लिए गए रुपयों का खेल, अच्छे बुरे तरीके जो अपनाए जा सकते थे, अपनाए गए. चुनाव के बाद गांव में रहस्य मिश्रित शांति छा गई. लोग वोटरों के व्यवहार से हार जीत का अनुमान लगाने लगे. जहां भी दो चार लोग जमा होते मुखिया के हार जीत की ही चर्चा होती. मुखिया कौन बनेगा ? अंदाजे का तीर छोड़ा जा रहा था या कहिए तीरों की घनघोर वर्षा हो रही थी. सभी उम्मीदवार अपने-अपने लोगों के साथ आकलन कर रहे थे कि उन्हें किन किन लोगों ने वोट दिया है और किन लोगों ने वोट नहीं दिया है. उम्मीदवारों के छातियों में धड़कन हथौड़े की तरह बज रहा था. प्यारे मोहन रजक भीतर से परेशान अवश्य थे पर शांतचित्त से परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे थे. कुछ प्रत्याशी भगवान की मनौती मान रहे थे. कोई बाबाधाम में कांवर चढ़ाना कबूल रहा था तो कोई माता वैष्णो देवी के दर्शन.
आखिर वो दिन भी आ गया जिस दिन के लिए इतना कुछ किया गया. आज वोटों की गिनती होगी और परिणाम की घोषणा होगी. मतगणना ब्लॉक से सटे हाई स्कूल में हो रही है. चारों तरफ दीवार से घिरे स्कूल के अहाते में आम लोगों का प्रवेश वर्जित है. कड़ी सुरक्षा व्यवस्था है.
स्कूल के बाहर जो बड़ा सा खाली मैदान है, यहां सुबह से ही भीड़ लगनी शुरू हो गई क्योंकि इस गांव के साथ आसपास के तेरह गांवों के वोटों की भी गिनती हो रही है. धीरे-धीरे सुबह से लोगों के जमा होते-होते वो जगह खचाखच भर गया. सिर्फ आदमी ही आदमी दिखाई दे रहा था और समुद्र की लहरों की तरह आशा निराशा की लहरें इस भीड़ में परिणामों की घोषणा होने के साथ आती जाती.
इस तिलमिला देने वाली धूप में संजय पासवान के समर्थक और प्यारे मोहन बाबू के समर्थक आसपास ही खड़े थे. वहीं मांझी और दास के समर्थक भी परिणाम की प्रतीक्षा धूप में तपते देह, सूखे मुंह और धौंकनी की तरह चल रहे धड़कन के साथ कर रहे थे. कभी वो अपने समर्थित उम्मीदवार को लेकर आशान्वित होते तो कभी दूसरे का नाम सुनकर घबराने लगते तो कभी आपस में उलझने भी लगते.
बहुत देर के इंतजार के बाद लाउडस्पीकर से एनाउंसमेंट हुआ कि अब मीरपुर गांव की गिनती शुरू होने वाली है.
ये सुनते ही सबके समर्थकों का उत्साह, उत्सुकता और बेचैनी अपने चरम पर पहुंच गई. सुनाई तो जहां सभी खड़े थे वहाँ भी दे रहा था पर बेचैनी और शायद सुनने में कोई गलती न हो जाए, अनजाने ही लोग लाउडस्पीकर के करीब पहुंच गए. कोई कान उस ओर घुमा कर खड़ा हो गया तो कोई चेहरा लाउडस्पीकर की ओर करके सुनने लगा तो कोई वकोध्यानम्.
लाउडस्पीकर से आवाज आई, प्रथम चक्र की मतगणना के बाद मीरपुर पंचायत के मुखिया उम्मीदवार प्यारे मोहन रजक अपने निकटतम प्रतद्वंद्वी से 25 वोटों से आगे हैं. ये सुनते ही प्यारे मोहन बाबू के बाहर खड़े समर्थकों की बांछें खिल गई. कोई कहता अभी दुनिया से अच्छाई की कदर नहीं मिटी हैं. कोई एक कहता और सभी आपस में हां में हां मिलाने लगते.
दूसरे चरण में भी रजक ही आगे जा रहे थे. ये जानकर उनके लोगों के भीतर उनके जीतने की संभावना पैर जमाने लगी. जब तक संभावना का पैर जमता तब तक तीसरे और चौथे चक्र का परिणाम आ गया जिसमें सदन मांझी सबको पीछे छोड़ते हुए अठारह वोटों से आगे हो गया. इधर मांझी के समर्थकों का उत्साह बहुत ज्यादा बढ़ गया और दूसरे समर्थकों के उत्साह पर मानो घड़ों पानी पड़ गया. सबसे अधिक चुनचुनी संजय पासवान के समर्थकों को छूट रही थी. इतना खर्चा भी किया और गिनती में हमारा कोई अता पता ही नहीं. तभी कोई धीरज बंधाता, घबराओ नहीं अभी तो गिनती बची हुई है, पासा कभी भी पलट सकता है. तभी फिर घोषणा हुई, सातवें चक्र की गिनती के बाद संजय पासवान अपने निकटतम प्रतद्विंद्वी से पैंतालीस वोटों से आगे चल रहे हैं. निराशा के अंधेरे में संजय के समर्थकों को आशा की किरण दिखाई देने लगी.
जुगनू दास को सभी अब जीत के रेस से बाहर कर चुके थे. फिर भी अभी सबकी सांसें अटकी हुई थीं क्योंकि सभी एक दूसरे को कांटे की टक्कर दे रहे थे और ये कहीं से पता नहीं चल पा रहा था कि किस किस वार्ड की गिनती हो चुकी है.
इस सबके बीच संजय पासवान के सारथी टुनटुन महतो खैनी पर खैनी खा रहे थे, नश्चितिं भाव से सबको हम्मित दे रहे थे, " चिंता मत करो अपना ही आदमी जीतेगा." ये सुनकर संजय को कुछ हिम्मत मिलती. वो देह तान कर सीधा खड़ा हो जाता और आसपास खड़े लोगों को निहारने लगता. बहुत मुश्किल से ये समय कट रहा था. एक-एक पल न जाने कितनी चिढ़न, कुढ़न, बेचैनी, आशा, निराशा से बीत रहा था.
और ये क्या, घोषणा होते ही सबकी आंखें खुली रह गई और सांसें थम गई क्योंकि अंतिम दोनों चक्र की गिनती के बाद जुगनू दास पंद्रह वोटों से चुनाव जीत गए हैं. पासा एकदम से पलट गया. अल्पसंख्यक जुगनू दास जिसके बारे में किसी ने अंदाजा भी नहीं लगाया था.
अंय, ये क्या सुन रहे हैं. सभी के मुंह से एक साथ आवाज आश्र. जुगनू दास के समर्थक जो अब तक पूरी तरह से निराश हो चुके थे, वो तो मुंह खोले सुनते ही रह गये. विश्वास हो भी तो कैसे, कहीं ऐसा भी होता है !
तभी जुगनू दास स्कूल के मैदान में खुशी में लहराते अपने आदमियों के साथ आते दिखाई दिए. उनको देखते ही समर्थकों ने जोरदार नारा लगाया, " जुगनू दास जिंदाबाद—–जिंदाबाद—–हमारा मुखिया जिंदाबाद !"
सबने देखा जुगनू दास आते ही टुनटुन महतो के गले से लिपट गया और भावनाओं में डूबते हुए बोला, " सब आपका आशीर्वाद है—–जिंदगी भर नहीं भूल पाएंगे."
दास को बधाई देने में सबसे आगे प्यारे मोहन रजक थे और राजो संजय के कान में फुसफुसा कर कह रहा था, " कहता था न खाली जोश से काम नहीं चलता—–राजनीति है राजनीति, होश भी रखा करो."
संजय एक तो अभी अभी पहाड़ की चोटी से सीधे खाई में गिरा था. अभी तक इस तरह गिरना स्वीकार भी नहीं पाया था कि ये कौन सा दृश्य आंखों के आगे आ गया. हारना तो चलो फिर भी ठीक है लेकिन वो टुनटुन महतो के गले क्यों लग रहा है—टुनटुन महतो तो हमारे आदमी थे, अचानक पलटनिया कब और कैसे मार दिए ! ये भी तो हो सकता है जुगनू को खुशी में कुछ ध्यान नहीं रहा हो. हो जाता है ऐसा—लेकिन जिस तरह टुनटुन महतो का चेहरा चमक रहा है और उसको गले से लगा रहा है, लगता है सब उसका ही किया धरा है.
संजय तमतमाता हुआ वहां से चला गया. संजय के पीछे-पीछे राजो और गुड्डू थे. "साला, क्या नहीं किये टुनटुन महतो के कहने पर—पैसा पानी की तरह बहाये—दिन को दिन और रात को रात नहीं बुझे और र्इ हरामी, हमारे ही साथ नमकहरामी कर गया ", गुस्से में संजय बड़बड़ाता रहा. राजो समझाता हुआ बोला, " राजनीति है राजनीति—कहता था न, खाली जोश नहीं होश से भी काम लो—यहां कौन कब किस रूप में बदल जाये, कहा नहीं जा सकता—यहां तो लोग अपने बाप का भी नहीं होता है."
"वही तो समझ नहीं आ रहा, आखिर राजनीति है क्या ?", संजय अपना माथा पकड़ते हुआ बोला.
सिनीवाली का परिचय
मनोविज्ञान से स्नातकोत्तर, इग्नू से रेडियो प्रसारण में पीजीडीआरपी कोर्स. बचपन से गांव के साथ-साथ विभिन्न शहरों में प्रवास.
पहली कहानी ‘ उस पार ‘ लमही, जुलाई-सितंबर 2015 में प्रकाशित.
कहानी संग्रह ‘ हंस अकेला रोया ‘ प्रकाशित.
पाखी, कथादेश, परिकथा, लमही, इन्द्रप्रस्थ भारती, बया, निकट, माटी, कथाक्रम, प्रभात खबर, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, करुणावती, बिंदिया, आदि पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित. हिंदी समय, गधकोष, जानकीपुल, शब्दांकन, स्त्रीकाल, पहली बार, लोकविमर्श, लिटरेचर प्वाइंट, रचना प्रवेश, स्टोरी मिरर, प्रतिलिपि, नोटनल आदि ब्लॉग पर भी कहानियां प्रकाशित.
सार्थक र्इ-पत्रिका में भी कहानी प्रकाशित.
अट्टहास एवं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में व्यंग्य प्रकाशित.
नोटनल पर इ बुक प्रकाशित, ‘ सगुनिया काकी की खरी खरी.’ सगुनिया काकी नामक सीरीज फेसबुक पर लोकप्रिय. करतब बायस कहानी का नाट्य मंचन हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा.
संपर्क : ईमेल – siniwalis@gmail.com मोबाइल – 8083790738.