चिंतन पर मजबूर करतीं अमृता सिन्हा की कविताएं
थोड़ा और रूको प्रहरी मत जाओ छोड़ कर अधूरे ख़्वाब अनगढ़ सपने कि तुम तथागत नहीं कि अपनी जागृत कुंडलिनी से ज्ञान के अमृत-कलश से अविभूत कर सको पूरे ब्रह्मांड को तुम्हें तो अभी सोखना है अथाह सागर की ऊंची उठती इठलाती लहरों को समाना है अपने भीतर कई आप्लावित नदियों को बनना है तथाकथित […]
थोड़ा और
रूको प्रहरी
मत जाओ
छोड़ कर अधूरे ख़्वाब
अनगढ़ सपने
कि तुम तथागत नहीं
कि अपनी
जागृत कुंडलिनी से
ज्ञान के अमृत-कलश से
अविभूत कर सको
पूरे ब्रह्मांड को
तुम्हें तो अभी
सोखना है
अथाह सागर की
ऊंची उठती
इठलाती लहरों को
समाना है
अपने भीतर कई
आप्लावित नदियों को
बनना है तथाकथित पुल
शोषित पतली
संकरी नदी और
संभ्रांत गंदे नाले के बीच
सीखना है
गहन चिंतन-मनन
का सलीक़ा
रेत पर पड़े उन
अनगिन पत्थरों से
जिन्हें सदियों से
भिगोती रही हैं लहरें
अवश सी
चोट करती , फुफकारती
रेत की छाती पर सर पटकती
सोख लेती हैं
उन पत्थरों का पथरीलापन
हीरे को
तराशे जाने का
ऐलान अभी बाक़ी है
आंखों से पोंछ कर नींद
शब्दों की धार को
करो और चटख़, नुकीली
डुबो कर अर्थ के लहू में
और तब देखना
कैसे उसके तप्त
तरंगों से
निकलेंगे बदलाव
के सप्त स्वर नयी
स्वरलहरियों के साथ
भीतर के वीराने
को लांघ कर .
ज़िंदगी
दांतों के बीच
जैसे जीभ …
औरतें
कर्मठ, मेहनतकश,
बेबाक़, मुखर
फिर भी कमज़ोर, कमतर
हाशिए पर.
सावन
लोग परेशान हैं, कि
सड़कों पर ,बेतहाशा
पानी भर रहा है ,
यहां तो, पानी है कि, सर
से गुज़र रहा है.
भीतर , तह़ाये ग़मों पर भी
लग रही है फफूंद
मन भी सिमा-सिमा सा रहा है,
अब , इन गंधाते ग़म , सिमाते मन को
बाहर, अलगनी पे जो टांगा जाये
तो, लगे थोड़ी धूप ,
वरना, हवाएं सर्द हैं, दीवारें सरहदों सी ऊंची,
कहीं कोई सुराख़ भी नहीं ,
धूप आए भी तो किधर से.
है , सैलाब ठहरा हुआ ,पलकों तक ही
इन अश्कों का किया तो, किया क्या जाए
ऐसे में, अपनी हथेलियों की गुलाबी रंगत
पर मुस्कुराने का जो कभी मन करे,
तो मुस्कुराया , मुस्कुराया कैसे जाए,
सुना है , उम्मीदों के दरख़्तों में फूटने
लगी हैं, कोपलें, चलो अच्छा है,
कम- स-कम इन दरख़्तों की तो,
दूर होगी तन्हाई , वरना इन ग़मों की
फफूंद को तो , धूप मिलने से रही .
डूबना प्रेम में
प्रेम की पुख्ता
और
खुरदुरी
पथरीली ज़मीन
लहूलुहान
मन
स्मरण कर रहा
कृष्ण -प्रेम में
लीन
बेसुध मीरा को
किया जिसने
सहज ही विष -पान
थी वह
प्रेम
की पराकाष्ठा !
हलाहल का प्याला
छलकता हुआ
आंखें मूंद कर
पीना होगा
तुम्हें भी
तब नीलकंठेश्वर
कहलाओगे तुम
हमारे प्रेम का
आग़ाज़ भी यही होगा
अतृप्त आत्मा
गोता लगाती
उदात्त नदी सी
प्रेम में लिपटी
आसमान में अपनी प्रेयस
का नाम उकेरती
चखना चाहती है
प्रेम को
बनना चाहती है
सुर्ख़ लाल
कभी आसमानी
बांहों में समेटे ढेरों चांदनी
गुनगुनाना चाहती है
कोई सुरीला गीत-संगीत
आवेगों के साथ
बिना किसी शर्त के
क्योंकि
प्रेम कभी
प्रतिदान
नहीं मांगता.
महिमा हरी मिर्च की
बड़े काम की है हरी मिर्च
हरी भरी तीखी तेज़ तर्रार
हर तरह से मज़ेदार
सबकी थाली में सजती, इतराती
हर थाली में अलग -अलग
ग़रीब की थाली में मजबूरी
अमीर की थाली में शौक़िया,
असर तो तब और महान
जब आप उदारता से कर लें सेवन
जीभ तो लहराएगी ही
अलस्सुबह अपना जलवा भी दिखाएगी,
हम सब भुक्तभोगी हैं इसके
फिर भी हैं इसके मुरीद़
इसके तीख़ेपन के बावजूद
इसके कड़ुवे हरेपन, का कोई सानी नहीं
बग़ैर इसके उदास हैं
ग़रीब की हर थाली
जैसे
हताश , बेस्वाद सा जीवन .
उगना प्रेम का , अभी- अभी
रोज़-ब-रोज़
थोड़ा-थोड़ा सा घटना
ज़रा- ज़रा सा मरना
मोम का
रिस रिस कर
पिघलना सा लगता है.
चलो रोपते हैं
कुछ पौधे प्रेम के
सुबह की ओस पर .
उम्मीदें पसरी हैं
शहद के कटोरे सी
शाख़ों पे
झुकी धूप सरीखी
मन पर ख़्यालों के बर्क़ सी
कितनी चमक़ीली
कितनी चटख़
तुमसे मिले कि ना मिले
तुम्हारी उंगलियों का
बालों में उसके
पिरोना सा लगता है.
मुझे मालूम है
तुम्हारी खिड़की का
दायरा संकरा है
पर चांद को गुज़रना
यहीं से है
चांदनी तुड़ी-मुड़ी सी सही
पर आयेगी यहीं से.
तुम चांदनी के साथ
आना
मैं खिड़की खुली रखूंगा
अपने पंख फैलाना
ख़ुशबुओं को मैं
रोक लूंगा .
खिड़की की कांच पे
दुख की किरचें होंगी
त्रासदी भी खड़ी होगी
घात लगाए
किसी शात़िर बिल्ले की तरह
ख़ालीपन
भी होगा वहीं घर की
मुंडेर पर .
पर, तुम आंखें
मूंदें रखना
ख़्वाबों की गोद में सर रख कर
आवारा नींद भी आएगी
हमारे साथ
मैं सपने बुनते-बुनते
रात के अंधेरे में, सिरहाने तुम्हारे
ख़ामोश सह़र बनूंगा .
तुम भयमुक्त
हो जाना , क्योंकि
आंखों के समंदर में
तैरती मछलियां
देंगी गवाही
आत्मा पर ठुकी
कील का
घावों पर लगे
मरहम का
रात की ज़मीन पर
उगे शाश्वत प्रेम का .
परिचय : अमृता सिन्हा, सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित.
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