गुलाब एक किताब से,
आज गिर पड़ा यहां.
गंध सब सिमट गयी,
राह भी तो बंट गयी.
हम सभी खड़े रहे,
और वह गुजर गया.
साहित्य का चिराग फिर,
आज एक बुझ गया.
नेह का सिरा कहां,
कैसे कब उलझ गया.
हम छोर ढूंढते रहे,
और वह सुलझ गया.
जिंदगी की ठांव से,
इस शहर और गांव से.
तोड़ मोह नेह को,
इस जरा और देह को.
यूं विरक्त छोड़ कर,
पल में वह अमर गया.
दे गया है प्यास वो,
जो कि मिट न पायेगी.
लाख कोशिशें करें,
पर सिमट ना पायेगी.
हम पड़े थे ख्वाब में
जीत वह समर गया
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अमिताभ प्रियदर्शी
pamitaabh@gmail.com
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