गीत चतुर्वेदी का जन्म 27 नवंबर 1977 को मुंबई हुआ है और अबतक इनकी नौ किताबें प्रकाशित हैं. इनका ताजा कविता संग्रह ‘न्यूनतम मैं’ हिंदी की बेस्टसेलर किताबों की सूची में शामिल है. कई देशी-विदेशी प्रकाशन-संस्थान उन्हें भारतीय भाषाओं के सर्वश्रेष्ठ लेखकों में से एक मानते हैं. उनकी रचनाएं दुनिया की 19 भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं. उनके नॉवेल ‘सिमसिम’ के अंग्रेजी अनुवाद को ‘पेन अमेरिका ’ ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित पेन-हैम ट्रांसलेशन ग्रांट अवार्ड दिया है. उनकी किताब यह सम्मान पाने वाली महज दूसरी भारतीय गल्प कृति है. आठ अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने उनकी रचनाओं को अपने विविध प्रकाशनों में स्थान दिया है. करीब डेढ़ दशक तक पत्रकारिता करने के बाद गीत अब पूरा समय लेखन करते हैं. भोपाल में रहते हैं.
पहली मुलाक़ात
सबकुछ भूल जाने के लिए
मैं बूढ़ा होने का इंतज़ार नहीं करूंगा.
उससे पहले ही
एक उम्र तक पहुंचते-पहुंचते
सब भूल जाऊंगा.
कठिन उच्चारण वाले दार्शनिकों के नाम
और सरल उच्चारण वाले भी.
महान किताबें. सारे गाने. मीरो-ग़ालिब के शेर.
बचपन में हाथ जोड़ जो प्रार्थना गाते थे स्कूल के मैदान मेंहर रोज़,वह भी.
आम का स्वाद. जुलाई की बारिश. पांव के छाले. नमक की आंख.
ऐसे भूलूँगा कि ओक-भर पानी भी स्मृतियों से ज़्यादा गीला लगेगा.
जिस स्त्री को पहली बार चूमा था जीवन में
सिर्फ़ उसी को नहीं,
बल्कि यह भी भूल जाऊँगा साफ़मसाफ़
कि जीवन में चुंबन नाम की कोई चिडि़या भी थी.
कुछ अभी ही शिकायत करते हैं कि मैं उन्हें भूल गया.
उनकी शिकायतों समेत उन्हें भूल जाऊंगा.
स्त्रियों. बच्चों. मित्रों. शत्रुओं. चीज़ों के नाम.
हो सकता है,मैं रेलगाड़ी को कंबल कह दूं
और ओढ़कर सो जाऊँ.
छुरियों को नौलखा हार.
ज़हर को ग़म कहूं और उस शख़्स की सलाह मानूं जो कहता है
ग़म खाने से ही जीवन आगे बढ़ता है.
कविताएं और फ़ोन नंबर मुझे वैसे भी याद नहीं रहते.
मैं अपनी कविताओं को ऐसे पढ़ूंगा
जैसे किसी और ने लिखी हों.
है तो यह सत्य, लेकिन इससे तब होगी पहली मुलाक़ात.
उंगलियों से खोदकर छोटे गड्ढे बनाऊंगा
काग़ज़ समेत उनमें कविताएँ गाड़ दूंगा.
जो मुझसे हर वक़्त नाराज़ रहते हैं, वे तब भी नाक-भौं सिकोड़ेंगे
और कहेंगे,मैंने कविताओं का क़ब्रिस्तान बनाया है.
लोग वहां से डरते हुए गुज़रेंगे.
बच्चों को मना करेंगे अपनी खोई हुई गेंदेंवहांखोजने से.
बीज भी तो आखि़र मुर्दों की तरह ही दफ़न रहते हैं.
उम्मीद करूंगा किउन गड्ढों से कुछ पेड़ उग जाएं.
धरती से जितना लिया है
कम से कम उतना काग़ज़ तो लौटा कर ही जाएं
मेरी कविताएं.
उम्मीद को मैं तब भी नहीं भूलूंगा
मेरी हड्डियाँ उसे त्वचा की तरह ओढ़ती हैं.
आधा ही बजाऊँगा अपनी प्रिय धुन
और ठिठककर कहूँगा- आगे का भूल गया.
यक़ीनन मैं ख़ुश होऊंगा.
सच कहूँ, तो ख़ुशी से वही पहली मुलाक़ात होगी.
एक धुली-पुँछी स्लेट से अधिक ख़ुश दुनिया में और कुछ नहीं होता.
मलंग हो जाऊँगा
जैसे तितली अपने कुकून को भूल ख़ुश रहती है,
जैसे ख़ुश रहती है एक बेवा अपने शौहर को भूल.
………………………………………..
सुनना
मैं सुनता हूं, सुनता हूं, सुनता हूं.
यह बोलते हुए मैं सुनता हूं.
सुनना एक तरह का न्याय है, जिसे वे नहीं समझ सकते,
बोलने के उन्माद में जिन्होंने किसी को नहीं सुना.
सिर्फ गाने से ही नहीं बरसता मल्हार.
सिर्फ गाने से ही नहीं जल उठते दीपक.
सुनना, शामिल होना है, फिर भी
बोलते हुए के हुजूम में कितना कमतर आंका सुनना.
सबसे दुर्लभ गीत वही याद रखते हैं,
जिन्होंने बेहद खामोशी से उसे सुना.
सुनने से जिंदा हो जाती हैं कहानियां,
जल-धारा नदी कहलाई कि हमने उसके नाद को सुना.
जैसे रूमी कहता था,
‘कोई सुन रहा है, इस खुशी में मुर्दे भी जाग उठते हैं’.
……………………….
बकलम खुद
मेरी प्रार्थनाओं का जवाब किसी ने नहीं दिया
देवताओं से कहीं ताकतवर है अगरबत्ती की खुशबू.
मैं कुछ नहीं, महज उस स्वप्न का टुकड़ा हूं
जिसे एक मेहनतकश पुरुष और एक सुंदर के एक साझी नींद में देखा था
उस स्वप्न में एक पुल था, एक सीढ़ी थी और रंगीन धागे
जिनसे चिंदियों को सिलकर चादर बनाई जाती थी
जो सीढ़ी सितारों तक जाती थी, उसे किसी ने तोड़ दिया.
उसकी लकड़ी से अब चिताएं जलाई जाती हैं.
एक टूटा हुआ आईना हूं चांद के हाथों छूटकर गिरा
जिसमें एक दुनिया के अनेक चेहरे दिखाई देते हैं.
चटोरे संन्यासियों के बाजार में
मेरी इच्छाएं काले मुर्गों-सी -नीलाम होती हैं.
दुनिया को कविता सुनाता हूं
जैसे कमजोर दिलवालों को सावधानी से बुरी खबरें.
………………………………………………………..
जाने से पहले
दुनिया बेसुरे संगीत से सम्मोहित है
और तुम मेरी छुअन से बुना गया मौन.
मेरे सपने मछलियों की तरह हैं
नींद से बाहर सांस नहीं ले पाते.
एक बगुला घात लगाकर बैठा रहता है
मेरी नींद के जल-तल पर.
वक्त गुजरता जाता है.
वक्त को गुजरने के लिए जाने कितने पल चाहिए.
मैं वक्त से तेज हूं, एक पल में गुजर जाऊंगा.
जाने से पहले तुम्हें क्या दूंगा?
मेरे सपने तो बगुले खा जायेंगे.
तुम कहती हो, मासूमियत? अरे नहीं!
प्यार वह फल है, जिस पर मासूमियत का छिलका होता है
और बिना छिलका उतारे इस फल को खाया नहीं जाता.
यह जो मेरा जिस्म है
उसे उगाने में मुझे बरसों लगे हैं.
दिल तो खैर मेरा जन्मजात ऐसा ही है,
कदम-कदम पर पर जख्मी होता.
मांगोगी, तो भी यह जिस्म नहीं दे पाऊंगा,
आग का इसपर बरसों से दावा है.
यह दिल देता हूं, इसे एहतियात से रखना
कि यह उसका है, जिसने सपने देखे थे.