आज पद्मश्री डॉ धर्मवीर भारती का जन्मदिन है, आप जानते हैं उन्हें…?
नयी दिल्ली : आज हिंदी पत्रकारिता जगत के विद्रोही स्वभाव और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के सिद्धांत को चरितार्थ करने वाले डॉ धर्मवीर भारती का जन्म दिन है. एक बात और. वह यह कि अगर आप डॉ धर्मवीर भारती का नाम ले रहे हों और धर्मयुग की चर्चा न करें, तो हिंदी पत्रकारिता के इस […]
नयी दिल्ली : आज हिंदी पत्रकारिता जगत के विद्रोही स्वभाव और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के सिद्धांत को चरितार्थ करने वाले डॉ धर्मवीर भारती का जन्म दिन है. एक बात और. वह यह कि अगर आप डॉ धर्मवीर भारती का नाम ले रहे हों और धर्मयुग की चर्चा न करें, तो हिंदी पत्रकारिता के इस योद्धा के साथ बेमानी होगी. अक्सर, जब कभी भी हम धर्मवीर भारती का नाम लेते हैं, तो हमारी जेहन में धर्मयुग (धर्मवीर भारती और धर्मयुग के जानने वाले लोगों के जेहन में) अक्स खुद ही उभरकर सामने आ जाता है.
दरअसल, डॉ धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसंबर, 1926 को इलाहाबाद के अतरसुइया मुहल्ले में हुआ था. इनके पिता चिरंजीव लाल वर्मा तथा माता श्रीमती चंदा देवी थीं. परिवार में शुरू से ही आर्य समाज का प्रभाव था, जिसकी वजह से धर्मवीर भारती के ऊपर धार्मिकता का गहरा प्रभाव पड़ा. इनकी प्रारंभिक शिक्षा इलाहाबाद के डीएवी कॉलेज एवं उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संपन्न हुई. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही उन्होंने डॉ धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में पीएचडी की उपाधि हासिल की.
शोध के दौरान इलाहाबाद विश्वविद्यालय के साहित्यिक माहौल एवं देश में हो रही विभिन्न प्रकार की राजनितिक गतिविधियों का उनके ऊपर बहुत ही गहरा और क्रांतिकारी प्रभाव पड़ा. इसका एक कारण यह भी था कि इनके बाल्यकाल में ही इनके पिता का निधन हो गया, जिस कारण इन्हे बहुत अधिक आर्थिक संकट से जूझना पड़ा. अपने आर्थिक विकास के लिए मार्क्स के सिद्धांत को आदर्श मानते थे, लेकिन यह भी इनके लिए बहुत कारगार सिद्ध नहीं हुआ. कुछ दिनों तक उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के तौर पर काम किया. वर्ष 1959 से 1987 तक उन्होंने मुंबई से प्रकाशित होने वाली हिंदी की सुप्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ का संपादन किया. डॉ धर्मवीर भारती को केवल दो प्रकार के शौक थे यात्रा और अध्यापन. आजीवन काल तक उन्होंने अपने इन दो शौकों को जिंदा रखा.
वर्ष 1972 में भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वश्रेष्ठ पुरस्कारों में से एक पद्मश्री अलंकृत किया. धर्मवीर भारती की रचनाओं में काव्य, कथा तथा नाटक का समावेश मिलता है. इनकी कविताओं में रागतत्व की रमणीयता के साथ बौधिक उत्कर्ष की आभा का भी पुट दिखायी देता है. भाषा के प्रयोग में सरलता, सजीवता और आत्मीयता का पुरजोर संकलन है.
सही मायने में देखा जाये, तो डॉ धर्मवीर भारती सफल संपादक थे, कवि थे, सिद्धहस्त उपन्यासकार और प्रख्यात साहित्यकार भी थे. संपादक के रूप में तो वे अपने जैसे अकेले माने जा सकते हैं. धर्मवीर भारती ने धर्मयुग के संपादन काल में सिर्फ नश्र प्रतिभाओं को ही नहीं गढ़ा, बल्कि हर एक विषय को अपनी पत्रिका के सांचे में ढाले रखा. चाहे वह धर्म, राजनीति, साहित्य, फिल्म और कला ही क्यों न हो, उनसे कोई भी विषय अछूता नहीं था.
वैसे डॉ धर्मवीर भारती को ‘आदि विद्रोही’ के रूप में भी जाना जाता है. यही कारण है कि वे प्रलेस (प्रगतिशील लेखक संघ) और परिमल (साहित्यकारों द्वारा बनाया गया एक और संगठन) को अस्वीकार्य थे. प्रलेस में जमे रहने के लिए के कारण एक बार फिराक गोरखपुरी ने धर्मवीर भारती को एक महत्वपूर्ण सुझाव देते हुए कहा था कि उनके तेवर और तर्ज के एकाध गीत लिख डालो, उनकी गोष्ठियों में उन्हें वही सुनाते रहो और फिर खूब लिखते रहो अपने प्रेम और रोमांस वाले गीत, लेकिन धर्मवीर भारती अपनी जिद पर अड़े रहे, क्योंकि उन्हें कोई मुखौटा पसंद नहीं था.
अपने इसी स्वभाव से हारकर उन्हें आखिरकार इलाहाबाद छोड़ना पड़ा था. वह प्रोफेसरी भी उन्हें छोड़नी पड़ी थी, जिसमें उन्हें केवल सुनने के लिए दूसरे विभागों के बच्चों के हुजूम जमा हो जाते थे. यही वह समय था, जब मुंबई और ‘धर्मयुग’ उनके जीवन में समाहित हो गये. धर्मवीर भारती ने धर्मयुग में घरेलू स्त्रियों और बच्चों के लिए भी बहुत कुछ समाहित किया था. मतलब यह कि धर्मयुग में उस वक्त परिवार के हर सदस्य के लिए कुछ न कुछ होता था. कुल मिलाकर यह संपूर्ण और स्तरीय पत्रिका थी, जो तब ज्यादा चलन में रहे संयुक्त परिवारों में खूब प्रचलित थी. डॉ धर्मवीर भारती के प्रयास का ही नतीजा है कि इसे अकूत प्रसिद्धि मिली और उनके काल में इसकी प्रसार संख्या कुछ हजार से लाखों में पहुंच गयी.
कार्टून जैसी विरल विधा को भी उन्होंने इतना सम्मान दिया कि 25 वर्षों तक धर्मयुग में लगातार छपने के बाद आबिद सुरती द्वारा रचा गया कार्टून ‘ढब्बू जी’ अमर हो गया. और तो और आबिद सूरती की प्रसिद्धि भी कार्टूनिस्ट के रूप में ही चल निकली, जबकि वे व्यंग्यकार, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार सब थे. यह उदाहरण बताता है कि किस तरह तब धर्मयुग साहित्य की विधाओं और साथ ही रचनाकारों को स्थापित कर रही थी.
डॉ धर्मवीर भारती ने अपने जीवन काल में न केवल हिंदी पत्रकारिता को ही समृद्धि प्रदान कराने में अपनी अहम भूमिका निभायी, बल्कि समान रूप से उन्होंने हिंदी साहित्य को भी समृद्ध बनाने में समय दिया. ‘कनुप्रिया’, ‘गुनाहों का देवता’, ‘ठंडा लोहा’, ‘अंधायुग’, ‘सात गीत वर्ष’, ‘सूरज का सातवां घोड़ा’, ‘मानस मूल्य’, ‘साहित्य’, ‘नदी प्यासी’, ‘कहनी- अनकहनी’, ‘ठेले पर हिमालय’, ‘परयान्ति’ और ‘देशांतर’ उनकी कालजयी रचनाओं में से एक है. इन रचनाओं में ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ ने उनकी सदाबहार रचना के रूप में प्रसिद्धि पायी, तो ‘गुनाहों का देवता’ एक अनोखा प्रयोग माना जाता है. हालांकि, उनकी इसी रचना को लेकर प्रसिद्ध फिल्मकार श्याम बेनेगल ने फिल्म भी बनायी है.
उनकी जीवटता का उदाहरण देते हुए कहा जाता है कि 1990 के दशक में तीन गंभीर हार्ट अटैक आने के बाद उनके दिल को रिवाइव करने के लिए 700 वोल्ट के शॉक दिये गये थे. इससे उनकी जिंदगी तो जरूर बच गयी, लेकिन उनके हृदय को भारी क्षति पहुंची थी. इसी हालत में उन्होंने अपनी जिंदगी के तीन-चार साल और गुजारे और चार सितंबर, 1997 को उनका देहावसान हो गया.
डॉ धर्मवीर भारती को इन पुरस्कारों से नवाजा गया…
1972 : पद्मश्री
1984 : सर्वश्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार
1988 : सर्वश्रेष्ठ नाटककार पुरस्कार
1989 : संगीत नाटक अकादमी
1989 : राजेंद्र प्रसाद सम्मान
1989 : भारत भारती सम्मान
1994 : महाराष्ट्र गौरव
1994 : कौड़िय न्यास
1994 : व्यास सम्मान