हिंदी की साहित्यिक सक्रियता, 2018
माधव हाड़ा वरिष्ठ समालोचक वर्ष 2018 के दौरान हुई किताबों की आमद और उन पर हुई चर्चा से लगता है कि हिंदी की रचनात्मक सक्रियता का चरित्र बहुत तेजी से बदल रहा है. संचार क्रांति, मीडिया विस्फोट, ग्लोबलाइजेशन और औपनिवेशिक पहचान से मुक्त होने के बढ़ते आग्रह से उसमें कई बदलाव आ रहे हैं. एक […]
माधव हाड़ा
वरिष्ठ समालोचक
वर्ष 2018 के दौरान हुई किताबों की आमद और उन पर हुई चर्चा से लगता है कि हिंदी की रचनात्मक सक्रियता का चरित्र बहुत तेजी से बदल रहा है. संचार क्रांति, मीडिया विस्फोट, ग्लोबलाइजेशन और औपनिवेशिक पहचान से मुक्त होने के बढ़ते आग्रह से उसमें कई बदलाव आ रहे हैं. एक तो यह कथा-कविता के सीमित दायरे से बाहर निकल रही है, दूसरे, इसमें विधायी अनुशासन का आग्रह कम हो रहा और तीसरे, इसका अंग्रेजी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के साथ मेलजोल बढ़ रहा है.
कथेतर और विचार का आग्रह तेजी से बढ़ रहा है. दरअसल भारतीय जनसाधारण के नजरिये में इधर कल्पना की तुलना में युक्ति और तर्क हिस्सेदारी बढ़ गयी है और इसका प्रभाव हिंदी की रचनात्मकता पर भी है. इसमें अब कल्पना निर्भर कविता-कथा की जगह युक्ति और तर्क के हिसाब से ठीक-ठाक कथेतर रचनाओं का बोलबाला है. इस वर्ष प्रकाशित-चर्चित अधिकांश रचनाएं संस्मरण, यात्रावृत्त, डायरी और साक्षात्कार की हैं. खास बात यह है कि कई स्थापित कवि-कथाकरों ने कथेतर का रुख कर लिया है. कथाकार असगर वजाहत और कवि ऋतुराज के यात्रावृत्त क्रमशः ‘अतीत का दरवाजा’ और ‘चीन की डायरी’ तथा कवि मलय का संस्मरण ‘यादों की अनन्यता’ इसके उदाहरण हैं.
कथेतर रचनात्मक सक्रियता
हिंदी की शुरुआती, कथेतर रचनात्मक सक्रियता में औपनिवेशिक विधायी पहचानों का आग्रह बहुत था. थोड़ा-सा भी इधर-उधर होने पर लोग नाक-भौं सिकोड़ते थे, लेकिन अब यह अनुशासन नहीं के बराबर रह गया है. संस्मरण, आख्यान, इतिहास, आलोचना, आत्मकथा आदि अनुशासनों में अंतर्क्रिया बहुत बढ़ गयी है. अशोक कुमार पांडेय की चर्चित किताब ‘कश्मीरनामा’ में आख्यान, इतिहास, शोध, आलोचना आदि सब एक साथ हैं. रामशरण जोशी की किताब ‘मैं बोनसाई अपने समय में’ भी आत्मकथा, संस्मरण, इतिहास, पत्रकारिता आदि घुलमिल गये हैं.
नामवर सिंह की ‘द्वाभा’ में भी संस्मरण और आलोचना का मेलजोल है.
खास बात यह है कि युवा हस्तक्षेप भी इस वर्ष कथेतर में सबसे अधिक है. संस्मरणों की आमद भी हिंदी में बढ़ रही है. इस वर्ष चर्चित संस्मरणकार कांति कुमार जैन की ‘कवियों की याद में’ शीर्षक पुस्तक आयी. ललित मोहन रयाल की ‘खड़कमाफी की स्मृतियों में’ ने भी लोगों का ध्यान खींचा. डायरी हिंदी में कम लिखी जाती है, लेकिन इस वर्ष इस विधा की दो रचनाओं- कृष्ण बलदेव वैद की ‘अब्र क्या चीज है? हवा क्या है?’ और शिवरतन थानवी की ‘जगदर्शन का मेला’ को लोगों ने गहरी दिलचस्पी के साथ पढ़ा.
युवाओं की सक्रियता
स्थापित आलोचकों के साथ युवाओं की सक्रियता भी इसमें बढ़ी है. नामवर सिंह की इस वर्ष चार पुस्तकें- ‘आलोचना और संवाद’, ‘पूर्वरंग’, ‘छायावाद’ और ‘रामविलास शर्मा’ आयीं. इनमें उनके अप्रकाशित लेखों, संवादों, टिप्पणियों लेखों के संकलन हैं. इनसे एक आलोचक के बनने-बढ़ने की प्रक्रिया को समझने में मदद मिलेगी. रविभूषण की किताब ‘रामविलास शर्मा का महत्व’ और कीर्तिशेष कुंवर नारायण पर एकाग्र ‘अन्वय’ और ‘अन्विति’ नामक किताबें भी इस वर्ष चर्चा में रहीं. इस वर्ष कुछ युवा आलोचकों ने मुक्तिबोध को अपनी दिलचस्पी के केंद्र में रखकर प्रभावी हस्तक्षेप किया.
अमिताभ राय की ‘सभ्यता की यात्रा: अंधेरे में’ और विनय विश्वास की ‘ऐंद्रिकता और मुक्तिबोध’ नामक किताबें मुक्तिबोध को समझने-पहचानने के नये उपक्रम हैं. इसी तरह फणीश्वरनाथ रेणु के कथाकार को नयी तरह से जानने-समझने का प्रयास मृत्युंजय पांडेय की किताब ‘रेणु के भारत में’ है. इस वर्ष प्रकाशित शीतांशु की ‘कंपनी राज और हिंदी’, नीरज खरे की ‘आलोचना के रंग’ और राहुल सिंह की ‘अंतर्कथाओं के आईने में उपन्यास’ भी आलोचना की महत्वपूर्ण किताबें हैं.
कथा-कविता के क्षेत्र रचनात्मकता
कथा-कविता के क्षेत्र में हिंदी की रचनात्मक सक्रियता सीमित हुई है. अभी कुछ समय पहले तक हिंदी में हाथ उठाकर कथा-कविता में नये सरोकार और मुहावरे की घोषणा करनेवालों की भीड़ रहती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है. खासतौर पर युवाओं में कविता के लिए उत्साह कम हुआ है. कहानी-उपन्यास में भी युवाओं की आमद इस वर्ष नगण्य ही है.
कुंवर नारायण के ‘सब इतना असमाप्त’ और केदारनाथ सिंह के ‘मतदान केंद्र पर झपकी’ नामक संकलन उनके मरणोपरांत इस वर्ष आये. लीलाधर मंडलोई का ‘जलावतन’, पवन करण का ‘स्त्री शतक’, गगन गिल का ‘मैं जब आयी बाहर’ और सुमन केशरी का ‘पिरामड़ों की तह में’ भी इस वर्ष की उल्लेखनीय काव्य रचनाएं हैं. हिंदी कविता के तीन शीर्ष कवियों के संचयन- नंदकिशोर आचार्य का ‘अपराह्न’, सौमित्र मोहन का ‘आधा दिखता वह आदमी’ और वीरेन डंगवाल का ‘कविता वीरेन’ इस वर्ष प्रकाशित हुए. सुरेश सलित के संपादन में हिंदी की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन ‘आधी सदी’ भी इसी वर्ष आया.
कहानी-उपन्यास के क्षेत्र में उत्साह
हिंदी में कहानी-उपन्यास के क्षेत्र में भी माहौल बहुत उत्साह का नहीं है. इसमें सरोकार और मुहावरे के मामले में नवाचार कम हो रहे हैं. उपन्यास के क्षेत्र में तीनों उल्लेखनीय रचनाएं- गीतांजलि श्री की ‘रेत समाधि’, ज्ञान चतुर्वेदी की ‘पागलखाना’ और अलका सरावगी की ‘एक सच्ची झूठी गाथा’ स्थापित कथाकारों की हैं.
इनके साथ वीरेंद्र सारंग के ‘बांझ सपूती’ और शैलेंद्र सागर के ‘ये इश्क नहीं आसां’ कोभी याद किया जाना चाहिए. अलबत्ता कहानी के क्षेत्र में उपन्यास की तुलना कुछ अधिक सक्रियता है. असगर वजाहत का ‘भीड़तंत्र‘, गौरव सोलंकी का ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’, क्षमा शर्मा का ‘बात अभी खत्म नहीं हुई’ और ममता सिंह का ‘राग मारवा’ संकलन इस वर्ष चर्चा में रहे. कथाकार असगर वजाहत का पल्लव द्वारा संपादित रचना संचयन भी इसी वर्ष की उपलब्धि माना जायेगा.
भारतीय भाषाओं के अनुवाद
अभी कुछ दशकों पहले तक हिंदी में अस्मितायी भाषिक संकीर्णता खूब थी. इसमें अंग्रेजी और शेष भारतीय भाषाओं के साथ संवाद को लेकर लोगों का नजरिया परहेज का था, लेकिन अब माहौल बदल रहा. अब कमोबेश रवैया मेलजोल का है. इसका सबूत यह है कि ज्ञानपीठ सम्मान के अंग्रेजी के खाते में जाने की हिंदी समाज में प्रतिक्रिया तो हुई, लेकिन इसको कोई व्यापक स्वीकृति नहीं मिली. हिंदी में अंग्रेजी सहित शेष भारतीय भाषाओं के अनुवादों का सिलसिला तेज हुआ है.
इस वर्ष आये विवेक शानभाग का अजय सिंह का ‘घाचर-घोचर’ (कन्नड़), सादिक का गालिब का ‘चिराग-ए-दैर’ (उर्दू), प्रयाग शुक्ल का शंख घोष का ‘मेघ जैसा मनुष्य’ (बंगला), मोनिका सिंह का पाट्रिक मोदियानो का ‘गुलामी से परे’ (अंगेजी) आदि अनुवाद महत्त्वपूर्ण हैं. भारतीय अंगेजी लेखकों की किताबें भी अब तत्काल हिंदी में आने लगी हैं. इस वर्ष ऐसी कई किताबें आयीं, जिनमें अभय कुमार दूबे की अनूदित शशि थरूर की ‘मैं हिंदू क्यों हूं’ प्रमुख है.