-एमजेड खान-
शौक़ जालंधरी 91 साल की उम्र में दुनिया से रुख़सत हुए. 15-20 सालों से रांची में थे. रायपुर के बाद उन्होंने रांची को अपनी अदबी सरगर्मियों का मसकन बनाया. शौक़ साहब एक पुर खुलूस इंसान थे. अपनी शायरी से मुहब्बत का पैग़ाम देने वाला ये शायर हमें याद आता रहेगा. उर्दू से इन्हें बेलौस मुहब्बत थी. जब इनकी पोती की अचानक मृत्य हो गयी थी, तो दफन के मौके पर हमलोगों ने इन्हें टूटते हुए देखा था और मेमोरियल में इनसे सिर्फ़ उर्दू अशआर सुने थे और उर्दू में तक़रीर की थी. मुझे हददर्जा खुशी हुई थी.
उर्दू की महफिलों में भी मैंने उर्दू की इतनी पज़ीराई(स्वीकार्यता) होते नहीं देखी थी,जितनी मुझे इस मेमोरियल में देखने को मिली थी. ये थी इनकी उर्दू से मुहब्बत.रांची में जितने भी छोटे -बड़े कार्यक्रम हुए, शौक़ साहब ने उनमें शिरकत की. हालांकि पिछले कुछ समय से उन्होंने इन कार्यक्रमों से दूसरी बना ली थी. सितंबर 2018 में जब कुछ ज़्यादा सीरियस हो गए थे तो मुझे सतीश शौक़ ने खबर दी थी कि पापा आपसे मिलना चाहते हैं.मैं शाम के वक़्त तन्हा उनसे मिलने गया, तो वे हाथ पकड़कर रोने लगे और मुझसे माफ़ी चाहने लगे.कहने लगे कि मैं ये खलिश लेकर दुनिया से जाना नहीं चाहता. मैंने उनसे कहा कि आप मेरे बुज़ुर्ग हैं.
शौक़ साहब ने अपनी आखिरी ख्वाहिश का इज़हार करते हुए कहा कि मैं सिर्फ़ एक बार आपकी महफ़िल में आना चाहता हूं . मैंने उन्हें यकीन दिलाया कि आप सेहतमंद हो जाएं,फिर हम लोग मिल बैठकर प्रोग्राम करेंगे. वे काफ़ी कमज़ोर हो गए थे. बाएं हाथ मे प्लास्टर चढा हुआ था और मुंह में नलकी लगी हुई. बेबस और लाचार नज़र आ रहे थे. शौक़ साहब और मेरा साथ तक़रीबन सात सालों का था. 2010 में मैंने इन्हें पहली बार डोरंडा स्थित हाथीखाने में शिरकत की थी.शौक़ साहब मुहब्बत ओ अहसास के शायर थे.
कुछ अशआर तो मुझे भी पसंद हैं जैसे मिलती हैं जुलेखाएँ तो हर मोड़ पे ऐ शौक़/यूसुफ सा मगर कोई सरापा नहीं मिलतानहीं जिनको सलीक़ा मयकशी का/उन्हीं के हाथ पैमाने लगे हैंशौक़ सवेरा कब आएगा,कैसे मिलकर लोग रहें/असलम,डेविड,देवकीनन्दन ,मैं भी सोचों,तू भी सोचजीना मुश्किल है तो मरना भी कोई सहल नहीं/हमने देखा है कई बार इरादा करकेमैं मुहब्बत हूँ, मेरे दम से है दुनिया में बहार/मुझको खुशबू की तरह शौक़ बिखर जाने दो..अलविदा शौक़। … अलविदा