आखिर क्यों नामवर सिंह ने खुद को कहा था, मैं फरमाइशी लेखक हूं…

हिंदी साहित्य जगत के प्रसिद्ध साहित्यकार एवं आलोचना के मूर्धन्य हस्ताक्षर प्रोफेसर नामवर सिंह का कल मंगलवार को निधन हो गया. वह 92 वर्ष के थे.नामवर सिंह का अंतिम संस्कार आज अपराह्न तीन बजे लोधी रोड स्थित शमशान घाट में किया जाएगा. वे पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे. उनके निधन से पूरा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 20, 2019 11:46 AM
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हिंदी साहित्य जगत के प्रसिद्ध साहित्यकार एवं आलोचना के मूर्धन्य हस्ताक्षर प्रोफेसर नामवर सिंह का कल मंगलवार को निधन हो गया. वह 92 वर्ष के थे.नामवर सिंह का अंतिम संस्कार आज अपराह्न तीन बजे लोधी रोड स्थित शमशान घाट में किया जाएगा. वे पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे. उनके निधन से पूरा साहित्य जगत हतप्रभ है, उनके जाने से जो हिंदी साहित्य में जो रिक्ततता उत्पन्न होगी उसकी भरपाई मुश्किल है. आज जब वे इस दुनिया में नहीं हैं, पढ़ें उनके व्यक्तित्व पर आधारित वरिष्ठ साहित्यकार रवि भूषण जी का यह आलेख-

– रविभूषण-

नामवर आलोचना में शास्त्रीय शब्दावली घुसने नहीं देते. उनकी आलोचना ‘सजर्नात्मक’ है. आलोचना उनके लिए ‘एकेडमिक कर्म’ न होकर ‘सामाजिक कार्य’ है. ‘कॉमन रीडर’ उनके लिए महत्वपूर्ण है, न कि विश्वविद्यालयों के ‘हिंदी प्रोफेसर.’

बीते साल दो जुलाई को इंडिया हैबिटाट सेंटर (नयी दिल्ली) में भारतीय ज्ञानपीठ के संवाद कार्यक्रम ‘वाक’ में नामवर सिंह से विश्वनाथ त्रिपाठी और देवी प्रसाद त्रिपाठी ने जो बातचीत की है, उसमें नामवर ने अपने को ‘फरमाइशी लेखक’ कहा है- ‘मैं फरमाइशी लेखक हूं. मेरा सारा लेखन फरमाइशी है.’ संभव है, कइयों को नामवर के इस कथन से आश्चर्य हुआ हो, लेकिन 18 वर्ष पहले 8 अगस्त, 1996 को नामवर ने अपने दिल्ली आवास पर प्रकाश मनु को जो इंटरव्यू दिया था, उसमें भी उन्होंने अपने ‘फरमाइशी’ लेखक होने की बात कही थी.

नामवर को सदैव यह दुख रहा है कि उन्होंने कभी योजनाबद्ध ढंग से कोई काम नहीं किया. एमए के बाद उन्होंने 1951 में शिवदान सिंह चौहान के कहने पर ‘आलोचना’ के लिए ‘इतिहास का नया दृष्टिकोण’ और बदरी विशाल पित्ती के आग्रह पर ‘कल्पना’ के लिए ‘साहित्य में कलात्मक सौंदर्य की समस्या’ लेख लिखे. प्रकाश मनु वाले इंटरव्यू में उन्होंने अपने आलोचनात्मक लेखन को ‘एत तीव्र असंतोष का भाव’ व्यक्त किया. असंतोष का मुख्य कारण वे अपने समस्त लेखन को ‘एक तरह से फरमाइशी’ मानते हैं. अपने लेखन में वे ‘कुछ न कुछ अधूरापन’ देखते हैं, जो उन्हें ‘सालता’ रहा है. प्रकाश मनु से उन्होंने यह भी कहा था कि ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपने आलोचनात्मक लेखों को फरमाइशी कहा करते थे.’

नामवर का लंबे समय से अपने से गहरा असंतोष है. वे जो कर सकते थे, उन्होंने नहीं किया. रामविलास शर्मा से कुछ भी नहीं सीख सके, जबकि ‘वाद-विवाद-संवाद’ (1989) रामविलास जी को ही समर्पित है. विगत 25 वर्ष से नामवर की कोई स्वतंत्र, नयी पुस्तक नहीं आयी है. उनके पूर्व भाषणों, आलेखों, व्याख्यानों, टिप्पणियों, निबंधों, साक्षात्कारों की सभी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग’ (1952) और ‘पृथ्वीराज रासो: भाषा और साहित्य’ (1957) पचास के दशक की पुस्तकें हैं. ‘कहानी : नयी कहानी’ (1965) के सभी निबंध 1957 से 1965 के बीच के हैं.

साठ के दशक में इस पुस्तक के बाद ‘कविता के नये प्रतिमान’(1968) का प्रकाशन हुआ था. इस पुस्तक की जब समुचित ढंग से रामविलास शर्मा, सुरेंद्र चौधरी तथा अन्य लोगों ने आलोचना की थी, नामवर ने उसे गंभीरता से नहीं लिया. साहित्य अकादमी पुरस्कार ‘कविता के नये प्रतिमान’ पर मिला था. इस पुस्तक के प्रशंसकों को यह जानकर तकलीफ होगी कि अब नामवर ने इसे अपनी ‘कमजोर किताब’ कहा है. डीएच लारेंस ने कहा है कि कहानीकार पर नहीं, कहानी का विश्वास करो. क्या इसी तर्ज पर हम यह कहना चाहेंगे कि आलोचक पर नहीं, उसकी आलोचना पर विश्वास करो? दिक्कत यह है कि नामवर की आलोचना अधिक विश्वसनीय नहीं है.

‘कविता के नये प्रतिमान’ के लेखन में उन्होंने अधिक समय दिया था. यह पुस्तक उनके अनुसार ‘ज्यादा बांधे हुए ढंग से लिखी गयी.’ 18 वर्ष बाद अब नामवर स्वयं इसे अपनी ‘कमजोर किताब’ कह रहे हैं. ‘कविता के प्रतिमान’ में कोई नया प्रतिमान निर्मित नहीं है. उन्होंने केवत कविता के प्रतिमानों की ‘जांच-परख’ की है. उद्देश्य ‘क्रिटिक ऑफ क्रिटिकल क्रिटिक’ रहा है. एक बातचीत में उन्होंने यह कहा है- ‘आलोचना किसी के कहने पर नहीं लिखी जाती.’ आलोचना लेखन ‘साहित्य में सबसे ज्यादा अध्यवसाय मांग मांगती है. जिसके पास धैर्य नहीं है वह लंबे समय तक इस मैदान में डट नहीं सकता.’

नामवर ने हिंदी आलोचना की एक नयी, दूसरी वाचिक परंपरा को जन्म दिया है. लेखन से कहीं अधिक उनके व्याख्यान हैं. इंटरव्यू भी कम नहीं हैं. ‘आलोचक के मुख से’ जो जब जैसा कहा गया है, उसमें एकतारता नहीं है. वे स्वयं स्वीकारते हैं, लिखने से हाथ कट जाता है, बोलने से जीभ नहीं कटती. ‘जेएनयू में नामवर सिंह’ (2009) सुमन केशरी की संपादित पुस्तक है. खगेंद्र ठाकुर ने पटना में प्रलेस के मंच से विभिन्न अवसरों पर दिये उनके पांच व्याख्यानों को ‘आलोचक के मुख से’ पुस्तक (2005) में संकलित किया है.

हिंदी के मशहूर साहित्यकार और आलोचक नामवर सिंह का निधन

नामवर की ‘डिमांड’ आज भी है. सुधीश पचौरी ने उन्हें साहित्य के बाजार का नायक कहा था और मृणाल पांडे ने हिंदी साहित्य का अमिताभ बच्चन. वे ‘हिंदी आलोचना की वाचिक परंपरा के आचार्य’ हैं. नागार्जुन के शब्दों में ‘जंगम विद्यापीठ के कुलपति.’ स्थापित एवं स्थावर विश्वविद्यालयों की तुलना में जंगम विद्यापीठ का न कोई एक स्थान होता है, न मुख्यालय. जनेवि में रहते हुए नामवर ने ‘दूसरी परंपरा की खोज’(1983) लिखी, जिसे वे अपनी ‘सबसे प्रिय पुस्तक’ कहते हैं. उनके दिमाग में ‘प्लेटो के डायलॉग्स’ रहे हैं.

आलोचना की भाषा एकडेमिक नहीं होती. नामवर आलोचना में शास्त्रीय शब्दावली घुसने नहीं देते. उनकी आलोचना ‘सजर्नात्मक’ है. आलोचना उनके लिए ‘एकेडमिक कर्म’ न होकर ‘सामाजिक कार्य’ है. ‘कॉमन रीडर’ उनके लिए महत्वपूर्ण है, न कि विश्वविद्यालयों के ‘हिंदी प्रोफेसर.’ वे वाचिक के द्वारा उस ‘कॉमन रीडर’ तक पहुंचना चाहते हैं, ‘जो मुझे अब तक नहीं पढ़ सका है.’

यह अर्धसत्य है कि नामवर का लेखन ‘फरमाइशी’ है. ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ के वे अपने आलोचक रहे हैं. ‘जमाने से दो-दो हाथ’(2010) नामवर किये भी हैं. कमलेश्वर की बात मानें तो 1955 के आसपास मर्कडेय, दुष्यंत कुमार और उन्होंने, जिनका परिचय नामवर सिंह उसी समय हुआ था, आपस में मजाक में यह तय किया ‘नयी कहानी का आलोचक पैदा किया जाये.’ ‘कहानी : नयी कहानी’(1965) पुस्तक का ऐतिहासिक महत्व है. एकाग्रता और श्रमपूर्वक नामवर ने अधिक नहीं लिखा है.

रामचंद्र शुक्ल के ‘कविता क्या है’ निबंध को नामवर ने ‘सभ्यता समीक्षा’ कहा है. शुक्ल जी अगर ‘फरमाइशी लेखन’ करते, तो इस निबंध को कई बार नहीं लिखते. नामवर की सभी योजनाएं अधूरी रही हैं. ‘तीन आलोचक’ (शुक्ल, द्विवेदी, रामविलास) वे नहीं लिख सके. हिंदी प्रदेश के नवजागरण, समकालीन हिंदी की दूसरी परंपरा, मार्क्‍सवादी आलोचना और आलोचक, भारतीय उपन्यास की संकल्पना के साथ उनकी योजना कई पुस्तकें लिखने की थी. अब वे स्वीकार करते हैं ‘मैंने बहुत कम लिखा है.’ उनका आंतरिक दुख ही यह कहलवाता है ‘मैं फरमाइशी लेखक’ हूं. नामवर हिंदी आलोचना के ‘सुपर स्टार’ रहे हैं, जो न तो उनके लिए अच्छा है और न ही हिंदी आलोचना के लिए.

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