जीवन-संध्या में कृष्ण और राधा का वह अंतिम मिलन !

-ध्रुव गुप्त- कुंवारे कृष्ण और विवाहिता राधा की प्रेम कहानी को हमारी संस्कृति और साहित्य की सबसे आदर्श और पवित्र प्रेम-कथा का दर्जा हासिल है. विवाहेत्तर और परकीया प्रेम के ढेरों उदाहरण विश्व साहित्य में है, लेकिन इस प्रेम को आध्यात्मिक ऊंचाई सिर्फ भारतीय साहित्य ने दिया है. ऊंचाई भी कुछ इतनी कि हिंदू धर्म […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 3, 2019 5:36 PM

-ध्रुव गुप्त-

कुंवारे कृष्ण और विवाहिता राधा की प्रेम कहानी को हमारी संस्कृति और साहित्य की सबसे आदर्श और पवित्र प्रेम-कथा का दर्जा हासिल है. विवाहेत्तर और परकीया प्रेम के ढेरों उदाहरण विश्व साहित्य में है, लेकिन इस प्रेम को आध्यात्मिक ऊंचाई सिर्फ भारतीय साहित्य ने दिया है. ऊंचाई भी कुछ इतनी कि हिंदू धर्म के रूढ़िवादियों को भी इस बात पर अचरज नहीं होता कि कृष्ण की पूजा उनकी पत्नियों की जगह राधा के साथ क्यों होती है. और यह भी कि राधा अपने पति रायाण के बजाय कृष्ण के साथ क्यों पूजी जाती हैं.

पौराणिक साहित्य के अनुसार कृष्ण राधा से उम्र में छोटे थे. किशोरावस्था में ही कृष्ण राधा से बिछड़ गए थे. परिस्थितिवश वे गोकुल से मथुरा गए और फिर मथुरा से उन्हें द्वारिका पलायन कर जाना पड़ा. गोकुल से जाने के बाद राजकाज की उलझनों, मथुरा पर कंस के श्वसुर मगधराज जरासंध के निरंतर आक्रमणों, मथुरावासियों के साथ द्वारिका के लिए पलायन और द्वारिका को बसाने तथा उसे समृद्धि के शिखर तक पहुंचाने की कोशिशों के बीच कृष्ण को कभी इतना अवकाश नहीं मिला कि वे दुबारा राधा से मिलकर उन्हें अपने प्रेम का भरोसा दे सके. युवा और प्रौढ़ हो जाने के बाद किशोरावस्था की उन्मुक्त चेतना भी धीरे-धीरे साथ छोड़ जाती है. उसकी जगह व्यक्ति पर सामाजिक और पारिवारिक मर्यादाओं का संकोच हावी होने लगता है. वे गांव लौटकर भी आते तो गाय लेकर न तो मधुवन में राधा की प्रतीक्षा कर सकते थे और न ही पहले की तरह स्त्री का वेश धर बरसाने में राधा के घर में ही उनका प्रवेश ही संभव था. कृष्ण ने राधा को भरोसा दिलाने के लिए दूत के रूप में अपने मित्र उद्धव को जरूर राधा के पास भेजा था, लेकिन प्रेम में डूबा विरही मन कहीं दूतों का उपदेश और अध्यात्म की विवेचना सुनता है ?

ज्यादातर पुराणों में गोकुल से जाने के बाद कृष्ण की राधा से मुलाक़ात का कोई प्रसंग नहीं मिलता. धार्मिक मान्यता भी है कि कृष्ण के वृन्दावन से जाने के बाद उनकी राधा से दुबारा कभी भेंट नहीं हो सकी थी. ब्रह्मवैवर्त पुराण, कुछ संस्कृत काव्यों, सूर साहित्य और लोकगाथाओं में वियोग के लगभग सौ कठिन वर्षों के बाद जीवन की सांध्य बेला में एक बार फिर राधा और कृष्ण की एक संक्षिप्त-सी मुलाक़ात का उल्लेख अवश्य है. दोनों के जीवन की अंतिम मुलाक़ात. जगह था कुरुक्षेत्र जहां सूर्यग्रहण के मौके पर प्राचीन काल से ही बहुत बड़ा मेला लगता रहा है. सूर्योपासना के उद्देश्य से कृष्ण द्वारिका से रुक्मिणी के साथ सदल बल वहां पहुंचे थे. कृष्ण की तीर्थयात्रा की सूचना मिलने पर बाबा नन्द भी गोकुल से अपने परिवार के साथ कुरुक्षेत्र आ गए. उनके साथ कृष्ण के कुछ बालसखा भी थे और अपनी कुछ आत्मीय सहेलियों के साथ राधा भी. स्वजनों और परिजनों की भीड़ तथा तमाम राजकीय औपचारिकताओं के बीच कृष्ण और राधा के मिलने का कोई संयोग बनता नहीं देख कृष्ण के बालसखाओं और राधा की सहेलियों ने मिलकर कुरुक्षेत्र तीर्थ के एक शिविर में कुछ देर के लिए दोनों की एकांत भेंट का प्रबंध किया था.

कुरुक्षेत्र तीर्थ के उस एकांत शिविर में दो प्रेमियों की बचपन के बाद सीधे बुढ़ापे की उस मुलाक़ात में क्या हुआ होगा, इसकी तो बस कल्पना ही की जा सकती है. लोक साहित्य में न तो इस प्रसंग को विस्तार मिला है और न भावना के स्तर पर इसकी थाह लेने की कोशिश की गई है. वैष्णव साहित्य में धार्मिक रंग देकर इसे आत्मा और परमात्मा के अलौकिक मिलन के तौर पर चित्रित किया गया है. उस छोटी-सी मुलाक़ात में राधा और माधव कैसे एकाकार हो चले थे, इसका संकेत सूरदास ने किया तो है, लेकिन उन्होंने भी इस भावातीत अवस्था को शब्दों में बांधने में अपनी असमर्थता भी प्रकट की है :

राधा माधव भेंट भई

राधा माधव, माधव राधा, कीट भृंग ह्वै जु गई

माधव राधा के संग राचे, राधा माधव रंग रई

माधव राधा प्रीति निरंतर रसना कहि न गई.

सोचकर देखिए कि सौ वर्षों के अंतराल के बाद दो उत्कट बाल प्रेमियों की उस छोटी-सी भेंट में क्या-क्या हुआ होगा. जाने कितने आँसू बहे होंगे. कितने आंसू बहते-बहते ठहर गए होंगे, आंखों के किन्हीं अदृश्य कोनों में. भूली-बिसरी कितनी ही स्मृतियाँ जीवंत हो उठी होंगी. मिलन के पिछले उद्दाम क्षणों को याद कर कितनी बार रगों में लहू का प्रवाह तेज हुआ होगा. कितनी व्यथाएं उभरी और दब गई होंगी. कैसे-कैसे उलाहने सुने और सुनाए गए होंगे. कितना-कितना प्रेम बरसा होगा और कितना-कितना विवाद. या क्या पता कि भावातिरेक में शब्द ही साथ छोड़ गए हों ! दोनों तरफ एक घुटता हुआ सन्नाटा ही पसरा हो शायद उनके बीच. प्रेम के सबसे अंतरंग पलों में बिना कुछ कहे-सुने भी तो सब कुछ कहा-सुना जैसा ही लगता है. स्थितियां जैसी भी रही हों, जीवन के अंतिम पहर में दो प्रेमियों के मिलन का वह दृश्य अद्भुत तो अवश्य रहा होगा.

तमाम कोशिशों के बावजूद इन दो पुराने प्रेमियों की गोपनीय मुलाकात रहस्य नहीं रह पाई थी. गुप्तचरों के माध्यम से कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी को जब उनकी भेंट की सूचना मिली तो वे स्वयं राधा से मिलने का हठ ठान बैठी. रुक्मिणी की जिद पर राधा से उनकी मुलाक़ात कराई गई. रुक्मिणी ने राधा का भरपूर आतिथ्य किया . उस राधा का जिनके साथ कृष्ण के प्रेम की कथाएं वह वर्षों से सुनती आ रही थीं. भेंट के क्रम में भोजन कराने के बाद रुक्मिणी ने स्नेहवश उन्हें कुछ ज्यादा ही गर्म दूध पिला दिया था. राधा तो हंसकर वह सारा दूध पी गई, लेकिन देखते-देखते कृष्ण के समूचे बदन में फफोले पड़ गए. यह शायद प्रेम की आंतरिकता का चरम था. यह घटना इस बात का भी प्रमाण है कि कोई एक जीवन में चाहे जितनी बार भी प्रेम कर लें, जीवन के पहले प्रेम की गहराई और सघनता को दुबारा स्पर्श भी कर पाना बहुत कठिन है.

इस संक्षिप्त मिलन के बाद बदन में फफोले पड़ने के अलावा कृष्ण पर क्या बीती, इसका किसी साहित्य में कोई उल्लेख कहीं नहीं मिलता. वैसे भी वार्द्धक्य में पुरुष अपने मनोभाव कम ही प्रकट करते हैं. हां, इस मिलन के बाद राधा की जो मनोदशा प्रकट हुई है, वह तो किसी भी संवेदनशील मन को व्यथित कर देने के लिए पर्याप्त हैं. ‘ब्रह्मवैवर्त पुराण’ के एक काव्यांश में कुरुक्षेत्र से वापस लौटते समय राधा ने कृष्ण के साथ अपने मिलन के अनुभव अपनी अंतरंग सहेली ललिता से साझा करते हुए जो कहा, वह यह है :

‘प्रियः सोsयं कृष्णः सहचरि कुरूक्षेत्रमिलित

स्तथाहं सा राधा तद्दिमुभयो संगमसुखम

तथाप्यन्तः खेलन्मधुरमुरलीपञ्चमजुषे

मनो में कालिंदीपुलिनविपिनाय स्पृहयति.‘

‘सखि, प्रियतम कृष्ण भी वही हैं. मैं राधा भी वही हूँ. आज कुरूक्षेत्र में हमारे मिलन का सुख भी वही था. तथापि इस पूरी मुलाकात में मैं कृष्ण की वंशी से गूंजता कालिंदी का वह जाना-पहचाना तट ही खोजती रह गई. यह मन तो उन्हें फिर से वृंदावन में ही देखना चाह रहा है.‘

Next Article

Exit mobile version