सुनो ब्राह्मण, कविता के कवि मलखान सिंह का निधन

लखनऊ : प्रसिद्ध कवि मलखान सिंह का निधन आज सुबह चार बजे हो गया. इस संबंध में उनके परिजनों ने जानकारी दी है. कवि मलखान सिंह की पहचान हिंदी दलित साहित्य के प्रमुख स्तंभ में की जाती है. उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना ‘ सुनो ब्राह्मण’ कविता है जिसने कविता कहने के नये अंदाज को जन्म […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 9, 2019 5:08 PM

लखनऊ : प्रसिद्ध कवि मलखान सिंह का निधन आज सुबह चार बजे हो गया. इस संबंध में उनके परिजनों ने जानकारी दी है. कवि मलखान सिंह की पहचान हिंदी दलित साहित्य के प्रमुख स्तंभ में की जाती है. उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना ‘ सुनो ब्राह्मण’ कविता है जिसने कविता कहने के नये अंदाज को जन्म दिया.

कवि मलखान सिंह का जन्म 30 सितंबर 1948 को उत्तर प्रदेश के हाथरस में जिले में हुआ था. उनके निधन की खबर जैसे ही सामने आयी, सोशल मीडिया में उन्हें श्रद्धांजलि देने का सिलसिला शुरू हो गया. कवि मलखान सिंह ने समाज के शोषितों और दलितों को आवाज दी थी.

मलखान सिंह की प्रमुख कविताएं…

सुनो ब्राह्मण,

हमारे पसीने से बू आती है, तुम्हें।

तुम, हमारे साथ आओ

चमड़ा पकाएंगे दोनों मिल-बैठकर।

शाम को थककर पसर जाओ धरती पर

सूँघो खुद को

बेटों को, बेटियों को

तभी जान पाओगे तुम

जीवन की गंध को

बलवती होती है जो

देह की गंध से।

सफ़ेद हाथी

गाँव के दक्खिन में पोखर की पार से सटा,

यह डोम पाड़ा है –

जो दूर से देखने में ठेठ मेंढ़क लगता है

और अन्दर घुसते ही सूअर की खुडारों में बदल जाता है।

यहाँ की कीच भरी गलियों में पसरी

पीली अलसाई धूप देख मुझे हर बार लगा है कि-

सूरज बीमार है या यहाँ का प्रत्येक बाशिन्दा

पीलिया से ग्रस्त है।

इसलिए उनके जवान चेहरों पर

मौत से पहले का पीलापन

और आँखों में ऊसर धरती का बौनापन

हर पल पसरा रहता है।

इस बदबूदार छत के नीचे जागते हुए

मुझे कई बार लगा है कि मेरी बस्ती के सभी लोग

अजगर के जबड़े में फंसे जि़न्दा रहने को छटपटा रहे है

और मै नगर की सड़कों पर कनकौए उड़ा रहा हूँ ।

कभी – कभी ऐसा भी लगा है कि

गाँव के चन्द चालाक लोगों ने लठैतों के बल पर

बस्ती के स्त्री पुरुष और बच्चों के पैरों के साथ

मेरे पैर भी सफेद हाथी की पूँछ से

कस कर बाँध दिए है।

मदान्ध हाथी लदमद भाग रहा है

हमारे बदन गाँव की कंकरीली

गलियों में घिसटते हुए लहूलूहान हो रहे हैं।

हम रो रहे हैं / गिड़गिड़ा रहे है

जिन्दा रहने की भीख माँग रहे हैं

गाँव तमाशा देख रहा है

और हाथी अपने खम्भे जैसे पैरों से

हमारी पसलियाँ कुचल रहा है

मवेशियों को रौद रहा है, झोपडि़याँ जला रहा है

गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर

बन्दूक दाग रहा है और हमारे दूध-मुँहे बच्चों को

लाल-लपलपाती लपटों में उछाल रहा है।

इससे पूर्व कि यह उत्सव कोई नया मोड़ ले

शाम थक चुकी है,

हाथी देवालय के अहाते में आ पहुँचा है

साधक शंख फूंक रहा है / साधक मजीरा बजा रहा है

पुजारी मानस गा रहा है और बेदी की रज

हाथी के मस्तक पर लगा रहा है।

देवगण प्रसन्न हो रहे हैं

कलियर भैंसे की पीठ चढ़ यमराज

लाशों का निरीक्षण कर रहे हैं।

शब्बीरा नमाज पढ़ रहा है

देवताओं का प्रिय राजा मौत से बचे

हम स्त्री-पुरूष और बच्चों को रियायतें बाँट रहा है

मरे हुओं को मुआवजा दे रहा है

लोकराज अमर रहे का निनाद

दिशाओं में गूंज रहा है…

अधेरा बढ़ता जा रहा है और हम अपनी लाशें

अपने कन्धों पर टांगे संकरी बदबूदार गलियों में

भागे जा रहे हैं / हाँफे जा रहे हैं

अँधेरा इतना गाढ़ा है कि अपना हाथ

अपने ही हाथ को पहचानने में

बार-बार गच्चा खा रहा है।

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