दुष्यंत कुमार की 5 कविताएं, जिनमें किया गया है समाज का अद्वितीय चित्रण
दुष्यंत कुमार हिंदी साहित्य के एक अद्वितीय कवि हैं, जिनकी कविताओं में सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर संवेदनशीलता के साथ लिखा गाय है.
Dushyant Kumar : दुष्यंत कुमार (1933-1975) एक प्रमुख भारतीय हिंदी कवि थे. वे हिंदी साहित्य के आधुनिक युग के महत्वपूर्ण कवियों में से एक माने जाते हैं. उनकी कविताओं में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर गहरी संवेदनशीलता और प्रखरता दिखाई देती है. दुष्यंत कुमार का जन्म 1 सितम्बर 1933 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के राजपुर नवादा गांव में हुआ था. उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की.
उनकी प्रसिद्ध काव्य रचनाओं में “साये में धूप” एक विशेष स्थान रखती है, जो उनकी गज़लों का संग्रह है. उनकी गज़लें आम जनता में बेहद लोकप्रिय हुईं और उन्हें एक नया काव्य शिल्पकार माना जाता है. उनकी रचनाओं में समाज की विषमताओं, राजनीति के दुष्प्रभावों और आम जनजीवन की समस्याओं का प्रभावशाली चित्रण मिलता है.
उनकी भाषा सरल, सहज और प्रभावशाली थी, जो सीधे पाठकों के दिलों को छू जाती थी. दुष्यन्त कुमार की कविताओं में एक अद्वितीय संवेदनशीलता और क्रांतिकारी दृष्टिकोण था, जिसने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी.
उनकी कृतियां कुछ इस प्रकार से है –
नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं
नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं
जरा-सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं
वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है
मेरे बयान को बंदिश निगल न जाए कहीं
यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन
ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं
चले हवा तो किवाड़ों को बंद कर लेना
ये गरम राख़ शरारों में ढल न जाए कहीं
तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है
तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं
कभी मचान पे चढ़ने की आरज़ू उभरी
कभी ये डर कि ये सीढ़ी फिसल न जाए कहीं
ये लोग होमो-हवन में यकीन रखते है
चलो यहां से चलें, हाथ जल न जाए कहीं
आज सड़कों पर
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख ।
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख ।
अब यकीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह,
यह हक़ीक़त देख लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख ।
वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख ।
ये धुन्धलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख ।
राख़ कितनी राख़ है, चारों तरफ बिख़री हुई,
राख़ में चिनगारियाँ ही देख अंगारे न देख ।
हो गई है पीर पर्वत
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं
मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं
तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं
तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं
तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर
तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं
बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ
ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं
ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं
कुछ भी बन बस कायर मत बन
कुछ भी बन बस कायर मत बन,
ठोकर मार पटक मत माथा तेरी राह रोकते पाहन।
कुछ भी बन बस कायर मत बन।
युद्ध देही कहे जब पामर,
दे न दुहाई पीठ फेर कर
या तो जीत प्रीति के बल पर
या तेरा पथ चूमे तस्कर
प्रति हिंसा भी दुर्बलता है
पर कायरता अधिक अपावन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।
ले-दे कर जीना क्या जीना
कब तक गम के आँसू पीना
मानवता ने सींचा तुझ को
बहा युगों तक खून-पसीना
कुछ न करेगा किया करेगा
रे मनुष्य बस कातर क्रंदन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।
तेरी रक्षा का ना मोल है
पर तेरा मानव अमोल है
यह मिटता है वह बनता है
यही सत्य कि सही तोल है
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को
न कर दुष्ट को आत्मसमर्पण
कुछ भी बन बस कायर मत बन।
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