प्रगतिशील लेखक संघ ने जयपुर में आयोजित की लघु पत्रिका आंदोलन एवं किस्सा की यात्रा

देश भर में आज क़रीब तीन सौ लघु पत्रिकाएँ निकल रही है लेकिन उनके बीच आपसी संवाद ही नहीं है. संकीर्णता के साथ कोई बड़ी यात्रा नहीं की जा सकती. उनका कहना था कि विचारधारा केवल रचना की सार्थकता का ही काम नहीं करती बल्कि रचनाकार को भी सशक्त बनाती है. सच्चे लोकतंत्र में अकेली आवाज़ का भी बड़ा महत्व होता है.

By Swati Kumari Ray | August 25, 2024 2:59 PM
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Events in Jaipur: प्रगतिशील लेखक संघ की जयपुर इकाई द्वारा 24 अगस्त 2024 को राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति, जयपुर के सभागार में “लघु पत्रिका आंदोलन एवम् क़िस्सा की यात्रा” कार्यक्रम आयोजित किया गया. इस अवसर पर क़िस्सा पत्रिका के नये अंक “थार की तान राजस्थान “ का विमोचन भी किया गया. समारोह में लघु पत्रिकाओं के संघर्ष व गौरवपूर्ण इतिहास के साथ ही वर्तमान स्थिति पर वक्ताओं ने अपने विचार रखे. प्रसिद्ध आलोचक राजाराम भादू ने कहा कि यह समय लघु पत्रिकाओं के लिए संक्रांति काल है. समूचे मीडिया पर कारपोरेट का प्रभाव है. स्वतःस्फूर्त लघुपत्रिकाएँ आज पूँजीपति वर्ग से संघर्ष कर रही है. साहित्य भी चैनल्स के माध्यम से दृश्य हो गया है और इन सब पर कॉर्पोरेट का शिकंजा है. बनास जन पत्रिका के संपादक पल्लव ने कहा कि आज लघु पत्रिकाओं के समक्ष अनेक चुनौतियाँ हैं. उन्होंने लेखक संगठनों , विचारधारा और लघु पत्रिकाओं के आपसी समन्वय को आज की ज़रूरत बताते हुए इनके अंतरसंबंधों की संभावना पर अपने विचार रखे.

उन्होंने कहा कि देश भर में आज क़रीब तीन सौ लघु पत्रिकाएँ निकल रही है लेकिन उनके बीच आपसी संवाद ही नहीं है. संकीर्णता के साथ कोई बड़ी यात्रा नहीं की जा सकती. उनका कहना था कि विचारधारा केवल रचना की सार्थकता का ही काम नहीं करती बल्कि रचनाकार को भी सशक्त बनाती है. सच्चे लोकतंत्र में अकेली आवाज़ का भी बड़ा महत्व होता है. बिना बड़ी पूँजी के सीमित संसाधनों से प्रकाशित लघु पत्रिकाएँ ही सच बोलने का जोखिम लेती है. लघु पत्रिका के संपादकों को विज्ञापन और सरकारी सहायता के पीछे भागने के बजाय अपने पाठकों के लिए चिंतित होना चाहिए. हिन्दी में बहुत पाठक हैं. किताबें नहीं बिकती और पाठक नहीं होने की बात एक बड़ा झूठ है जो टैक्स की चोरी के लिए रचा गया जाल है. लोकतंत्र में ऐसी आवाज़ों का होना ज़रूरी है. पल्लव ने कहा कि आज पूँजीवादी ताक़तें बिलकुल नहीं चाहती है कि आप विचारवान नागरिक बने, वे तो आपको एक उपभोक्ता बनाकर रखना चाहती हैं. उन्होंने उपस्थित श्रोताओं से कहा कि आप किसी भी एक लघु पत्रिका के आजीवन सदस्य बनिए , यही साहित्य सेवा होगी.

क़िस्सा पत्रिका की प्रबंध संपादक मीनाक्षी सिंघानिया ने क़िस्सा पत्रिका की शुरुआती योजना और शिव कुमार शिव की इसके पीछे लगन ,निष्ठा व समर्पण की यात्रा का वर्णन किया. उन्होंने बताया कि क़िस्सा पत्रिका का उद्देश्य नए और अनुभवी लेखकों को एक मंच प्रदान करना है जहाँ वे अपनी साहित्यिक रचनाओं को प्रस्तुत कर सकते हैं. इसके साथ ही, यह पत्रिका साहित्यिक आलोचना और समीक्षा के लिए भी जानी जाती है, जहाँ समकालीन साहित्य और सांस्कृतिक मुद्दों पर गंभीर चर्चा की जाती है.


वरिष्ठ कवि कृष्ण कल्पित ने क़िस्सा के संस्थापक संपादक और साहित्यकार शिव कुमार शिव की आत्मकथा को निर्ममता से लिखी गई सच्चाई बताया. उनका कहना था कि आत्मकथा लिखना सर्वाधिक मुश्किल विधा है. क्योंकि इसमें सबसे ज़्यादा झूठ ही लिखा जाता है लेकिन शिव कुमार शिव ने अपनी आत्मकथा में साहस के साथ अपनी आत्मस्वीकृतियों को लिखा है. एक सच्चा लेखक ही यह कर सकता है. कल्पित ने कहा कि शिव कुमार शिव मूलतः क़िस्साग़ो थे. शायद इसीलिए उन्होंने अपनी पत्रिका का नाम भी क़िस्सा रखा. उनकी कहानियों के सभी पात्र दबे, कुचले समाज से आते हैं. उनके लेखन में मध्यवर्गीय मारवाड़ी जीवन का गहरा चित्रण है. वे आंचलिक कथाकार हैं. उनके यहाँ महाभारतकालीन प्राचीन भागलपुर का इतिहास , संस्कृति व समाज बसा हुआ है. वरिष्ठ साहित्यकार डॉ हेतु भारद्वाज ने कहा कि शिव कुमार शिव की आत्मकथा एक मध्यम वर्गीय व्यापारी के अपनी ज़िद्द और जुनून के सहारे शिखर पर पहुँचने की दास्तान है. कुछ पाने के लिए जिद्द भी ज़रूरी है तभी उपलब्धियाँ पाई जा सकती है उन्होंने कहा कि शिव कुमार शिव ने आत्मसम्मान से कभी समझौता नहीं किया. उनके साहित्य में राजस्थानी जीवन मुखरता से प्रकट हुआ है. उनकी भाषा बेहद सशक्त है. शिव कुमार शिव के पास भाषाओं के अंतर्संबंधों को समझने की सांस्कृतिक दृष्टि है. भाषा के सौंदर्य के लिए उनकी आत्मकथा को पढ़ा जाना चाहिए.


क़िस्सा के राजस्थान केंद्रित अंक पर रजनी मोरवाल, रत्न कुमार साँभरिया व वरिष्ठ लेखक फ़ारूक़ अफ़रीदी ने अपनी बात रखी. फ़ारूक़ आफ़रीदी ने कहा कि पत्रिका यह अंक बेहद समृद्ध है और इसमें राजस्थान के लोक साहित्य पर राजाराम भादू का आलेख इस अंक को महत्वपूर्ण बनाता है.

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साहित्यकार नंद भारद्वाज ने कहा कि लघु पत्रिकाएँ साहित्यिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का एक महत्वपूर्ण माध्यम रही हैं, विशेषकर उन विचारों और लेखन को प्रस्तुत करने के लिए जो मुख्यधारा के मीडिया में जगह नहीं पाते. लघु पत्रिकाओं का इतिहास और वर्तमान संदर्भ में यह समझना आवश्यक है कि कैसे ये पत्रिकाएँ समाज, साहित्य और संस्कृति पर प्रभाव डालती रही हैं। पहले संस्थागत प्रयासों से पत्रिकाएँ निकलती थी लेकिन अब व्यक्तिगत प्रयासों से साहित्य की रचनाशीलता को दृष्टिगत रखकर लघु पत्रिकाएँ निकल रही है. वरिष्ठ समीक्षक डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा कि क़िस्सा पत्रिका के राजस्थान अंक में राजस्थान की बात कहते हुए राजस्थान के लेखक की बात कही गई है. इस अंक की बारह कहानियों में से नौ कहानियाँ स्त्री रचनाकारों की होना राजस्थान में स्त्री की हैसियत की बात करती है. राजस्थान में स्त्रियों की नकारात्मक छवियाँ बहुत गड़ी गई है लेकिन यह अंक इस भ्रम को तोड़ता है. यह कहानियाँ स्त्री की नियति को उजागर करती है और यहाँ हर स्थिति में स्त्री लड़ती हुई नज़र आती है. इन कहानियों में स्त्री अपनी बेड़ियों को तोड़ती दिखाई देती हैं. उन्होंने कहा कि यह बारह कहानियाँ राजस्थान के बारह शेड्स प्रस्तुत करती हैं।सबके शिल्प , परिवेश और प्रस्तुतीकरण अलग है.

प्रलेस के अध्यक्ष गोविंद माथुर ने कहा कि आज भी, लघु पत्रिकाएँ साहित्यिक और सांस्कृतिक संवाद का एक महत्वपूर्ण मंच बनी हुई हैं. वे समकालीन मुद्दों, नई लेखन प्रतिभाओं और विचारधाराओं को सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं. लघु पत्रिकाएँ आज भी साहित्यकारों के लिए एक प्रयोगधर्मी और स्वतंत्र मंच प्रदान करती हैं, जहाँ वे अपने विचार और लेखन को बिना किसी व्यावसायिक दबाव के प्रस्तुत कर सकते हैं. कार्यक्रम का संयोजन डॉ अजय अनुरागी ने किया.

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