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गुलजार अवाम से गुफ्तगू करता रचनाकार

बीते 18 अगस्त को गुलजार ने जीवन के 90 साल पूरे कर लिये. सिनेमा प्रेमियों के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय गीतकार-फिल्म निर्देशक के रूप में उनकी गिनती होती है. सत्तर-अस्सी के दशक में आरडी बर्मन के संग मिलकर उन्होंने जो रचा है, वह देश-काल की सीमा के पार जाकर आज भी कानों में मिसरी घोलता रहता है और आंखों में ख्वाब के दिये जलाता रहता है. हम गुलजार के गीतों को ध्यान से सुनें, तो उनमें सामाजिक-राजनीतिक बदलावों की अनुगूंज सुनाई देगी.

(अरविंद दास) Gulzar: गुलजार ने एक बार कहा था कि ‘साहित्य वाले मुझे सिनेमा का आदमी समझते हैं और सिनेमा वाले साहित्य का.’ हो सकता है कि इस कथन में कुछ सच्चाई हो, पर हम जैसे साहित्य और सिनेमा प्रेमियों के लिए दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं है. बीते 18 अगस्त को जीवन के 90 साल पूरे करने वाले गुलजार 60 साल के अपने रचनात्मक जीवन में विभिन्न रूपों- कवि-लेखक, गीतकार, फिल्म निर्देशक, बच्चों के रचनाकार- में अपनी सतत मौजूदगी के कारण नाम से आगे बढ़ कर एक विशेषण बन चुके हैं. गुलजार के ये ‘अपरूप रूप’ विभिन्न जुबानों में छंद और अलंकार बन कर हमारे सामने आते रहे, जिनमें हम अपने जीवन का अर्थ ढूंढते रहे. जीवन भी तो एक वाक्य ही है- कभी अधूरा, तो कभी पूरा. उन्हीं के शब्दों में- ‘दो नैना एक कहानी, थोड़ा सा बादल, थोड़ा सा पानी’.

उनके नज्मों की खूबसूरती उनके अल्फाज में हैं. कभी हमें वे हंसाते हैं, तो कभी रुलाते हैं और कभी बस एक फरियाद बन कर हमसे गुफ्तगू करते हैं. प्रसंगवश, यह उसी मासूम (1983) फिल्म का गाना है, जिसके किरदारों के लिए गुलजार ने ‘लकड़ी की काठी, काठी का घोड़ा’ अमर गीत लिखा है. उत्तर भारत के घरों में पिछले चालीस सालों में यह गीत बड़े-बूढ़ों की तरह मौजूद रहता आया है.

आजाद भारत में सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों के बीच गुलजार की मौजूदगी एक बुर्जुग की तरह हमारे लिए आश्विस्तिपरक है. यदि हम गुलजार के गीतों को ध्यान से सुनें, तो उनमें सामाजिक-राजनीतिक बदलावों की अनुगूंज सुनाई देगी. उनकी फिल्मों- आंधी, माचिस, हू तू तू आदि- में यह और भी मुखर होकर सामने आया है. उनकी राजनीतिक चेतना नेहरू युग के आदर्शों से बनी है. यहां सांप्रदायिकता का विरोध है और सामासिकता का आग्रह. बहरहाल, हम यहां उनके गीतकार रूप की ही बात करते हैं क्योंकि विभिन्न पीढ़ी के युवाओं के लिए उनके गीतों का रोमांस सबसे ज्यादा है. प्रेम उनके गीतों का स्थायी भाव है.

हम जानते हैं कि गुलजार ने ‘बंदिनी’ (1963) में एसडी बर्मन के संगीत निर्देशन में ‘मोरा गोरा अंग लई ले/मोहे शाम रंग दई दे/छुप जाऊंगी रात ही में/ मोहे पी का संग दई दे’ गीत रच कर अपनी सिनेमाई यात्रा शुरू की, लेकिन सत्तर-अस्सी के दशक में आरडी बर्मन के संग मिलकर उन्होंने जो रचा है, वह देश-काल की सीमा के पार जाकर आज भी कानों में मिसरी घोलता रहता है और आंखों में ख्वाब के दिये जलाता रहता है. खुसरो, गालिब और मीर की बातें करते-करते न जाने चुपके से कब गुलजार कह देते हैं कि ‘तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा तो नहीं, तेरे बिना जिंदगी भी लेकिन जिंदगी तो नहीं’. इस गाने में जो रोमांस है, वह गुलजार आगे बयां करते हैं यह कह कर कि ‘रात को रोक लो, रात की बात है और जिंदगी बाकी तो नहीं.’

याद कीजिए, कवि घनानंद ने कविता के बारे में कहा था- ‘लोग है लागि कवित्त बनावत, मोहि तो मेरे कवित्त बनावत’. बाकी लोगों के लिए कविता बनाने की चीज है, पर घनानंद की तरह ही गुलजार के लिए कविता (गीत) ही जीवन है. इस गीतमय जीवन में बच्चों की सी निश्छलता है. तभी उम्र के इस पड़ाव पर भी बच्चों के लिए किताब में वे लिख सकते हैं- ‘थोड़े से तो पुराने हैं, लगते कदीम हैं/ कहते हैं पर अंटा गफील अच्छे हकीम हैं.’ बच्चों के लिए ही नहीं, जब वे युवाओं के लिए भी लिखते हैं, तब भी उसी सहजता से, जिसके लिए कबीर ने कहा है- ‘सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोय.’

‘मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है/ सावन के कुछ भीगे-भीगे दिन रखे हैं/ और मेरे इक खत में लिपटी रात पड़ी है/ वो रात बुझा दो, मेरा वो सामान लौटा दो’, वे ही लिख सकते हैं. मनोभावों की सहज अभिव्यक्ति है यहां. इस गाने को जब उन्होंने अपने मित्र आरडी बर्मन को संगीतबद्ध करने कहा, तब उन्होंने झुंझला कर कहा था कि क्या वे अखबार की सुर्खियों पर अब उनको गीत संगीतबद्ध करने को कहेंगे! यह असल में दो प्रगाढ़ मित्रों की आपसी नोंक-झोंक थी, जो वर्षों से चली आ रही थी. इसे आप गीत कहें, कविता या सुर्खियां, पर इसे गाने के लिए आशा भोंसले को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला.

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गीत-संगीत और उनका फिल्मांकन हिंदी सिनेमा को विशिष्ट बनाता है. जाहिर है, गीत सिनेमा की कहानी को आगे बढ़ाने में सहायक होते हैं और किरदारों की पहचान बन कर आते हैं. हिंदी सिनेमा का सौभाग्य है कि उसे शैलेंद्र के बाद गुलजार जैसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी सर्जक ने अपने शब्दों से ‘गुलजार’ किया है. उनके लिखे गीतों का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व है. बात आजाद भारत में जवान होने वाली पीढ़ी की ही नही है, बल्कि ‘मिलेनियल’ पीढ़ी की भी है, जो कभी ‘छैंया, छैंया’ गाने पर तो कभी ‘कजरा रे कजरा रे’ गाने पर झूमती मिलती है. जब बात ‘जय हो’ की हो, तो फिर ‘कहना ही क्या!’ कभी-कभी वे ‘पर्सनल से सवाल भी करती है’, लेकिन सवालों के जवाब भी हमें गुलजार ही देते हैं, यह कहते हुए कि ‘पीली धूप पहन के तुम देखो बाग में मत जाना’. गुलजार के गीत विभिन्न पीढ़ियों के बीच संवाद करते हैं. संवादधर्मिता गुलजार की सबसे बड़ी विशेषता है.

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