हरिवंश राय बच्चन की 5 कविताएं जो कर देती हैं मंत्रमुग्ध
हरिवंश राय बच्चन, हिंदी साहित्य के महान कवि हैं. वे अपने काव्य संग्रह "मधुशाला" के लिए प्रसिद्ध हैं. सरल भाषा और गहरे विचारों से उनकी रचनाएं पाठकों के दिलों में बसती हैं.
Harivansh Rai Bachchan : हरिवंश राय बच्चन (1907-2003) हिंदी साहित्य के प्रमुख कवि और लेखक थे, जिनका योगदान हिंदी कविता और साहित्य में अत्यंत महत्वपूर्ण है. उनका जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद(प्रयागराज )में हुआ था. वे अपने काव्य संग्रह ‘मधुशाला’ के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं, जिसे हिंदी साहित्य की एक अमूल्य धरोहर माना जाता है. बच्चन जी की कविताओं में सरल भाषा, गहरे विचार और भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति देखने को मिलती है. उनकी आत्मकथा को सबसे बेहतरीन कथाओं में शुमार किया जाता है.
हरिवंश राय बच्चन की रचनाओं ने हिंदी साहित्य को एक नया आयाम दिया और पाठकों के दिलों में अपनी विशेष जगह बनाई. उनकी कविता का छायावादी युग में विशेष महत्व रहा है, जो कि 20वीं सदी के आरंभिक वर्षों का एक महत्वपूर्ण साहित्यिक आंदोलन था. उनकी अन्य महत्वपूर्ण रचनाओं में ‘मधुबाला’, ‘मधुकलश’ और “नीड़ का निर्माण फिर” शामिल हैं. उन्होंने कविताओं के साथ-साथ संस्मरण और अनुवाद के क्षेत्र में भी काम किया. उनकी आत्मकथा चार भागों में प्रकाशित हुई है: “क्या भूलूँ क्या याद करूँ,” “नीड़ का निर्माण फिर,” “बसेरे से दूर,” और “दशद्वार से सोपान तक. हरिवंश राय बच्चन को उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए, जिनमें 1976 में मिला पद्म भूषण प्रमुख है. उन्होंने अपने जीवन में साहित्यिक और सांस्कृतिक योगदान के लिए कई प्रतिष्ठित सम्मान अर्जित किए. हरिवंश राय बच्चन का जीवन और उनका साहित्यिक योगदान आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्रोत बना रहेगा.उनकी रचनाएं आज भी पाठकों के दिलों में जीवित हैं और हिंदी साहित्य में उनकी एक अमिट छाप है.
उनकी कविताएं इस प्रकार हैं –
जो बीत गई सो बात गई है
जो बीत गई सो बात गई है
जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर
तुम वह सूख गया तो
सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुरझाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुरझाई फिर कहाँ खिलीं
पर बोलो सूखे फूलों
पर कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई
मृदु मिटटी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अंदर मधु के घट हैं
मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों
पर जो सच्चे मधु से
जला हुआ कब रोता है
चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई
न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
मगर यामिनी बीच में ढल रही है।
दिखाई पड़े पूर्व में जो सितारे,
वही आ गए ठीक ऊपर हमारे,
क्षितिज पश्चिमी है बुलाता उन्हें अब,
न रोके रुकेंगे हमारे-तुम्हारे।
न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
मगर यामिनी बीच में ढल रही है।
उधर तुम, इधर मैं, खड़ी बीच दुनिया,
हरे राम! कितनी कड़ी बीच दुनिया,
किए पार मैंने सहज ही मरुस्थल,
सहज ही दिए चीर मैदान-जंगल,
मगर माप में चार बीते बमुश्किल,
यही एक मंज़िल मुझे ख़ल रही है।
न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
मगर यामिनी बीच में ढल रही है।
नहीं आँख की राह रोकी किसी ने,
तुम्हें देखते रात आधी गई है,
ध्वनित कंठ में रागिनी अब नई है,
नहीं प्यार की आह रोकी किसी ने,
बढ़े दीप कब के, बुझे चाँद-तारे,
मगर आग मेरी अभी जल रही है।
न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
मगर यामिनी बीच में ढल रही है।
मनाकर बहुत एक लट मैं तुम्हारी
लपेटे हुए पोर पर तर्जनी के
पड़ा हूँ, बहुत ख़ुश, कि इन भाँवरों में
मिले फ़ॉर्मूले मुझे ज़िंदगी के,
भँवर में पड़ा-सा हृदय घूमता है,
बदन पर लहर पर लहर चल रही है।
न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
मगर यामिनी बीच में ढल रही है।
आज मुझसे दूर दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
भावनाओं से विनिर्मित,
कल्पनाओं से सुसज्जित,
कर चुकी मेरे हृदय का स्वप्न चकनाचूर
दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
‘बात पिछली भूल जाओ,
दूसरी नगरी बसाओ’—
प्रेमियों के प्रति रही है, हाय, कितनी क्रूर
दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
वह समझ मुझको न पाती,
और मेरा दिल जलाती,
है चिता की राख कर मैं माँगती सिंदूर
दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
तुम्हारे नील झील-से नैन
तुम्हारे नील झील-से नैन,
नीर निर्झर-से लहरे केश।
तुम्हारे तन का रेखाकार
वही कमनीय, कलामय हाथ
कि जिसने रुचिर तुम्हारा देश
रचा गिरि-ताल-माल के साथ,
करों में लतरों का लचकाव,
करतलों में फूलों का वास,
तुम्हारे नील झील-से नैन,
नीर निर्झर-से लहरे केश।
उधर झुकती अरुनारी साँझ,
इधर उठता पूनो का चाँद,
सरों, शृंगों, झरनों पर फूट
पड़ा है किरनों का उन्माद,
तुम्हें अपनी बाँहों में देख
नहीं कर पाता मैं अनुमान,
प्रकृति में तुम बिंबित चहुँ ओर
कि तुममें बिंबित प्रकृति अशेष।
तुम्हारे नील झील-से नैन,
नीर झर्झर-से लहरे केश।
जगत है पाने को बेताब
नारि के मन की गहरी थाह—
किए थी चिंतित औ’ बेचैन
मुझे भी कुछ दिन ऐसी चाह—
मगर उसके तन का भी भेद
सका है कोई अब तक जान!
मुझे है अद्भुत एक रहस्य
तुम्हारी हर मुद्रा, हर वेश।
तुम्हारे नील झील-से नैन,
नीर झर्झर-से लहरे केश।
कहा मैंने, मुझको इस ओर
कहाँ फिर लाती है तक़दीर,
कहाँ तुम आती हो उस छोर
जहाँ है गंग-जमुन का तीर;
विहंगम बोला, युग के बाद
भाग से मिलती है अभिलाष;
और… अब उचित यहीं दूँ छोड़
कल्पना के ऊपर अवशेष।
तुम्हारे नील झील-से नैन,
नीर निर्झर-से लहरे केश।
मुझे यह मिट्टी अपना जान
किसी दिन कर लेगी लयमान,
तुम्हें भी कलि-कुसुमों के बीच
न कोई पाएगा पहचान,
मगर तब भी यह मेरा छंद
कि जिसमें एक हुआ है अंग
तुम्हारा औ’ मेरा अनुराग
रहेगा गाता मेरा देश।
तुम्हारे नील झील-से नैन,
नीर निर्झर-से लहरे केश।
इसकी मुझको लाज नहीं है
मैं सुख पर सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको
लाज नहीं है।
जिसने कलियों के अधरों में
रस रक्खा पहले शरमाए,
जिसने अलियों के पंखों में
प्यास भरी वह सिर लटकाए,
आँख करे वह नीची जिसने
यौवन का उन्माद उभारा,
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी
मुझको लाज नहीं है।
मन में सावन-भादों बरसे,
जीभ करे, पर, पानी-पानी!
चलती-फलती है दुनिया में
बहुधा ऐसी बेईमानी,
पूर्वज मेरे, किंतु, हृदय की
सच्चाई पर मिटते आए,
मधुवन भोगे, मरु उपदेशे मेरे वंश रिवाज़
नहीं है।
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी
मुझको लाज नहीं है।
चला सफ़र पर जब तक मैंने
पथ पूछा अपने अनुभव से,
अपनी एक भूल से सीखा
ज़्यादा, औरों के सच सौ से,
मैं बोला जो मेरी नाड़ी
में डोला, जो रग में घूमा,
मेरी नाड़ी आज किताबी नक़्शों की मोहताज
नहीं है।
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी
मुझको लाज नहीं है।
अधरामृत की उस तह तक मैं
पहुँचा विष को भी चख आया,
और गया सुख को पिछुआता
पीर जहाँ वह बनकर छाया,
मृत्यु गोद में जीवन अपनी
अंतिम सीमा पर लेटा था,
राग जहाँ पर, तीव्र अधिकतम है, उसमें
आवाज़ नहीं है।
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी
मुझको लाज नहीं है।
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