हिंदी साहित्य के इतिहास में दशरथ ओझा का योगदान अविस्मरणीय, उन्होंने कालजयी रचना की : देवेंद्र राज अंकुर
जयशंकर प्रसाद के प्रसिद्ध नाटक ‘चन्द्रगुप्त' के अध्यापन के संस्मरण सुनाते हुए उन्होंने बताया कि ऐसे बड़े और गंभीर नाटक के एक- एक संवाद को दशरथ ओझा कक्षा में पढ़ाते थे.
दशरथ ओझा उन अध्येताओं में थे जिन्होंने स्थायी महत्व का लेखन किया जिसे उनके निधन के चालीस वर्षों के बाद भी अनदेखा नहीं किया जा सकता. प्रसिद्ध रंगकर्मी और आलोचक देवेंद्र राज अंकुर ने दिल्ली के हिंदू काॅलेज में कहा कि ओझा जी द्वारा लिखित ‘हिंदी नाटक : उद्भव और विकास’ के बाद ‘आज का हिंदी नाटक : प्रगति और प्रभाव’ ऐसे ग्रंथ हैं जिन्हें पढ़कर हिंदी नाटक के इतिहास को संपूर्णता में जाना जा सकता है. आज का हिंदी नाटक : प्रगति और प्रभाव’, ‘अंधा युग’, ‘पहला राजा’ और ‘आठवाँ सर्ग’ की तरह विशेष उल्लेखनीय है.
प्राचीन भाषाओं की रचना हमारी थाती
अंकुर ने ओझा जी के जगदीश चंद्र माथुर के साथ मिलकर लिखी गई किताब ‘प्राचीन भाषा नाटक’ को भी याद करते हुए बताया कि संस्कृत और प्राचीन भारतीय भाषाओं का ऐसा अद्भुत संग्रह हमारे सांस्कृतिक इतिहास की थाती है. उन्होंने ओझा जी द्वारा निर्मित ‘हिन्दी नाटक कोश’ के महत्व की भी चर्चा की.
वे संवादों को कक्षा में पढ़ाते थे
जयशंकर प्रसाद के प्रसिद्ध नाटक ‘चन्द्रगुप्त’ के अध्यापन के संस्मरण सुनाते हुए उन्होंने बताया कि ऐसे बड़े और गंभीर नाटक के एक- एक संवाद को वे कक्षा में पढ़ाते थे. नाटक जब पाठ से रंगमंच तक जाता है तब वह संपूर्ण होता है. नाटक की आंतरिक जटिलताएं मंच पर ही व्यक्त हो पाती हैं पढ़ते हुए नहीं. उन्होंने हिंदी विद्यार्थियों की रंगमंच में घटती रुचि पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि जो नाटक पाठ्यक्रम में होता है और यदि उसका मंचन हो तब विद्यार्थी उसे देखने आते हैं लेकिन यह पर्याप्त नहीं है क्योंकि रंगमंच के बिना साहित्य का वृत्त संपूर्ण नहीं होता. अंकुर ने कहा कि रंगमंच ही ऐसा माध्यम है जो गलतियां सुधारने का अवसर हमेशा देता है.
चालीस वर्षों के बाद आये हैं नये संस्करण
इससे पहले दशरथ ओझा लिखित उपन्यास ‘एकता के अग्रदूत : शंकराचार्य’ तथा ‘आज का हिंदी नाटक : प्रगति और प्रभाव’ का लोकार्पण किया गया. दोनों पुस्तकों के नये संस्करण लगभग चालीस वर्षों के बाद आये हैं. हिंदी विभाग के आचार्य प्रो रामेश्वर राय ने उपन्यास ‘एकता के अग्रदूत : शंकराचार्य’ को उल्लेखनीय कृति बताते हुए कहा कि गंभीर भाषा में अपने युग के महान आचार्य के जीवन पर लिखी गई ऐसी पुस्तक है जिसमें दर्शन और संस्कृति का सार है. पुस्तकों की प्रकाशक और राजपाल एंड संस की निदेशक मीरा जौहरी ने कहा कि उनके लिए पुस्तक प्रकाशन व्यवसाय से अधिक सांस्कृतिक योगदान है. जौहरी ने ओझा जी के व्यक्तित्व को याद करते हुए उनके कुछ संस्मरण भी सुनायें. उन्होंने कहा कि यह आयोजन अनूठा है क्योंकि आत्मप्रदर्शन के इस दौर में ऐसे लेखक को याद किया जा रहा है, जिनकी अनुपस्थिति को भी लंबा समय व्यतीत हो गया है.
पुरोधा पीढ़ी का ऋण स्वीकार करना
अभिरंग के परामर्शदाता डॉ पल्लव ने कहा कि ओझा जी जैसे साहित्य निर्माताओं को याद करना अपनी पुरोधा पीढ़ी के अवदान का ऋण स्वीकार करना है. गोष्ठी का संयोजन दृष्टि शर्मा ने किया और आयुष मिश्र ने लेखक परिचय दिया. अंत में लोकेश ने आभार व्यक्त किया. संगोष्ठी में जूही शर्मा, चंचल, रितिका शर्मा, अजय, वज्रांग और आरिश ने स्वागत और अभिनन्दन किया. हिंदू कालेज के सुशीला देवी सभागार में इस अवसर पर हिंदी विभाग के आचार्य रचना सिंह, डॉ विमलेन्दु तीर्थंकर, डॉ अरविन्द कुमार सम्बल, डॉ धर्मेंद्र प्रताप सिंह, डॉ नौशाद अली और डॉ रमेश कुमार राज सहित बड़ी संख्या में शिक्षक और विद्यार्थी उपस्थित थे.