एक गांव की नदी
सिवाने नाम है एक नदी का।
है वो जीर्ण और दुबली।
बरसात को छोड़ हर मौसम में रुक- रुक कर बहती
और कहीं बहती नहीं।
पर बरसात में इस जीर्ण नदी में
पानी की आती है बाढ़।
इस विशाल भंडार को पा कर
स्वयं को संभाल न पाती सिवाने ।
मानो स्कूल में हठात् ही छुट्टी हो गयी हो ।
सभ्य शिष्टाचार और अनुशासन को तोड़
हुल्लड़ मचाते बच्चे ख़ुशी से जैसे भाग निकलते
बचपन की मस्ती में वैसे ही
सिवाने भी उछल कूद कर भाग निकलती ।
पीपल, वट, करंज, साल और बांस की झाड़
के भीतर एक गांव है दीखता ।
किसी चरवाहे की बांसुरी ने कहीं
एक तान है छेड़ा ।
आज है सोमवार-हटिया का दिन ।
सिर पर सब्जी की टोकरी लेकर
पानो चली वहां ।
शीशम, शाल, महुआ के
छांव तले चलेगी खरीद बिक्री।
नये प्रेमी युगल भीड़ से छुप कर
सिवाने की एकांत जल पर
अपनी परछाई देख विभोर हो उठेंगे।
भुनेश्वर के घर आज पोती है जन्मी।
छठी की सुबह गीत गाती औरतों की टोली
सिवाने के जल से
बहू और पोती का करेंगी ऋतु संस्कार।
सिवाने के तट पर
मृत सोमरा के दाह में जुटे लोग ।
जन्म से मृत्यु तक यहां के हर करम में
सिवाने है शामिल।
जेठ की रातों की सन्नाटे में
सिवाने पर गिरती है तारों की परछाइयां ।
एक मादा सियार सिवाने की बची पानी से
अपनी शावकों का प्यास है बुझाती।
सिवाने – एक दीन हीन नदी।
दामोदर की शांत गरिमा
जिसमें अंततः वो समायेगी
है नहीं इसमें।
इसकी धमनियों में है बहती
महुआ, जामुन और खोरठा की देहाती मिठास।
सिवाने।
सिंधु की भांति प्राचीन काल से
इसने भी तो है किया अनगिनत गावों का भरण पोषण।
पर इसका यह अहंकार व आत्मसम्मान
ढंक गया है इसकी निर्धनता से।
ऐसी तुच्छ नदियों का इतिहास रह जायेगा अनकहा।
पर सिवाने कभी बहेगी, कहीं रुकेगी
कहीं बहेगी…
पत्ते
बसंत आया है मृत टहनियों में ।
छोटे -छोटे हरे पत्ते चिक चिक करते
चकित चपलता से झांक रहे हैं
अज्ञात पृथ्वी को ।
बंजर दरख़्त को जल्द ही ढंक लेंगे ये पत्ते ।
फिर आयेगा कोयल;
बैठ कर टहनियों में बिखरेगा सुरों का जादू ।
मंद मंद झूमते हुए पत्ते
व्यक्त करेंगे अपना असीम आनंद ।
ग्रीष्म का आगमन होगा इसके पश्चात।
गर्म हवा सहलायेगा
यौवन की मस्ती में
डूबे हरे पत्तों को ।
सहिष्णुता तो जन्मजात है इनमें ।
जेठ में
जब निर्मम सूरज बरसेगा इनपर
सह जायेंगे ये
इस भीषण गर्मी को भी।
राहत लाती वर्षा धो देगी पत्तों पर जमे धूल को।
फुहार की रिमझिम
की एक टक नीरस संगीत,
पत्तों पर झरते बूंदों की ताल,
नृत्य करते पत्ते;
खुश हैं यह, शायद विभोर भी ।
एक पंछी गीली होगी एक गीली पत्ते तले ।
निहारेगा वह सावन में सोखे
इस अद्भुत अभेद जगत को ।
भूरे बादलों की इत्ती सी दरार में से
एक टुकड़ा नीला आकाश झांकेगा।
संकेत है शरद ऋतु के आगमन का ।
तो आयेगा सुनहरी धूप, हरी धरती,
नीले अंबर पर तैरते स्वच्छ सफेद बादल
और चहचहाती चिड़िया.
शरद की सुनहरी धूप में
बुढ़ापे की ओर बढ़ते पत्ते
दहकेंगे एक अंतिम बार शीतकाल के आने तक ।
और फिर शीतकाल आएगा ।
जाड़े की ठिठुरती कंपकंपी का
साहस से सामना करेंगे
ढलती उम्र के ये पत्ते ।
पर अंत तो निर्धारित है इनके।
क्या कंपकंपी इनके है इसी भय से या फिर
एक शीतलहरी बहा है यहां ?
या इस मोहमय जगत को छोड़ने की
अनिच्छा कि अभिव्यक्ति है ये?
फिर रोग ग्रसित करेगा इन बूढ़े पत्तों को।
लाल पीली आच्छादन में आच्छादित हो कर
ये त्यागेंगे अपना हरापन ।
जीवन की विचित्रमय विरोधाभास
सुंदर, विविध रंगों में सुशोभित हो कर
धरती पर टूट कर बिखरेंगे ये पत्ते,
मृत।
हे मृत्यु तेरी सुंदरता अपार और अद्भुत है।
सुजाता की खीर
हे ध्यानमग्न भिक्षु !
तपती दुपहरिया में
नयन मूंदे पीपल छांव तले
एक टक ध्यानरत ।
जीर्णकाया से तुम्हारी
एक दिव्य ज्योति सा विकीर्ण होता हुआ ।
कौन हो तुम?
हे तपस्वी । किस कारण है तुम्हारी यह विपश्यना ?
क्या खोज है तुम्हें आनंद की
या जीवन की पीड़ा से मुक्ति की?
मुख मंडल पर
क्यों चंचलता है झलक रहा ?
यह विचलित भाव
क्या उभरा है कोई अतृप्ति के कारण ?
हमारा छोटा सा गांव, उरवेला।
औरतें यहां की रखती हैं सम्मुख तुम्हारे
फ़लाहार और पकवान ।
पर हे भिक्षु!
इतने दिनों में न तुमने नयन खोले
और न डाला मुँह में तुमने
अनाज़ का कोई दाना।
भिन्न जाती का भोजन और जल
क्या ग्रहण न करोगे तुम ?
मैं स्वर्ग की कोई अप्सरा नहीं
न मैं अंतरिक्ष का कोई गंधर्व ।
तुम्हारी विपश्यना की मैं मुरीद।
मैं ग्वालिन,
मैं सुजाता।
हे तपस्यारत भिक्षु!
तुम जागो
जागो तुम!
शाल पत्तों के दोने में यह खीर
हे स्वर्णमयी, स्वीकार करो!
शांत नयनद्वार खुल गए-
ऐसी आंखें तो देखी नहीं थी कभी ।
ऐसी गहनता कि मानो
अनंत भी समा जाये इनमें।
और फिर भिक्षु बोल उठा,
“इसी खीर के लिए अनंतकाल से
प्रतीक्षारत हूँ मैं- हे नारी,
उद्धार करो । “
गुरु गंभीर वाणी
मानो दूर पहाड़ियों में कहीं बादल गरज रहा हो।
भिक्षु ने खीर ग्रहण किया।
नयन मूंद गए।
विक्षिप्तता, चंचलता
समाप्त हो कर
शांत, तृप्त और एक आनंदमयी भाव
उत्पन्न हो गयी तपस्वी के सारे मुखमंडल पर।
उस ज्योतिर्मयी भिक्षु को
बुद्ध में परिवर्तित होते देख
दूर खड़ी
सुजाता का भी हो गया उद्धार ।
(कवि सुभाशीष दास मेगालिथ के स्वतंत्र शोधकर्ता हैं. इनकी मेगालिथ पर अबतक चार किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. झारखंड से मेगालिथ पर प्रकाशित होने वाली यह पहली पुस्तकें हैं. THE VENGEANCE नाम से इनका एक उपन्यास भी प्रकाशित हो चुका है. सुभाशीष दास हिंदी, अंग्रेजी और बांग्ला में लेखन करते हैं. )