Hindi Literature : पढ़ें विनोद कुमार शुक्ल की बिहारियों से प्रेम को बयां करती कविता
पढें हिंदी साहित्य में अपनी विशिष्ट भाषिक बनावट और संवेदनात्मक गहराई के लिए प्रसिद्ध लेखक विनोद कुमार शुक्ल की कविता...
Hindi Literature : साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान महत्तर सदस्यता से नवाजे गये लेखक विनोद कुमार शुक्ल ने तकरीबन एक दशक पहले प्रभात खबर को दिये गये एक साक्षात्कार में कहा था- ‘मेरे लिए लेखन एक तरह से लोगों से बात करने का जरिया है. लिखना मेरा अपना तरीका है लोगों से उनके सुख दुख की बात करने का. यही मेरे लेखन का मूल भी है.’ लेखक की इस बात को उनकी कविताओं और उपन्यास हर जगह देखा और महसूस किया जा सकता है. बीते दिनों उनकी रचनाओं से गुजरते हुए मैं बिहार के लोगों से उनके प्रेम पर लिखी गयी एक कविता पर ठहर गयी. पढें विनोद कुमार शुक्ल की वह कविता –
मुझे बिहारियों से प्रेम हो गया
मुझे बिहारियों से प्रेम हो गया
जहां जाता हूं, कोई न कोई मिल जाता है
उनकी बोली से पहिचान कर यही लगता
कि जिससे पिछली बार मिले थे
उससे ही मिल रहे हैं
इस तरह अनेकों बार जितनों से मिले
उसी से बार-बार मिले जैसा होता
यद्यपि दुबारा कभी नहीं मिलते
पर बिदा होते समय
फिर मिलेंगे जैसी औपचारिक आशा
हमेशा किसी दूसरे बिहारी के मिलने से पूरी होती.
बिहार के बाहर
एक बिहारी मुझे पूरा बिहार लगता
जब कोई पत्नी और बच्चे के साथ दिख जाता
तो खुशी से मैं उसे देशवासियों कह कर संबोधित करता
परंतु यह महाराष्ट्रीय घटना है
कि कमाने खाने के लिए जहां बसे हैं
वहां से भगाये जाने पर
अपनी बोली भाषा को
गूंगे की तरह छुपाये
कि जान बचाना है
बचाओ किस भाषा में चिल्लाना है
एक भाषा में बचाओ
दूसरे प्रदेश की भाषा में
जाने से मारे जाने का
कारण बन जाता हो
पकड़े गये जन्म से गूंगे का न बोल पाना
उसका जबान न खोलना बन जाता हो
और भीड़ को तब तक उसे पीटना है
जब तक उसकी बोली न पता चले
तब बोली भाषा के झगड़े में
एक गूंगे का मरना भी निश्चित है
ऐसे में भाग रहे के लिए
भागते-भागते देश की सीमा की घेरा बंदी
कहां जायें जैसे बंदी
अंत में क्या बिहार
बिहार में बंदी
उत्तर प्रदेश उत्तर प्रदेश में
प्रांत नहीं कैद खाने हैं
तिस पर नया राज्य जब बनता
तो देश के स्वतंत्र होने जैसी खुशी
लोगों को वहां होती.
नागरिकों, देशवासियों कह कर किसे पुकारूं
वह कौन है और कहां रहता है .
इस कहीं नहीं रहने में मैं भी
कहीं नहीं रहने का न तो कोई मुहल्ला है
और न कोई पता
मेरी स्थायी पता मुझसे खो गया है
मेरा पता कमाने-खाने के लिए भागते
एक-एक लोगों के पीछे चला गया
जिनमें जमाने भर के छत्तीसगढ़िया भी शामिल हैं
जहां रहते हुए पीढ़ियां बीतीं
वह छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश का छत्तीसगढ़ था
नये बने छत्तीसगढ़ राज्य में
जैसे बाहरी हो गया
यहीं रहे आने का मेरा पुश्तैनी घर
कहां चला गया ?
अपने घर का पता पूछने
पड़ोस के दरवाजे को खटखटाता हूं.
- यह कविता राजकमल प्रकाशन से वर्ष 2012 में प्रकाशित विनोद कुमार शुक्ल के कविता संग्रह ”कभी के बाद अभी” से ली गयी है. इस पुस्तक का हार्डकवर मूल्य 200 रुपये है.
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