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Hindi Poem : पढ़ें, सुभाशीष दास की मनमोहक कविताएं

Hindi Poem : आर्कियोलॉजिस्ट और लेखक सुभाशीष दास मेगालिथ के शोध कर्ता, लेखक और एक कवि भी हैं. उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी हैं जिनमें मेगालिथ की खोज, भारतीय सभ्यता में पवित्र पत्थर प्रमुख हैं.

By Swati Kumari Ray | July 20, 2024 2:03 PM

Hindi Poem : सुभाशीष दास एक प्रमुख भारतीय आर्कियोलॉजिस्ट हैं. साथ ही वे मेगालिथ के शोध कर्ता, लेखक और एक कवि भी हैं.उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी हैं जिनमें मेगालिथ की खोज, भारतीय सभ्यता में पवित्र पत्थर प्रमुख हैं. उन्होंने विभिन्न मेगालिथिक साइट्स के शोध और अध्ययन किए हैं, जिनमें भारतीय मेगालिथिक संस्कृति के प्रमुख तत्वों का विश्लेषण शामिल है. उनके अनुसंधान ने इस विषय में नई दिशाएं प्रस्तुत की हैं. सुभाशीष दास अंग्रेजी, बांग्ला और हिंदी में कविताएं लिखते हैं. पढ़िए उनकी चंद कविताएं:-

इस बसंत में

दूर वह जो दिख रहा है शिमूल का पेड़
फूल नहीं,
पत्ते भी नहीं, है इसमें
इस बसंत में.
लाल फूलों कि उसकी अहंकार, हरे पत्तों का उसका गर्व
जन्मा नहीं है इस में,
इस बसंत में.
पर चील का एक जोड़ा रचा है घोंसला
इसकी सुखी टहनियों पर
इस बसंत में.
पास के शीशम के पेड़ को
शिमूल देखता है इर्षा से
घेर लिया है जिसे हरे पत्तों और लाल फूलों ने,
और शरण स्थली बन उठा है ये
अनगिनत पंछियों का;
शाम ढलते ही जिनकी चेहचाहट से कान पकने लगते है.
देख इसे सोचता है शिमूल;
न जाने कितने आनंद में है शीशम .
शायद मेरे भी अकाल के दिन समाप्त होने को है।
शायद इस बसंत में अब आएगा मुझ में भी
हरे पत्ते और लाल फूलों की बहार,
वापस लौटेगा पंछियों के होड़,
और कान पकाने वाली
उनकी चहचाहट.
लौटेंगे गिलहरियां और खेलेंगे मेरे टहनियों पर।
पर अब पत्ते, फूल और गिलहरियों
कि आशा कैसी,
इस जाती हुई बसंत से .

पतझड़ के पत्ते


क्या सुन्दर रंग भरे हो तुम अपने में ?
हरे आवरण में पिली बूंदें.
दुख शोक और ताप को अपने में समायें सज धज के
बंधु आनंद मे तुम चले हो अनंत की गोद में .
चले हो तुम सदैव के लिए,
परमानन्द के रंग स्वयं में बिखेरे
मृत्यु कि पूर्ण निद्रा की ओर .

एक गुच्छा हाइकू

चैत में मुर्झाये खेत;
बसंत की बहार,
जीवन कि अद्भुत विरोधाभास.

जेठ का निर्मम सूरज, गर्म हवाएं,
एक गिलास शीतल जल.
तृप्ति.

सावन का महीना,
काले घने झील पर
तैरता सफेद हंस.

पूस की ठिठुरती ठंड,
रजाई का गर्म दुलार
काश तुम होती पास.

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