मैथिली भाषा में शिक्षण का आइना – ‘भाषा शिक्षण : मैथिली’
डॉ अरुणाभ सौरभ हिंदी-मैथिली सृजन-आलोचन के क्षेत्र में एक जाना-पहचाना नाम है. मैथिली एवं हिंदी कविता को इन्होंने अपनी सृजनशीलता से सुवासित-संभावना संपन्न बनाया है. यही कारण है कि इन्हें दोनों भाषाओं के युवा कवि के रूप में सम्मानित किया जा चुका है. मैथिली-हिंदी आलोचना एवं चिंतन के क्षेत्र में भी इन्होंने अपनी पग-ध्वनि पहचानने हेतु साहित्य-समाज का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है.
डॉ अरुणाभ सौरभ हिंदी-मैथिली सृजन-आलोचन के क्षेत्र में एक जाना-पहचाना नाम है. मैथिली एवं हिंदी कविता को इन्होंने अपनी सृजनशीलता से सुवासित-संभावना संपन्न बनाया है. यही कारण है कि इन्हें दोनों भाषाओं के युवा कवि के रूप में सम्मानित किया जा चुका है. मैथिली-हिंदी आलोचना एवं चिंतन के क्षेत्र में भी इन्होंने अपनी पग-ध्वनि पहचानने हेतु साहित्य-समाज का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है.
मैथिली में डॉ अरुणाभ रचित ‘भाषा शिक्षण : मैथिली’ पुस्तक इसी कड़ी में उनका प्रयास है. इसमें 18 अलग-अलग उप शीर्षकों के माध्यम से मैथिली साहित्य की अलग-अलग विधाओं पर विचार करते हुए उसके शिक्षण की तकनीक पर बड़ी ही बारीकी से विचार किया है. मैथिली में लिखी गयी यह अपने ढंग की पहली और अकेली पुस्तक है.
हिन्दी में प्राय: इस प्रकार की पुस्तकें अब तक कम ही प्रकाशित हैं. इस दृष्टि से भी इसका महत्व स्वयं सिद्ध है. अरुणाभ को केंद्रीय विद्यालय के शिक्षक के रूप में शिक्षण की तकनीकी कठिनाइयों का अनुभव तो है ही, साथ ही एनसीईआरटी के प्राध्यापक के रूप में विभिन्न शिक्षण -संस्थानों में समय-समय पर शिक्षकों के बीच अपने अनुभव को बांटने एवं उनकी कठिनाइयों को समझने का मौका प्राप्त हो चुका है. उनके बीच रहकर कार्य शालाओं एवं विचार गोष्ठियों आदि के माध्यम से शिक्षण-सामग्रियों के उपयोग का अवसर भी उपलब्ध होता रहा है.
इन सारे अनुभवों को साझा करते हुए अपने नवीन सोच को भी समक्ष रखने का भरसक प्रयास किया है. इस क्रम में इन्होंने अंतर भाषा संबंधों एवं विभिन्न विधाओं के बीच के अंतर अनुशासन को भी अनेक अवसरों पर रेखांकित करते हुए तथा अनेक आधारों को अपनाते हुए समझाने का भरसक प्रयत्न किया है. यह अकारण नहीं है कि प्रोफेसर उदय नारायण सिंह ‘नचिकेता’, प्रोफेसर गोपालकृष्ण ठाकुर एवं डॉ तारानंद वियोगी सरीखे अनुभव सिद्ध रचनाकार-भाषिक समझ वाले विद्वानों ने इनके इस कार्य की गुणवत्ता के महत्व को समझते हुए अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है.
इन्होंने पुस्तक की भूमिका में जिन अनेक महारथियों के नाम गिनाये हैं, उनमें प्रोफेसर रामावतार यादव, प्रोफेसर भीमनाथ झा, डॉ रमानंद झा ‘रमण’, श्री अशोक, डॉ शिवशंकर श्रीनिवास, प्रोफेसर कमलानंद झा, डॉ अशोक कुमार मेहता एवं अजित आजाद सरीखे लोग शामिल हैं. ये सब के सब मैथिली की गंभीर रचनाशीलता की समझ रखने वालों में शुमार हैं.
इस पुस्तक के लेखन के क्रम में रचनाकार को हिंदी आदि अनेक भारतीय भाषाओं में बहुत कम आधार ग्रंथ उपलब्ध हो पाये होंगे, ऐसा मुझे लगता है, क्योंकि इस विषय पर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में सामग्रियों का अभाव-सा दिखता है! फिर भी लेखक ने सामग्री को मजबूत आधार संदर्भ प्रदान करने के लिए अंग्रेजी के ग्रंथों का भी सहारा लेते हुए, अपनी समझ को विकसित कर, मैथिली भाषा-शिक्षण का द्वार खोलने का उपक्रम किया है, जो अभिनव होने के साथ ही अभिनंदनीय भी है.
लेखक के लिए भाषा विषयक-शिक्षण सामग्रियों को उपस्थापित करने के समय सबसे बड़ी चुनौती होती है, प्रभावशाली ढंग से अपनी बात को सबों के बीच पहुंचाने की भाषा एवं शैली का इस्तेमाल करने की. अरुणाभ जी ने सुलझी हुई भाषा-शैली में अपनी बात रखने का यथा संभव प्रयास किया है. मेरे जानते इस पुस्तक से न केवल बीएड, एमएड के शिक्षार्थियों को ही लाभ नहीं होगा, अपितु मैथिली के अध्यापकों एवं प्राध्यापकों और मैथिली समझने-पढ़ने वालों के लिए भी यह जरूरी किताब है. ऐसी पुस्तक की प्रतीक्षा मैथिली जगत को लंबे समय से थी.
पुस्तक में विषय को समझाने के लिए तुलनात्मक एवं विश्लेषणात्मक-शैली का उपयोग करते हुए अनेक अवसरों पर निजी अवधारणाओं-अनुभवों को सबल बनाने के लिए अनेक विद्वानों के विचारों को प्रस्तुत करने के साथ ही, रैखिक ढंग को भी अपनाया है. इसमें राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत जिस बहुभाषिकता/बहुभाषावाद और भाषा की शक्ति पर जो बात की गयी है, उस पर भी अलग से विचार किया गया है. अब तक राष्ट्रीय शिक्षा नीति से संबंधित जितने भी दस्तावेज प्रस्तुत किये गये हैं, उनमें मातृभाषा में शिक्षा देने की जो बातें की गयी है, उन सब का उद्धरण के रूप में यथासंभव उपयोग लेखक ने किया है. इसकी वजह से भी पुस्तक की उपयोगिता बढ़ गयी है.
प्राच्य एवं पाश्चात्य भाषा वैज्ञानिकों के विचारों को सामने रखकर, मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्रीय एवं दार्शनिक दृष्टिकोण से अध्ययन करने की लेखकीय चेष्टा रही है. यह बात दीगर है कि पहली बार इस विषय पर पुस्तक प्रस्तुत करने की वजह से कुछ कमियां हो सकती हैं, जिसे दूसरे संस्करण में दूर करने की बात लेखक ने कही है. यह पुस्तक मैथिली भाषा के लिए मील का पत्थर सिद्ध होगी, ऐसी उम्मीद की जा सकती है. पुस्तक की साज-सज्जा एवं प्रस्तुति विलक्षण है.
डॉ नरेंद्र झा, पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, योगदा कॉलेज, रांची
Posted By : Mithilesh Jha