-डाॅ राणा अवधूत कुमार-
Rahul Sankrityayan : 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में हिंदी साहित्य के क्षितिज पर जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल और निराला जैसे कई प्रतिभावन साहित्यकारों का उद्भव हुआ. जिन्होंने हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं को अभूतपूर्व ऊंचाई दी, लेकिन महापंडिल राहुल सांकृत्यायन एकमात्र ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होंने महात्मा बुद्ध की प्रज्ञा ज्योति और मार्क्सवादी विचारधारा के मशाल से आलोकित पथ पर अनवरत यात्रा कर हिंदी साहित्य को तेजोमय वैश्विक फलक प्रदान किया. हिंदी को पुष्पित-पल्लिवत करने में तो आजीवन सक्रिय रहे ही, भोजपुरी भाषा के प्रति उनका प्रेम जीवनपर्यंत बना रहा. भाषाई अस्मिता के सवाल उन्होंने लगातार लोगों को सचेत किया.
राहुल सांकृत्यायन का कई भाषाओं से लगाव था
राहुल सांकृत्यायन का भाषाओं के प्रति लगाव जगजाहिर था. 36 भाषाओं के जानकार राहुल सांकृत्यायन ने उपन्यास, निबंध, कहानी, यात्रा संस्मरण, आत्मकथा, जीवनी व नाटक सहित साहित्य की लगभग सभी विधाओं में हाथ आजमाए और सफल रहे. हालांकि उनका अधिकांश साहित्य हिंदी में है लेकिन वे अपनी मातृभाषा भोजपुरी से उतना ही आत्मीयता रखते थे. तभी तो तीन वर्षों के अंतराल में उन्होंने भोजपुरी के आठ कालजयी नाटकों का सृजन किया. भोजपुरी में एक किताब लिखा, जहां उन्होंने कहा कि भोजपुरी एक अपभ्रंश भाषा है, लेकिन इसका शब्द भंडार काफी विशाल है. जो इस भाषा की ताकत है. भारतीय सभ्यता-संस्कृति, वेद-पुराण, दर्शन, इतिहास आदि कई विषयों के विद्वान राहुल जी बौद्ध धर्म के संपर्क में आने पर पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, सिंहली, तिब्बती, चीनी, जापानी और कई अन्य भाषाओं को आत्मसात किया.
घुमक्कड़ी स्वभाव वाले राहुल सांकृत्यायन विश्व के जिस कोने में गए, वहां की भाषा में महारत हासिल किए. अंगरेजी राज में अंगरेजी में उनका दबदबा रहा, सोवियत संघ में गए तो रूसी में विद्वता हासिल की. चीन-तिब्बत गए तो चीनी और तिब्बती भाषा पर अधिकार जमा लिए. अपने देश में हिंदी, भोजपुरी, संस्कृत, पाली, बांग्ला, अरबी-फारसी कई भाषाओं के जानकार थे. लेकिन भोजपुरी के रंग में शुरू से रंगे रहे.
मातृभाषा के प्रबल समर्थक थे राहुल सांकृत्यायन
मातृभाषा के प्रबल समर्थक भाषाई अस्मिता को लेकर आजादी से पहले से चिंतित रहे. भिखारी ठाकुर के नाटकों को महत्व देते हुए उन्हें ‘भोजपुरी का अनगढ़ हीरा’ की संज्ञा दी, उससे पहले भिखारी ठाकुर को उस तरह का सम्मान नहीं मिलता था, जो किसी पेशेवर कलाकार और उसकी कला को दिया जाता है. भोजपुरी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन का योगदान काफी अहम रहा है. उन्होंने भोजपुरी में दो पुस्तकें लिखने के अलावा करीब आठ भोजपुरी नाटकों का सृजन किया. जिसमें ‘मेहरारू के दुर्दशा’, ‘जोंक’, ‘नइकी दुनिया’, ‘जपनिया राछछ’, ‘ढ़ुनमुन नेता’, ‘देशा रछक’, ‘जरमनवा के हार निहचय’ और ‘ई हमार लड़ाई ह’. 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान जब राहुल सांकृत्यायन हजारीबाग जेल में कैद थे तो अपनी पहली भोजपुरी नाटक ‘मेहरारू के दुर्दशा’ लिखे. जो उस दौर में खासी चर्चित हुई थी. जिसकी प्रासंगिकता आज भी बरकरार है. नाटक महिलाओं के लिए आर्थिक सशक्तीकरण और संपत्ति के अधिकार की वकालत करता है. इसमें समाज में महिलाओं को होने वाली समस्याओं, उनके साथ हो रहे भेदभाव, सतीप्रथा एवं पर्दाप्रथा जैसी यातनाओं को दर्शाता है.
हजारीबाग जेल से निकलने के बाद एक और आंदोलन में जब राहुल सांकृत्यायन को हाजीपुर के जेल में कैद किया गया तो उन्होंने दो और मशहूर नाटकों का सृजन किया. इसमें ‘जोंक’ व ‘नइकी दुनिया’ शामिल थी. ‘जोंक’ नाटक में दौलतमंद सेठ-महाजनों द्वारा निरीह गरीब लोगों के शोषण एवं साधु-संतों द्वारा धर्म-आडंबर के नाम पर ठगी की घटनाओं को सामने लाने का सफल प्रयास किया गया है. आर्थिक मदद के नाम पर गरीबों का दोहन करने वाले साहूकारों को उन्होंने ‘जोंक’ की संज्ञा दी है. इसी तरह ‘नइकी दुनिया’ नाटक में पुरानी पीढ़ी और नये जमाने में समन्वय करने एवं जाति-बिरादरी के बंधन को तोड़कर नई दुनिया बनाने की अपील की गई है. इसी कालखंड में एक और नाटक ‘ढ़ुनमुन नेता’ लिखा, जिसकी प्रासंगिकता आज भी कम नहीं है. यह नाटक सियासी नेताओं की खबर लेता है जो निजी स्वार्थ, लालचवश दल बदलने में माहिर हैं. चुनावी माहौल में इसे आसानी से महसूस किया जा सकता है.
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद चार नाटकों का सृजन किया
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1944 में राहुल सांकृत्यायन ने चार और नाटकों का सृजन किया, जो तत्कालीन दुनियावी हालात की तस्वीर खींचती है. इनमें ‘जपनिया राछछ’, ‘जरमनवा के हार निहचय’, ‘ई हमार लड़ाई ह’ और ‘देस रछक’. यह सभी नाटक उनके गंभीर सोच एवं वैश्विक चिंता को मातृभाषा में व्यक्त करने का सशक्त प्रमाण बनी. ‘जपनिया राछछ’ उनकी वैचारिक प्रौढ़ता का अद्भुम दस्तावेज है, इसमें वे विश्व की शोषित व उत्पीड़ित जनता का सशक्त स्वर बन सामने आते हैं. एशिया में प्रभुत्व को स्थापित करने के उद्देश्य के प्रति कृतसंकल्प जापान सैन्यवादियों को वे राक्षस कहते हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान लिखी गई नाटक ‘जरमनवा के हार निहचय’ में उन्होंने युद्ध समाप्ति के पहले ही हिटलर की गलतियों और विश्वयुद्ध को ले उसकी सोच को नाटक का केंद्रबिंदु बनाकर लिखा कि जर्मनी के हार के बाद इस विश्वयुद्ध की धारा बदल जाएगी. इन नाटकों में पात्रों का चयन व संवाद सोच-समझकर किया गया. इसी तरह ‘देस रछक’ और ‘ई हमार लड़ाई ह’ नाटक में राहुल जी ने तत्कालीन विश्व युद्ध व उसके बाद के परिणामों को फोकस कर अपनी व्यापक सोच से समूचे विश्व को लोहा मनवाया. यह सभी नाटक उनकी दूरदर्शी सोच के परिचायक रहे हैं. यह सभी नाटक इस तथ्य को उजागर करती हैं कि राहुल सांकृत्यायन की निगाहें एवं व्यापक सोच सिर्फ अपने देश या भाषा-समाज पर ही नहीं बल्कि समूचे दुनिया में हो रहे बदलाव पर भी बराबर बनी हुई थी. अहम बात कि उन्होंने वैश्विक समस्याओं को फोकस कर लिखी गई इन नाटकों की भाषा भोजपुरी रख यह साबित किया कि भोजपुरी लेखन किसी मामले में पीछे नहीं हैं. इसके माध्यम से भोजपुरिया समाज को आगाह व सचेत करने का लक्ष्य भी था. नाटकों ने यह साबित किया कि भाषाई रूप से भोजपुरी किसी अन्य भाषा से कमतर तो बिल्कुल ही नहीं है.