राष्ट्रकवि दिनकर की जयंती : -‘‘पापी है जो देवता समान दिखता है…जैसी पंक्तियों से दिनकर ने सत्ता को लताड़ा
स्वाधीनता-संघर्ष के कालखंड में वे विदेशी शासन के खिलाफ प्रचंड विद्रोह की आवाज बनकर उभरे और स्वाधीन भारत में राष्ट्र की आत्मा के सशक्त-सुंदर स्वर बनकर जन-मन में ‘राष्ट्रकवि’ के रूप में प्रतिष्ठित हुए. 47 वर्षों की उनकी साहित्य-साधना से निकली कालजयी कृतियां हिंदी की अनमोल धरोहर हैं.
-विनय कुमार सिंह-
अनेक दुर्धर्ष कौरव महारथियों को समाने देख जब धर्मराज युधिष्ठिर के अंतर्मन में कदर्यता की तरंगें उठती होतीं, तो उसी समय कुरुक्षेत्र के किसी कोने से उठती अर्जुन के गांडीव की टंकार से पांडव-पक्ष उत्साह से भर उठता था. काव्य के क्षेत्र में राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ की लेखनी की उपमा उसी ‘गांडीव की टंकार’ से दी जा सकती है. रामधारी सिंह दिनकर का तेजोदप्त आभामंडल उनकी ही एक कविता में यथार्थतः अभिव्यक्त है-‘‘सुनुं क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा ?/ स्वयं युगधर्म का हुंकार हूं मैं / कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का/ प्रलय गांडीव की टंकार हूं मैं.’’ हर प्रकार के शोषण-दमन, अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष में दिनकर का काव्य गांडीव की टंकार की तरह प्रलयंकर है. स्वाधीनता-संघर्ष के कालखंड में वे विदेशी शासन के खिलाफ प्रचंड विद्रोह की आवाज बनकर उभरे और स्वाधीन भारत में राष्ट्र की आत्मा के सशक्त-सुंदर स्वर बनकर जन-मन में ‘राष्ट्रकवि’ के रुप में प्रतिष्ठित हुए. सन् 1927 से 1974 तक मृत्युपर्यंत – 47 वर्षों की उनकी साहित्य-साधना से निकली कालजयी कृतियां हिंदी की अनमोल धरोहर हैं. गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार ‘लोकमंगल’ ही काव्य का धर्म है. कहना नहीं होगा कि तुलसी का लोकमंगल आधुनिक युग में दिनकर के काव्य में मुखरित हुआ है. इसीलिए दिनकर तुलसी की ही भांति ‘लोक-कवि’ हैं जिनकी रचनाएं लोक-जीवन के गंभीर प्रश्नों के समाधान का सही मार्ग बतलाती है.
दिनकर की कृतियां देशप्रेम, स्वाभिमान एवं सामाजिक समता की प्रतीक
दिनकर की कृतियां राष्ट्रीय चेतना, देशप्रेम, स्वाभिमान, सौंदर्य एवं सामाजिक समता-समरसता की प्रतीक हैं. वे ओज और उत्साह के कवि हैं. रीतिकालीन वीर-रस के कवि भूषण के बाद पं श्याम नारायण पांडेय एवं दिनकर ही वीररस के सशक्त हस्ताक्षर हैं. वे छायावादोत्तर हिंदी काव्य-जगत में वैसे प्रथम कवि हुए जिन्होंने कविता को ‘छायावाद’ की रुमानी कुहेलिका से बाहर निकालकर, उसे आम जन के व्यापक संदर्भों एवं सरोकारों से जोड़ा. पराधीन भारत में धूम मचा देनेवाली काव्य-कृति हुंकार (सन् 1938) में रुमानी कल्पनाओं के जाल बुननेवाले कवियों के समक्ष दिनकर का आत्मनिवेदन अर्थपूर्ण है- ‘अमृत गीत तुम रचो कलानिधि ! बुनो कल्पना की जाली/तिमित-ज्योति की समरभूमि का/मैं चारण, मैं बैताली।’’ परकीय शासन के विरुद्ध अंतर्मन की ज्वाला जगाने का आह्वान करते हुए उन्होंने लिखा- ‘‘हो कहां, अग्निधर्मा नवीन ऋषियों ? जागो/कुछ नई आग, नूतन ज्वाला की सृष्टि करो।’’ उस दौर में दिनकर की ‘हिमालय’ कविता स्वतंत्रता-सेनानियों की कंठहार बन गई. मेरा अपना अनुभव है कि स्कूल के दिनों में जब मेरे हिंदी-शिक्षक हिमालय कविता का ओजपूर्ण वाचन करते – ‘‘रे! रोक युधिष्ठिर को न यहां/ जाने दो उनको स्वर्ग धीर / पर, फिरा हमें गांडीव-गदा/ लौटा दे अर्जुन-भीम वीर’’-तो ऐसा लगता, मानो अर्जुन-भीम जैसे पराक्रमी योद्धा हिमालय के उत्तुंग शिखरों से हमारी कक्षा में उतर आए हों. ऐसी प्रभावपूर्ण हैं दिनकर की कविताएं.
आज भी प्रासंगिक है दिनकर की कविताएं
दिनकर ‘युग-चारण’ थे जिन्होंने अपने युग के गौरवपूर्ण प्रसंगों के अभिनंदन में ‘वैताली’ की तरह ताल दे-देकर गीत गाते हुए जनता को जगाया. स्वाधीनता के ‘अरुणोदय’ पर 15 अगस्त 1947 को इस वैताली ने तान छेड़ा- ‘‘मंगल मुहूर्त्त रवि ! उगो, हमारे क्षण ये बड़े निराले हैं/ हम बहुत दिनों के बाद विजय का शंख फूंकनेवाले हैं.’’ 26 जनवरी 1950 को, भारत के गणतंत्र घोषित होने के उल्लास में दिनकर ने वह सुप्रसिद्ध कविता लिखी-‘‘जनतंत्र का जन्म’’, जिसकी सुंदर पंक्ति है – ‘‘सदियों से ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी/मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है/दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो/ सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.’’ लेकिन कुछ ही काल के बाद भारत-गणराज्य के शासकों के रवैए और आजादी के बाद लोक-उच्छृंखलता को ‘लोक-मंगल’ के विरुद्ध देख समझकर उन्होंने सत्ताधीषों को चेतावनी देते हुए कहा-‘‘जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में/ या आग सुलगती रही प्रजा के मन में/ रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा/ अपने ही घर में स्वदेश पुनः हारेगा।’’ दूसरी ओर स्वाधीनता को ‘स्वच्छंदता मान परस्पर छीन-झपट को आतुर जनता को झिड़कते हुए वे ‘लोकशिक्षण’ करते हैं – ‘‘आजादी तो मिल गई, मगर यह गौरव कहां जुगाएगा ?/मरभुखे ! इसे घबराहट में बेच तो न खा जाएगा ?/ आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ?/है बड़ी बात आजादी का पाना नहीं, जुगाना भी/ बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी।’’ कहना नहीं होगा कि राष्ट्रकवि की इन पंक्तियों के संदेश आज के दौर में भी उतने ही प्रासंगिक हैं- आज, जबकि जातीय, क्षेत्रीय और भाषाई क्षुद्रताएं राष्ट्रीय चेतना पर प्रहार करने में लगी हैं.
राजनीति के खतरों को भांप लिखी थीं कविताएं
आज की राजनीति समाज में जातिवाद के विष घोलकर सत्ता पर काबिज होने का उपकरण बन गई है. राजनीतिक उल्लू सीधा करने के लिए चापलूसी-चाटुकारिता राजनीतिक लोगों के ‘बहुमूल्य आभूषण’ बन गए हैं. इन कुप्रवृत्तियों को, दुर्भाग्यवश खूब बढ़ावा भी मिल रहा है. दिनकर ने इन खतरों को बहुत पहले ही पहचान लिया था। ‘रश्मिरथी’ में जातिवादी मानसिकता, पर चोट करते हुए लिखा- ‘‘जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाखंड’’। ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में राजनीतिक चापलूसों को प्रश्रय देनेवालों की खबर लेते हुए दिनकर ने क्या खूब लिखा है।- ‘‘चोरों के हैं हितु, ठगों के बल हैं/जिनके प्रपंच से पलते पाप सकल हैं/जो छल-प्रपंच सबको प्रश्रय देते हैं/ या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं/यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है/ भारत अपने ही घर में हार गया है।’’ पं नेहरु के निधनोपरांत रचित ‘लोकदेव नेहरु’ में उन्होंने लिखा- ‘‘पार्टी अगर चापलूस हो जाए, तो नेता को तानाशाह बनने से कौन रोक सकता है ?’’ समाज के शोषितों-वंचितों के हक की आवाज दिनकर ने अत्यंत सशक्त ढंग से उठाई है-‘‘उठो व्योम के मेघ, पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं/ दूध-दूध ओ वत्स ! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।’’ उनके ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘रश्मिरथी’ में शोषण एवं अन्याय के विरुद्ध बुलंद आवाज है. रसवंती, सामधेनी, नील-कुसुम, परशुराम की प्रतीक्षा आदि दिनकर के अनुपम कीर्त्तिस्तंभ हैं.
उर्वशी अद्भुत प्रेम काव्य
‘उर्वशी’, जिसपर दिनकर को ज्ञानपीठ मिला, एक अद्भुत प्रेम-काव्य है, जहां मानवीय-संवदना की कोमलता एवं श्रृंगारिकता का अद्भुत चित्रण है. इसका नायक पुरुरवा प्रेयसी उर्वशी से दर्पयुक्त आत्म-निवेदन करता है-‘‘मर्त्य मानव के विजय का तूर्य हूँ मैं/उर्वषी ! अपने समय का सूर्य हूँ मैं !’’ लेकिन अगले ही क्षण उसका दर्प उर्वशी के अप्रतिम रुप-लावण्य के समक्ष ठंडा हो जाता है – ‘‘इंद्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है/सिंह से बाँहें मिलाकर खेल सकता है/फूल के आगे वही निरुपाय हो जाता/शक्ति के होते हुए असहाय हो जाता।’’ हुंकार और कुरुक्षेत्र का वज्र कठोर कवि उर्वशी में इतना कोमल हो सकता है ? यह विस्मय उत्पन्न करता है. अनुपम गद्य-कृति ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पर दिनकर को 1959 में ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार तथा अद्भुत काव्य-कृति ‘उर्वशी’ के लिए 1972 में ‘ज्ञानपीठ’ सम्मान मिला. कुरुक्षेत्र तो विश्व के 100 प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों में शामिल है. तथापि हरिवंशराय बच्चन ने कहा था – ‘‘ दिनकर को एक नहीं, बल्कि गद्य, पद्य, भाषा एवं हिंदी सेवा के लिए ‘‘अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने चाहिए.’’ दिनकर उत्कट देशभक्त और निर्भीक व्यक्तित्व के धनी रहे. उनके मन में पं. जवाहर लाल नेहरू के प्रति बड़ा सम्मान था. नेहरू उन्हें सन् 1952 में राज्य सभा में लाए थे. लेकिन जनकवि दिनकर ने राजनीतिक हानि-लाभ से ऊपर उठकर जनता के दुःख-दर्द और राष्ट्रीय हितों को सदैव प्राथमिकता दी. चीनी आक्रमण (सन् 1962) में देश की पराजय पर ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ लिखकर पं. नेहरू को लताड़ लगाने में नहीं हिचके-‘‘पापी है जो देवता समान दिखता है/लेकिन कमरे में गलत हुक्म लिखता है/ जिस पापी को गुण नहीं, गोत्र प्यारा है/ समझो उसने ही हमें यहाँ मारा है। इसी प्रसंग में देश की जनता को जगाते हुए उन्होंने आवाज लगाई-‘‘ओ बदनसीब अंधो ! कमजोर अभागो/अब तो खोलो नयन, नींद से जागो/वह अघी, जो बाहुबल का अपलापी है/ जिसकी ज्वाला बुझ गई वह पापी है।’’ सन् 1974 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को जनता और जनतंत्र के हित में उन्होंने दिल खोल कर समर्थन दिया. उनकी प्रसिद्ध कविता की पंक्ति ‘‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’’- यह सन् 1974 के आंदोलनकारियों का प्रसिद्ध उद्घोष बनी थी. प्रसिद्ध समालोचक डाॅ नामवर सिंह के अनुसार ‘‘दिनकर अपने समय के सूर्य थे’’. महान साहित्यसेवी पं बनारसीदास चतुर्वेदी के अनुसार-‘‘दिनकर पांच शताब्दियों से अधिक समय तक याद किए जाएंगे.’’ जयंती पर महान राष्ट्रकवि को शत्-शत् नमन.
(लेखक भाजपा प्रदेश कार्यसमिति झारखंड के सदस्य हैं)
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