बाबूलाल मुर्मू आदिवासी : संताली साहित्य को दिया व्यापक आयाम
बाबूलाल मुर्मू ‘आदिवासी’ संताली के ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने संताली भाषा, साहित्य और संस्कृति को समृद्ध करने के एकमात्र लक्ष्य के साथ जीवन जीया. पहले मास्टर (1965), फिर सेना में जमी-जमायी नौकरी (1965-1986) छोड़ी और संताली भाषा की उसी पत्रिका ‘ह़ोड सोम्बाद’ में संपादक बने
डॉ आरके नीरद
niradrkdumka@gmail.com
बाबूलाल मुर्मू ‘आदिवासी’ संताली के ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने संताली भाषा, साहित्य और संस्कृति को समृद्ध करने के एकमात्र लक्ष्य के साथ जीवन जीया. पहले मास्टर (1965), फिर सेना में जमी-जमायी नौकरी (1965-1986) छोड़ी और संताली भाषा की उसी पत्रिका ‘ह़ोड सोम्बाद’ में संपादक बने, जिसमें बाल्यकाल से अपनी रचनाएं छपने पर असीम आत्मिक सुख पाते थे. ‘ह़ोड सोम्बाद’ पढ़ कर उनमें संताली भाषा और साहित्य के प्रति अनुराग पैदा हुआ. पहली रचना जब उसमें छपी, तो यह अनुराग और गाढ़ा हो गया.
जब सेना में नौकरी मिली, तो हर तीन साल में नये-नये शहरों रांची, नेफा, पानागढ़ और पटना में तबादले को साहित्यिक दृष्टि को विस्तार देने, साहित्यिक संगति बनाने और संताली भाषा-साहित्य के विकास के लिए संगठनात्मक योगदान करने के अवसर के रूप में जीया, मगर ‘ह़ोड सोम्बाद’ का संपादक बनने की लालसा कम नहीं हुई. जब 4 अप्रैल, 1986 को इसे पूरा करने का अवसर मिला, तो सेना की नौकरी छोड़ने में तनिक भी देरी नहीं की.
‘ह़ोड सोम्बाद’ बिहार सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग की संताली भाषा में साहित्यिक पत्रिका थी. अब झारखंड का सूचना एवं जनसंपर्क विभाग इसे प्रकाशित करता है. पत्रिका के प्रथम संपादक डॉ डोमन साहू समीर थे. आदिवासी जी एकलव्य की भांति उनके शिष्य बने. फिर उनके सानिध्य में भाषा और साहित्य के सूक्ष्म मूल्यों को जाना-सीखा और फिर उनके उत्तराधिकारी बने. आदिवासी जी की संताली भाषा और संस्कृति को लेकर देशज और परंपरावादी दृष्टि थी. इस दृष्टि से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. यहां तक कि उन्होंने साहित्य अकादमी जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार के प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया.
हुआ यूं कि आदिवासी जी देवनागरी लिपि में लिखते थे. संताली भाषा की लिपि क्या हो, इसे लेकर पूरा संताल बुद्धिजीवी समाज अब भी एकमत नहीं है और न ही कोई एक लिपि उनके बीच सर्वमान्य है. झारखंड, असम, बिहार, ओड़िशा, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल तथा बांग्लादेश और नेपाल में रह रहे संताल भाषा-भाषी लोग स्थानीय लिपियों के प्रभाव में हैं और उन्हीं लिपियों में लेखन करते हैं. ओलचिकी लिपि के जन्म के 95 साल साल बाद भी रोमन, देवनागरी, बांग्ला, असमिया, नेपाली आदि लिपियां इनके बीच प्रचलित है. आदिवासी जी देवनागरी लिपि में न केवल लिखते थे, बल्कि इस लिपि के पक्ष में उनके अपने ठोस तर्क भी थे.
जब संताली रचनाकारों को साहित्य अकादमी पुरस्कार देना शुरू हुआ, तो लिपि को लेकर बड़ा प्रश्न भी उठा. यह प्रश्न इतना दुरूह हो गया कि आदिवासी जी के नाम और उनकी रचनाओं पर विचार करने में बाधा आती रही. आदिवासी जी को 2005 के आसपास साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए नामित किया गया, किंतु यह शर्त थी कि वे ओलचिकी लिपि में रचना करें या अपनी रचनाओं को इस लिपि में रूपांतरित कराएं.
आदिवासी जी को यह स्वीकार न हुआ. वे केवल पुरस्कार पाने के लिए लिपि बदलने को तैयार नहीं हुए. साहित्य अकादमी पुरस्कार सभी लिपियों में लिखने वाले संताली साहित्यकार को मिले और पुरस्कार आ आधार भाषा-साहित्य हो, लिपि नहीं, इसे लेकर वे जीवन के अंतिम दिनों तक संघर्ष करते रहे. उनका यह संघर्ष संताली के उन तमाम साहित्यकारों के लिए था, जो ओलचिकी लिपि में नहीं लिखते हैं.
ह़ोड सोम्बाद के संपादक होने के बाद बाबूलाल जी पहले देवघर आ गये थे और बाद में इसका संपादन कार्य दुमका से शुरू हुआ. तब वे दुमका आ गये और शहर से सटे कडहरबिल गांव के हरिण टोली में एक छोटा-सा कच्चा मकान बना कर रहने लगे थे. यहां उनसे मेरी अक्सर मुलाकात होती थी.
जब संताल जनजातीय समाज की ‘जादोपटिया पेंटिंग’ की 1990-1995 में मैंने खोज शुरू की थी और यह स्थापित करने में लगा था कि यह संताल जनजातीय पेंटिंग है, तब डॉ डोमन साहू समीर और आदिवासी जी, दोनों से अक्सर संताल संस्कृति को लेेकर मेरी चर्चा होती रही. मृत्यु के कुछ समय पूर्व आदिवासी जी ने मुझे कई साक्षात्कार दिये थे, जिनमें संताली साहित्य और लिपि को उनकी चिंता और उनका चिंतन था.
उन्हें भले साहित्य अकादमी ने लिपि के प्रश्न को लेकर पुरस्कार नहीं दिया, किंतु संताली लेखक के रूप में उनकी प्रतिष्ठा, मान्यता और उनका योगदान कम नहीं है. उन्हें कई अन्य पुरस्कार मिले. झारखंड के राजपाल (2006) और झारखंड सरकार (2008) ने भी उन्हें सम्मानित किया. वे विश्वभारती शांति निकेतन और सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय के संताली परीक्षा बोर्ड के सदस्य, केके बिड़ला फाउंडेशन की संताली भाषा समिति के संयोजक और संताल अकादमी जैसे दर्जनभर प्रतिष्ठित संस्थानों से जुड़े रहे.
आज उनका साहित्य विश्वभारतीय, शांति निकेतन, सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका सहित कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है. उनके साहित्य पर हिंदी और संताली में हुए शोधकार्य के लिए पीएचडी की उपाधि तक (डॉ शर्मिला सोरेन, डॉ कंचन रानी आिद को) प्रदान की गयी है. एक संताली साहित्यकार की कृतियों पर हिंदी भाषा में शोध और पीएचडी की डिग्री दिया जाना यह बताता है कि वे गैर संताली भाषा-भाषियों के बीच भी, आज भी किस हद तक लोकप्रिय हैं. आदिवासी उनका उपनाम था. इस उपनाम में ही आदिवासी अस्मिता के प्रति उनका चिंतन ध्वनित होता है.
आदिवासी जी ने साहित्य की विभिन्न विधाओं में 1966 से 2004 तक 23 पुस्तकों की रचना की. वे कुशल बांसुरीवादक, लोक नर्तक और रंगकर्मी थे. उन्होंने एक लघु फिल्म में भी काम किया था. उनकी कविताओं पर छायावाद का प्रभाव है- झारनाक् काना झारना दाक्/ अ़ातुक लेका मेंत् दाक्/ साडे काना ठी ओन/ बिछ़ोक् गातेञ होमोर लेका (झरना है, झारना का पानी है /डर रहे हैं जैसे आांखों से आसूं/ आवाज है ठीक वैसा/ प्रिय से बिछुड़ने पर रोने जैसा). बहरहाल, आदिवासी जी संताली भाषा, साहित्य और संस्कृति के बहुमुखी प्रतिभा के धनी बड़े हस्ताक्षर थे.
Posted by: Pritish Sahay