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राजमहल की बसाल्ट चट्टानें ग्लोबल वार्मिंग को करती हैं कंट्रोल, आज दुनिया को बतायेंगे आदिवासी वैज्ञानिक प्रेम चंद

स्टीफन हॉकिंग जैसे वैज्ञानिक ने कहा है कि 100 साल में दुनिया नष्ट हो जायेगी. धरती इंसानों के रहने लायक नहीं रह जायेगी. ऐसे समय में झारखंड के एक वैज्ञानिक ने अपने राज्य के लोगों में उम्मीद की एक किरण दिखायी है.

मिथिलेश झा

रांची : दुनिया ग्लोबल वार्मिंग से त्रस्त है. बड़े-बड़े वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि आनेवाले दिनों में धरती नष्ट हो जायेगी. स्टीफन हॉकिंग जैसे वैज्ञानिक ने कहा है कि 100 साल में दुनिया नष्ट हो जायेगी. धरती इंसानों के रहने लायक नहीं रह जायेगी. ऐसे समय में झारखंड के एक वैज्ञानिक ने अपने राज्य के लोगों में उम्मीद की एक किरण दिखायी है. उनका मानना है कि झारखंड में ऐसे पत्थर हैं, जो प्राणघातक गैस कार्बन-डाई-ऑक्साइड को प्राकृतिक रूप से अवशोषित करता है और धरती के तापमान को नियंत्रित रखने में मदद करता है. सीधे शब्दों में कहें, तो झारखंड की पत्थरों में ग्लोबल वार्मिंग के असर को कम करने की क्षमता है.

जी हां, पूर्वी सिंहभूम के जिला मुख्यालय जमशेदपुर के शंकरपुर में रहनेवाले प्रेम चंद किस्कू ने अपने शोध के आधार पर कहा है कि राजमहल की बसाल्ट चट्टानें ग्लोबल वार्मिंग से लड़ सकती हैं. उन्होंने झारखंड के साहेबगंज जिला में स्थित राजमहल की पहाड़ियों पर गहन शोध किया है. उनके शोध को अंतर्राष्ट्रीय संगठन ने मान्यता दी है. उन्हें यूरोप के प्रतिष्ठित संस्था यूरोपियन एसोसिएशन ऑफ जियोकेमिस्ट्री ने फ्रांस की राजधानी पेरिस में 13 से 18 अगस्त तक आयोजित अपने अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन ‘गोल्डस्मिट 2017’ में अपना शोध पत्र पढ़ने के लिए आमंत्रित किया है.

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गोल्डस्मिट एक अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस है, जो हर साल दुनिया भर के 3,500 जियोसाइंटिस्ट्स को शोध पत्र पेश करने के लिए आमंत्रित करता है. यहां वैज्ञानिकों को किसी समस्या के नवीनतम समाधान के बारे में बताना होता है. इसी कड़ी में प्रेम चंद पेरिस में झारखंड के राजमहल की बसाल्ट चट्टानों और ग्लोबल वार्मिंग के बीच संबंध को रेखांकित करेंगे. वह पहली बार दुनिया को बतायेंगे कि बसाल्ट चट्टानों में ग्लोबल वार्मिंग को कम करने की क्षमता है. ये कार्बन डाई-ऑक्साइड को अवशोषित कर मानव जीवन को बचाने में अहम भूमिका निभाते हैं.

प्रेम चंद बताते हैं कि राजमहल की बसाल्ट चट्टानों में केमिकल वेदरिंग से धरती की सतह पर कई तरह की गतिविधियां घटित होती हैं या हो चुकी हैं. उन्होंने कहा कि बसाल्ट चट्टानों में भारी मात्रा में मैफिक मिनरल्स होते हैं. जब ये खनिज जब वायुमंडलीय संरचना के संपर्क में आते हैं, तो इसमें कई तरह के बदलाव देखने को मिलते हैं.

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उनके मुताबिक, बसाल्ट चट्टानें तेजी से अपनी प्रकृति बदलती हैं. इसमें केमिकल वेदरिंग के लिए ऊष्मा (गर्मी), जल तत्व और pH, Eh आदि की जरूरत होती है. खुली चट्टानों के संपर्क में आने से पहले बारिश का पानी कार्बन डाई-ऑक्साइड के संपर्क में आता है और कार्बोनिक एसिड बनाता है. ये कार्बोनिक एसिड बारिश के समय खुली चट्टानों के संपर्क में आते हैं, जिससे चट्टानों में बदलाव आने लगता है. इसके साथ ही ये चट्टानें जीवन चक्र को बचाये रखने के लिए जरूरी खनिज एवं पोषक तत्व के अलावा गाद छोड़ने लगते हैं.

अंततः चट्टानों से निकले खनिज और अन्य तत्व जलतत्व यानी नदी-नालों और फिर नदी-नालों के जरिये समुद्र तक पहुंच जाते हैं. इसकी मदद से भू-उत्पत्ति होती है और समुद्र का pH लेवल संतुलित रहता है. यह एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, क्योंकि यह जमीन को उपजाऊ भी बनाता है.

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प्रेम चंद किस्कू ने अपने अध्ययन में पाया कि राजमहल की बसाल्ट केमिकल वेदरिंग के मध्यवर्ती चरण में है. फिर भी इसमें पाइरॉक्सीन, प्लेजियोक्लास या कुछ माफिक खनिज मौजूद हैं. ये ऐसे खनिज हैं, जिनमें अपने आसपास मौजूद कार्बन-डाई-ऑक्साइड को अवशोषित करने की क्षमता बाकी है. ये चट्टानें गंगा नदी में महत्वपूर्ण खनिज और तत्व छोड़ते हैं. यहां बताना प्रासंगिक होगा कि गंगा नदी राजमहल के निकट से होकर बहती है.

केमिकल वेदरिंग की प्रक्रिया के दौरान यह प्रकृति में मौजूद कार्बन-डाई-ऑक्साइड को अवशोषित करता है और वैश्विक प्रकृति में मौजूद कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा को कम करने में मदद करता है. शोधकर्ता प्रेम चंद किस्कू बताते हैं कि राजमहल में स्थित बसाल्ट की चट्टानें लंबी अवधि के दौरान होनेवाली भूगर्भीय प्रक्रिया का अद्भुत उदाहरण है. उनके मुताबिक, राजमहल की चट्टानें करीब 1170 लाख साल पुरानी हैं.

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प्रेम चंद किस्कू बताते हैं कि बहुत से विकसित देश हैं, जो कृत्रिम तरीके से कार्बन-डाई-ऑक्साइड को अवशोषित कर रहे हैं. इसे CO2 सीक्वेस्ट्रेशन कहते हैं. ये लोग पहले से ही ऐसे शोध कर रहे हैं और चट्टानों की प्रकृति बदलने की प्रक्रिया का अध्ययन कर रहे हैं. इसके तहत दुनिया भर में कई ‘क्रिटिकल जोन ऑफ ऑब्जर्वेटरी’ की स्थापना की गयी है. ये केंद्र समाज में वैज्ञानिक जागरूकता फैला रहे हैं.

कौन हैं प्रेम चंद किस्कू

झारखंड के आदिवासी वैज्ञानिक हैं प्रेमचंद किस्कू. पूर्वी सिंहभूम के जिला मुख्यालय जमशेदपुर के शंकरपुर में रहनेवाले प्रेम चंद सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ पंजाब से पीएचडी कर रहे हैं. काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (CSIR) के सीनियर फेलो हैं. असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ जितेंद्र कुमार पटनायक के दिशा-निर्देशन में राजमहल की बसाल्ट चट्टानों में होनेवाली केमिकल वेदरिंग पर रिसर्च किया. उनके शोध का निचोड़ बताता है कि झारखंड के राजमहल की बसाल्ट चट्टानें बढ़ते वैश्विक तापमान को नियंत्रित कर सकती हैं. उनके इस अध्ययन को यूरोपियन एसोसिएशन ऑफ जियोकेमिस्ट्री ने मान्यता दी है और उन्हें पेरिस में आयोजित ‘गोल्डस्मिट 2017’ में अपना शोध पत्र पढ़ने के लिए आमंत्रित किया है.

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