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मीडिया पर छाया विश्वसनीयता और साख का संकट

समय व परिस्थितियां बदल गयी हैं इसलिए पत्रकारिता की अवधारणा, स्वरूप और दृष्टिकोण भी बदल गये हैं. पाठकों की आवश्यकताएं और रुचियां भी बदल गयी हैं. एक बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि अंगरेजी के अखबारों का वर्चस्व अब पहले से कम हो गया है.

पद्मश्री बलबीर दत्त

प्रभात खबर पत्रकारिता की अपनी लंबी यात्रा में आज 40वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है. चार दशक के कालखंड में प्रभात खबर ने हिंदी पट्टी की पत्रकारिता में एक नया आयाम दिया. मूल्य बोध और आमजन केंद्रित पत्रकारिता पूरी शिद्दत से साथ की. हम अपनी उपलब्धियों, पत्रकारिता धर्म से ना ही आत्ममुग्ध हैं और ना ही अतिरंजित. इस कालखंड में जन सरोकार की पत्रकारिता की भूमिका केवल कागज-कलमों तक ही सीमित नहीं रही. बल्कि हमने सीमित संसाधन के साथ धरातल पर काम किया. विकास को दिशा देेने, समाज में स्वस्थ मानस बनाने और मुद्दों पर लोगों को जागृत करने में अपनी भूमिका निभायी. पढ़िये पत्रकारिता पर अलग-अलग क्षेत्रों के प्रमुख लोगों के विचार.

1947 में देश की आजादी के समय हमारे देश में करीब 1300 पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होता था. यह संख्या अब बढ़कर एक लाख से अधिक हो गयी है. इसे एक असाधारण और चमत्कारिक बढ़ोतरी कहा जायेगा. इसलिए भी कि भारत आज दुनिया में सर्वाधिक अखबार प्रकाशित करने वाला देश बन गया है. यह प्रसन्नता की बात है कि हमारे देश में समाचार पत्रों की संख्या और प्रसार संख्या तेजी से बढ़ रही है. इसके अलावा रेडियो केंद्रों और टी.वी. चैनलों की संख्या में भी भारी इजाफा हुआ है. आजादी के समय भारत में मात्र छह रेडियो केंद्र थे. उस समय हमारे देश में टेलीविजन का जमाना शुरू नहीं हुआ था. आज भारत में 788 रेडियो केंद्र हैं जिनमें 400 केंद्र भारत सरकार के अधीन आकाशवाणी केंद्र हैं. कुल 892 टी.वी. चैनल हैं जिनमें 403 न्यूज चैनल हैं. ये 15 भाषाओं में अपने कार्यक्रम प्रसारित करते हैं.

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इस प्रसंग में एक दिलचस्प किस्सा है. वर्ष 2000 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत की पांच दिवसीय राजकीय यात्रा के क्रम में मुंबई पहुंचे और वहां अपने रूम में टेलीविजन देखते समय उन्होंने पूछा कि यहां कितने टीवी चैनल हैं. जब उन्हें चैनलों की संख्या बतायी गयी तब उन्होंने आश्चर्यचकित होते हुए कहा- “वाह! इतने चैनल तो वाशिंगटन में भी नहीं हैं.”

अवधारणा, स्वरूप और दृष्टिकोण में बदलाव

ऐसी अवस्था में जबकि भारतीय मीडिया का विपुल विस्तार हो गया है, उसकी जिम्मेदारी कितनी बढ़ गयी है यह सहज समझा जा सकता है. लेकिन मीडिया की शक्ति और प्रभाव तभी तक हैं जब तक वह अपने कर्तव्य के प्रति सजग हो और अपने कर्तव्य का पालन निष्ठा और सद्बुद्धि से करे. आज के बाजारवादी मीडिया के युग में इस बात की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक प्रतीत होता है कि हमारे देश में समाचार पत्रों के प्रकाशन की शुरुआत एक वैचारिक आंदोलन के रूप में हुई थी. आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाने और उसे एक तेज धार देने में भारत के राष्ट्रवादी समाचारपत्रों का बहुत बड़ा योगदान था.

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गांधीजी ने, जो स्वयं पत्रकारिता करते रहे और कई पत्रिकाओं का संपादन-प्रकाशन किया, स्पष्ट शब्दों में कहा था कि स्वाधीनता की लड़ाई अखबारों की सहायता के बिना लड़ी ही नहीं जा सकती थी. दरअसल, भारत के राष्ट्रवादी अखबारों ने राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करने और ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ने में जो योग दिया वह भारतीय पत्रकारिता के इतिहास का एक सुनहरा अध्याय है. इसमें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के अखबार अग्रणी थे. भारत का स्वाधीनता संघर्ष और भाषाई पत्रकारिता समानार्थक शब्द हो गये थे. आंदोलन के दिनों में भाषाई पत्रकारिता का अर्थ था तलवार की धार पर चलना.

समय व परिस्थितियां बदल गयी हैं इसलिए पत्रकारिता की अवधारणा, स्वरूप और दृष्टिकोण भी बदल गये हैं. पाठकों की आवश्यकताएं और रुचियां भी बदल गयी हैं. एक बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि अंगरेजी के अखबारों का वर्चस्व अब पहले से कम हो गया है. किसी समय देश के 10 सर्वाधिक बिक्री वाले अखबारों में अधिकतर अखबार अंगरेजी के हुआ करते थे. आज 10 सर्वाधिक बिक्री वाले अखबारों में अंगरेजी का केवल एक ही अखबार है, जो तीसरे नंबर पर है. बाकी सब भाषाई अखबार हैं जो कभी जूनियर लीग की श्रेणी में माने जाते थे.

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बहुत लोगों को यह जानकर ताज्जुब होगा कि ज्ञानी जैल सिंह के राष्ट्रपति बनने से पहले राष्ट्रपति भवन में हिंदी का कोई अखबार नहीं मंगाया जाता था. अब तो हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के अखबार क्वालिटी में अंगरेजी के अखबारों से टक्कर ले रहे हैं. उनकी प्रसार संख्या तो बढ़ी ही है. हाल के वर्षों में क्षेत्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में जो तेजी आयी है, वह भारतीय भाषाओं पर आधारित है. क्षेत्रीय स्तर पर भारतीय भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में तीव्रता एक शुभ लक्षण है. क्षेत्रीय स्तर पर क्षेत्र विशेष की मनोधाराओं, भावनाओं, आशा-आकांक्षाओं और सांस्कृतिक विशिष्टताओं का जो प्रतिबिंब संभव है वह अन्य प्रकार से संभव नहीं है. स्थानीय व क्षेत्रीय अखबार जमीन से जुड़े मुद्दों को बेहतर ढंग से उठा सकते हैं और उठाते रहे हैं.

बाजारवादी पत्रकारिता का युग

इन सबके बावजूद प्रश्न यह खड़ा होता है कि क्या पत्रकारिता में सब कुछ ठीक चल रहा है. इसका उत्तर है-नहीं. किसी भी प्रोफेशन के मूल्यांकन या कसौटी का मुख्य आधार यह होता है कि आम लोगों की निगाह में उसकी छवि कैसी है, उसके बारे में धारणा क्या है? खेद की बात है कि हाल के वर्षों में पत्रकारिता और पत्रकारों की प्रतिष्ठा में काफी ह्रास हुआ है. हालांकि ऐसा जन-जीवन के सभी कार्यक्षेत्रों–राजनीति, विधायिका, नौकरशाही और न्यायपालिका में भी हुआ है. वस्तुतः पत्रकार उसी समाज से आते हैं जो आज चारित्रिक संकट के दौर से गुजर रहा है. पत्रकारिता अलग से कोई टापू नहीं है. फिर भी यहां हमारा सरोकार पत्रकारिता से है.

नये दौर की पत्रकारिता बुनियादी तौर पर बदल रही है. आदर्शवादी पत्रकारिता धीरे-धीरे बाजारवादी पत्रकारिता बनती जा रही है. प्रिंट मीडिया धीरे-धीरे एक विशुद्ध उद्योग-व्यापार का रूप धारण कर चुका है, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो बहुत पहले से ही उद्योग-व्यापार का रूप धारण किये हुए था. उद्योग-व्यापार का भी अपना एक अनुशासन होता है. इसे प्रतिस्पर्धा की लड़ाई में परिवर्तित नहीं किया जाना चाहिए. अखबारों की लड़ाई स्वयं को अव्वल या अग्रणी दिखाने की लड़ाई है. जब लड़ाई है तो अंगरेजी की एक पुरानी कहावत ‘मोहब्बत और लड़ाई में सब जायज है’ का अनुसरण होना ही है.

पत्रकारिता अब एक उद्योग का रूप धारण करते हुए सूचना उद्योग का हिस्सा बन गयी है. इसका परिणाम यह हुआ है कि अब अखबार देश के नागरिकों को जिम्मदार नागरिक नहीं बल्कि सिर्फ ग्राहक बनाना चाहते हैं. भांति-भांति की गिफ्ट स्कीमें उसी अभियान का हिस्सा हैं. यह आम शिकायत है कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों में देश का बड़ा ग्रामीण भाग उपेक्षित रहता है. अब अखबारों की सफलता का एक ही मापदंड है कि विज्ञापन कितने ज्यादा मिलते हैं. कितना ज्यादा मुनाफा होता है.

टीवी चैनलों की सफलता का मापदंड है उनका टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग पॉइंट्स) क्या है. अखबारों के लिए जरूरी है खबरों को चनाजोर गरम की तरह पेश करना और न्यूज चैनलों के लिए जरूरी है थोड़ी-थोड़ी देर के बाद सनसनी पैदा करना, हर समाचार को ब्रेकिंग न्यूज़ बताकर पेश करना और ‘एक्सक्लूसिव न्यूज़’ देने की होड़ में अफरातफरी और अव्यवस्था की स्थिति में सबसे पहले और सबसे तेज होने के फेर में सामान्य एहतियात भी नहीं बरतना. इनका शिकार होते हैं पत्रकारिता के उच्च मापदंड और व्यावसायिक नैतिकता. इस कारण मीडिया की विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा में भी ह्रास हुआ है.

संपादकाचार्य पराड़कर की भविष्यवाणी

संपादकाचार्य बाबू राव विष्णु पराड़कर ने स्वाधीनता पूर्व ही अखबारों के विकास और बढ़ती ताकत को भांपते हुए कहा था कि ‘आने वाले समय में पत्र सर्वांगसुंदर होंगे, मनोहर-मनोरंजक और ज्ञानवर्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे. लेखों में विविधता होगी, कल्पनाशीलता होगी, गंभीर गवेषण की झलक होगी और मनोहारिणी शक्ति भी होगी. ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जायेगी. यह सब होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे.’ हम चाहें तो इस प्राणहीनता की व्याख्या अपने-अपने ढंग से कर सकते हैं. लेकिन संपादकाचार्य ने जो भविष्यवाणी की थी वह एक पीड़ादायी सच्चाई है.

किसी समय समाचारपत्र के संपादक का एक बौद्धिक रुतबा, सामाजिक प्रतिष्ठा और नैतिक आभा हुआ करती थी. अखबार संपादक के नाम से चला करते थे. लेकिन यह अब गुजरे जमाने की बात हो गयी है. संपादकों का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया है. संपादक किसी भी पत्र या पत्रिका के वैचारिक व्यक्तित्व का केंद्र होता है, जब यह वैचारिक व्यक्तित्व ही नहीं रहे तो पत्र का व्यक्तित्व क्या रहेगा. दुनिया भर में संपादकों के अधिकार कम हुए हैं. आज संपादक नाम की संस्था का अस्तित्व तो बना हुआ है, लेकिन उसका स्थान गौण हो गया है.

आज पाठकों को भी इससे कोई सरोकार नहीं है कि पत्र का संपादक कौन है. पत्र प्रकाशन और संचालन के लिए पूंजी निवेश की क्षमता और व्यावसायिक कुशलता की आवश्यकता के कारण संपादक के बजाय संचालक का परमादेश चलना अपरिहार्य है. पत्र उद्योग की कठिनाई यह है कि यह प्रोडक्ट लागत से बहुत कम मूल्य पर बिकता है. विज्ञापन ही इसका वित्त-पोषण करते हैं. मुनाफे के लिए अखबारी घरानों में भीषण युद्ध जारी है. देश में कई अच्छे अखबार इसलिए बंद होते रहे हैं क्योंकि उनका आर्थिक पक्ष उनको चलाये रखने की अनुमति नहीं देता.

इन सब परिस्थितियों के बावजूद मीडिया की अहमियत बनी रहेगी, क्योंकि मीडिया जनता की एक ऐसी संसद है जिसका कभी सत्रावसान नहीं होता और यह देश व समाज की आवाज बने रहने में अपना योगदान करता रहेगा. इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के समाचारों का यदि तुलनात्मक विश्लेषण किया जाये तो यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रिंट मीडिया के समाचार ज्यादा तथ्यपरक, गंभीर और उपयोगी होते हैं.

जहां तक समाचारों की निष्पक्षता और यथार्थनिष्ठा की बात है, मीडिया पर ऊपर से नियंत्रण नहीं लगाया जा सकता. अनुशासन भीतर से आना चाहिए. मीडिया को स्वयं अपनी आचार संहिता विकसित करनी चाहिए. मीडिया की विश्वसनीयता और साख पर खतरा बाहर से उतना नहीं, जितना भीतर से है. ऐसी स्थिति में समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले मीडिया को आत्मनिरीक्षण, आत्मविश्लेषण और आत्मानुशासन की जरूरत है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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