Dr Ramdayal Munda’s Birth Anniversary, रांची न्यूज (आनंद राम महतो) : डॉ रामदयाल मुंडा की आज (23 अगस्त) जयंती है. रांची जिले के बुंडू देवड़ी गांव से डॉ रामदयाल मुंडा ने संसद तक का सफर तय किया. बुंडू अनुमंडल स्थित रांची टाटा मार्ग पर तमाड़ प्रखंड के देवड़ी गांव में आदिवासी परिवार में जन्मे डॉ रामदयाल मुंडा झारखंड ही नहीं पूरे देश में जनजातीय समुदाय में एक गहरी छाप छोड़ चुके हैं. जनजातीय सांस्कृतिक आंदोलन के जरिए उन्होंने देश-विदेश में अपनी विशेष पहचान बनायी थी. वे अमेरिका में प्रोफेसर की नौकरी त्यागकर वापस स्वदेश लौट आए. यहां उन्होंने झारखण्ड आंदोलन को सांस्कृतिक दिशा दी.
डॉ रामदयाल मुंडा कहते थे मुण्डारी में एक लोकप्रिय कहावत है- सेन गे सुसुन, काजी गे दुरांग, दूरी गे दुमंग अर्थात चलना ही नृत्य है और बोलना ही संगीत और शरीर ही मांदर है. आदिवासियों के लिए गीत, संगीत और मांदर को एक दूसरे का पूरक माना जाता है. आदिवासियों की इस अद्वितीय संस्कृति से दुनिया को परिचित कराने वालों में महान विद्वान, सांस्कृतिकर्मी एवं रंगकर्मी डॉ रामदयाल मुंडा का नाम आता है. डॉ मुण्डा का आदिवासी समाज में काफी सम्मान है. दक्षिण भारत हो, मध्य भारत हो या पूर्वोत्तर भारत. भारतीय राजनीति में आदिवासी नेतृत्व उभर नहीं पाया. उसकी भरपाई डॉ मुण्डा ने एक सांस्कृतिक नेता के रूप में की थी.
डॉ मुंडा के नेतृत्व में पहली बार काउंसिल इंडिया ट्राइबल लिट्ररेरी फोरम का गठन हुआ. वे इसके संस्थापक अध्यक्ष भी रहे थे. वे बहुभाषी विद्वान थे. इन्होंने अपने चिंतन को वृहद लेख के माध्यम से प्रस्तुत कर अमिट छाप छोड़ी है. उनका लेखन एक साथ अंग्रेजी, नागपुरी, हिन्दी और मुण्डारी भाषाओं में है. झारखण्ड के संदर्भ में वे आदिवासी सदान सांस्कृति के विद्वान और विश्लेषक माने जाते थे. उनकी आत्मा गीतों में बसती थी. मांदर, ढोल, नगाड़ों और बांसुरी में बसती थी. वे एक जादुई गायक और वादन प्रेमी भी थे.
हवाई जहाज में यात्रा करते समय लोगों को एक बैग साथ ले जाने के लिए अनेक कागजी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है, लेकिन वे ऐसे शख्स थे जो भारत से अमेरिका तक सौ नगाड़ों को ले जाकर दुनिया भर के रंगमंच पर आदिवासी सांस्कृति का प्रदर्शन किया था. उनका मुण्डारी में एक गाना है- सिंगी दोबू सियू: कामिया. अयुब नपंग दुमंग दंगोड़ी. अर्थात दिनभर हल चलाएंगे, काम करेंगे और रातभर मांदर की थाप होगी. यहां श्रम और आंनद दोनों है. लोग कोई कोश दूर जंगल और पहाड़ों से होकर रात में भी अखाड़ा में नृत्य-संगीत के लिए आते हैं. अपनी सहजीविता को मजबूती देते हैं.
आदिवासियों की जैविक आकांक्षाओं के साथ डॉ मुण्डा ने दुनिया से जीवन भर संवाद जारी रखा. विगत वर्षों में डॉ मुण्डा के जीवन पर आधारित फिल्म बनी नाची से बांची अर्थात जो नाचेगा वही बचेगा. यह डॉ मुण्डा का कथन संपूर्ण मनुष्यता के सांस्कृतिक परिष्कार का कथन है. झारखण्ड के रांची जिले के तमाड़ दिउड़ी से अमेरिका के मिनसोटा यूनिवर्सिटी की गौरवमयी यात्रा में डॉ मुण्डा ने उनके आदिवासियत के इस विचार को विस्मृत होने से बचाया और दुनिया के सामने उन्होंने आदिवासी दर्शन की व्याख्या प्रस्तुत की. लोग विदेश जाकर आदिवासियों की दरिद्रता या गरीबी की व्याख्या करते हैं लेकिन डॉक्टर मुण्डा ने उनके दर्शन और गौरव की बात रखी. जब तक वे अमेरिका में रहे एक संस्था की तरह रहे और आदिवासियत को प्रोत्साहित करते रहे, लेकिन उन्हें उनकी धरती हरदम अपनी ओर खींचती थी जिस कारण वे अमेरिका में प्रोफेसर की नौकरी त्यागकर वापस स्वदेश लौट आए. यहां उन्होंने झारखण्ड आंदोलन को सांस्कृतिक दिशा दी.
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सरहुल, करमा जैसे आदिवासी त्योहारों का सांगठनिक ढांचा तैयार किया. रांची में जनजातीय भाषा विभाग की स्थापना हुई और शोध कार्य हुए. पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा ने राज्य की संस्कृति और भाषाई शिक्षा को विश्वविद्यालय तक पहुंचाया. रांची विश्वविद्यालय रांची में जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा को मान्यता दिलाने में अहम योगदान रहा. जिसके लिए झारखंड के आदिवासी मूलवासी सदान वर्ग डॉ रामदयाल मुंडा का सम्मान करते हैं. डॉ रामदयाल मुंडा कई बार राजनीतिक दलों से सांसद व विधायक का चुनाव लड़े, लेकिन उनका स्थानीय मुद्दा झारखंड के आदिवासियों और मूलवासियों पर टिका रहा. झारखंड अलग राज्य की लड़ाई में भी उन्होंने उपवास से आमरण अनशन तक किया. डॉ रामदयाल मुंडा भले ही सांसद और विधायक नहीं बने लेकिन केंद्र सरकार ने कला के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए राज्यसभा का सांसद बनाया. पूरे भारत में जनजातीय समाज में पैठ रखने वाले डॉ रामदयाल मुंडा संसदीय कार्यकाल गंभीर बीमारी से पीड़ित के कारण पूरा नहीं कर सके और उनका निधन हो गया.
Posted By : Guru Swarup Mishra