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स्मृति शेष : कुछ अलग किस्म के थे मैनेजर पांडेय…

डॉ. मैनेजर पांडेय का निधन हिंदी साहित्य के लिए गहरी क्षति है. उनकी पहचान हिंदी साहित्य के गंभीर और विचारोत्तेजक आलोचक के रूप में रही है. अपने गांव, गोपालगंज जिले के पंचदेवरी प्रखंड के लोहटी से उनका हमेशा गहरा लगाव रहा. उनके निधन पर नामचीन साहित्यकारों ने उन्हें याद करते हुए नमन किया.

हिंदी के मूर्धन्य साहित्यालोचक डॉ मैनेजर पांडेय अब हमारे बीच नहीं हैं. बिहार के गोपालगंज जिले के एक गांव लोहटी में 23 सितंबर, 1941 को जन्मे मैनेजर पांडेय ने छह नवंबर, 2022 की सुबह दिल्ली में आखिरी सांस ली. इस तरह उन्होंने कोई 81 वर्षों का जीवन जिया. वह कहते थे, उनके परिवार में कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति नहीं था. यह तो उनके नाम से भी अभिव्यक्त होता है. पिता या जिस किसी ने उनका नाम रखा होगा, उनकी ख्वाइश होगी कि बालक मैनेजर जैसा पद-प्रतिष्ठा हासिल करे. बिहार में कलक्टर, जमींदार, सिपाही, दारोगा जैसे नाम खूब रखे जाते थे. दारोगा राय मुख्यमंत्री बने और कलक्टर सिंह केसरी और सिपाही सिंह श्रीमंत नाम के कवि भी हुए. कहते हैं, जन्म के समय परिवार को हजार रुपये की आमदनी होने के कारण द्विवेदी जी का नाम हजारी प्रसाद हो गया था. मैनेजर पांडेय नाम भी कुछ सोच-समझ कर ही रखा गया होगा.

मैनेजर पांडेय स्कूली शिक्षा पूरी कर बनारस आये और बीएचयू से उच्चतर शिक्षा पायी. लंबे समय तक वह दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग में प्रोफेसर रहे. इस बीच उन्होंने व्यवस्थित ढंग से काम किया और नामवर सिंह ने जिस दिशा में काम किया था, उसे आगे बढ़ाया. हिंदी साहित्य का पूरा ठाट कमोबेश भदेस -अभिजनवादी रहा है. हिंदी भाषा की जड़ें बोलियों में हैं और खड़ी बोली के रूप में इसका नगरीय रूप विकसित हुए बस सौ-सवा सौ साल हुए हैं. आधुनिक हिंदी साहित्य का भी यही समय है. ऐसे में मैनेजर पांडेय को हिंदी भाषा और उसके साहित्य का मिजाज समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई होगी.

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वह 19वीं सदी के रूसी साहित्यालोचक चेरनाशेव्स्की की तरह साहित्य को समाज के निकष पर परखने के आग्रही रहे और इसी क्रम में उनके साहित्य संबंधी विचारों का एक व्यवस्थित दस्तावेज पुस्तक रूप में 1982 में प्रकाशित हुआ ‘साहित्य के समाज शास्त्र की भूमिका’. 2005 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘आलोचना की सामाजिकता’ उसी की अगली कड़ी है. उनकी मौलिक किताबें एक दर्जन से अधिक होंगी. व्यावहारिक आलोचना पर भी उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किया है, लेकिन इन सबसे अधिक एक विद्वान शिक्षक के रूप में उन्होंने विशिष्ट छात्रों की ऐसी मंडली विकसित की, जो आज हिंदी साहित्य के चिंतन और आलोचना को चतुर्दिक समृद्ध कर रहे हैं.

मैं साहित्य का विधिवत विद्यार्थी कभी नहीं रहा, लेकिन प्रो पांडेय से निकटता 1980 के दशक से ही रही. राजनीतिक स्तर पर वह मार्क्सवादी चेतना के थे, लेकिन मेरे जानते नामवरजी की तरह वह किसी कम्युनिस्ट पार्टी के मेंबर कभी नहीं थे. सांस्कृतिक-बौद्धिक स्तर पर वह विवेकवादी थे. मुझसे मिलते, तो कभी-कभार बौद्ध धर्म दर्शन की चर्चा छेड़ देते और फिर देर तक बातें होतीं. एक दफा उन्होंने अपने इलाके के एक गांव हाथीखाल की चर्चा की और बताया कि वह गांव ही हत्तीगाम है,जहां बुद्ध ने अंतिम उपदेश दिया था. बुद्ध के निर्वाण स्थल कुशीनगर से कोई 40 किमी दूर स्थित इस गांव में उन्होंने रुचि लेनी शुरू की. उनके एक शिष्य (अब दिवंगत) केदार चौधरी थे, जिनका वह गांव था. वहां स्थानीय खुदाई में ग्रामीणों को बुद्ध की मूर्तियां मिली थीं. उस हाथीखाल गांव में ग्रामीणों ने बुद्ध का एक स्मारक बनवाया, एक भव्य जलसा हुआ, जिसमें देश-विदेश के अनेक बौद्ध भिक्षुओं के साथ मैं और बिहार सरकार के तत्कालीन मंत्री शिवानंद तिवारी शामिल हुए.

पूरे कार्यक्रम के पीछे पांडेय जी दत्तचित्त होकर लगे थे. अपने इलाके को बुद्ध से जोड़ कर वह उत्साहित थे. यह संभवततः 2001 की बात होगी. इसके पूर्व वह ऐसे ही उत्साहित थे, जब उन्होंने अश्वघोष की किताब ‘वज्रसूची’ पढ़ी थी. इस पर उन्होंने एक लेख भी लिखा था, जो हंस में प्रकाशित हुआ था. मनुस्मृति के साथ वज्रसूची की तुलना करते हुए वर्णाश्रम व्यवस्था पर उन्होंने जिस तरह से सवाल उठाये थे, वह आज भी उल्लेखनीय है. अश्वघोष की कृति सौंदरनंद और गीता पर उनसे बात की, तब खूब उत्साहित हुए. हम दोनों नेहरू को पसंद करते थे. बातचीत से ही पता हुआ था कि हम दोनों ने नेहरू को पटना के कांग्रेस अधिवेशन के समय 1962 में देखा था. मैं तब नौ साल का था और वह 21 के. साहित्य में बुद्धि-विवेकवाद के हम दोनों हिमायती थे.

तंग व कट्टर नजरिया चाहे मार्क्सवाद का ही क्यों नहीं हो, हम दोनों खारिज करते थे. इसलिए उनसे मिलने का उत्साह बना रहता था. पिछले वर्ष उनके 80वें जन्मदिन पर हुई एक अंतरराष्ट्रीय ऑनलाइन संगोष्ठी में उन्हें स्क्रीन पर ही देखा. इस बार जब वह बीमार पड़े और अस्पताल में भर्ती हुए, तब उम्मीद की थी कि वह ठीक हो जायेंगे और फिर उसी उत्साह के साथ मिलेंगे, लेकिन यह नहीं होना था. उन्होंने निराश किया, दुनिया को अलविदा कर दिया. उनके विद्वतापूर्ण कार्य, उनकी किताबें हिंदी साहित्य को दीर्घकाल तक निदेशित करती रहेंगी. हां, हिंदी के सांस्कृतिक जीवन में जो खालीपन आया है, उसे भरा नहीं जा सकेगा.

बिहार से उन्हें अथाह लगाव था, वह माटी से नहीं कटे

‘वंिगत मैनेजर पांडेय बड़ी छवि के सशक्त आलोचक थे. उन्होंने हिंदी के तकरीबन सभी जाने-माने नये और पुराने कवियों पर सारगर्भित आलोचनात्मक लेखन किया. बिहार आंदोलन के दौर में जन्मे कवियों की रचनाओं पर भी उनकी पैनी नजर थी. उन्होंने हिंदी के बड़े आलोचक मसलन डॉ नामवर सिंह, डॉ राम विलास शर्मा और हजारी प्रसाद द्विवेदी की विरासत को पूरी ताकत के साथ आगे बढ़ाया. यही नहीं, बड़ी ख्याति भी दिलवायी. उन्होंने आलोचना की विधा को बड़ी गरिमा दी.

वह कहा करते थे कि भाषा केवल लिखने-पढ़ने से आगे नहीं बढ़ती. भाषा आंदोलन से आगे बढ़ती है. दरअसल, भाषा आम लोगों के लिए किये गये संघर्ष और शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करने से मजबूत होती है. इस तरह वह लेखक के कृतित्व को महत्व देते थे. उन्होंने अपनी इस बात को ‘शब्द और कर्म’ जैसी कालजयी रचना में बड़े सशक्त ढंग से लिखा था. वह बड़े देशभक्त थे. उन्होंने पूरे जीवन भारत के पक्ष में लिखा. उनका एक-एक शब्द भारतीयता को मजबूत करता है. यह उनकी सबसे प्रमुख विशेषता थी. मैनेजर पांडेय को बिहार से अथाह लगाव रहा और यह स्वाभाविक भी था. बिहार उनकी माटी थी और वे इससे कभी कटे नहीं. हमेशा अपने गांव और पटना आते रहे. वह जब भी पटना आते, तो माध्यमिक शिक्षक भवन में ही रहते थे. वह तामझाम से बिल्कुल मुक्त रहे. उनका जीवन पूरी तरह आडंबरहीन था. वह साधारण आदमी के लेखक थे. यही नहीं, वह बहुत बड़े स्तर के शानदार अध्यापक भी थे. उन्होंने बरेली से पढ़ाने का काम शुरू किया. बाद में राजस्थान में पढ़ाया. उनके पढ़ाने का अंतिम पड़ाव जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय रहा. उन्होंने पढ़ाने के दौरान कई लोगों को पीएचडी करायी.

मैं हाल ही, जुलाई में उनसे मिलने दिल्ली गया था. तब उनकी पुत्री से मेरी मुलाकात हुई थी. उनके देहांत से समूचा साहित्य जगत शोक-संतप्त है. यह साहित्य जगत का बड़ा नुकसान है. उनकी मौत से मैं मर्माहत हूं. मैं कई बार मिला. उनकी यादें मेरे लिए विरासत हैं. वह बिहार के गौरव थे. उन्हें मेरी और से सादर श्रद्धांजलि है. हां, यह सच है कि हिंदी ने एक बहुत बड़े लेखक को खो दिया है.

समाजशास्त्रीय विचारों को साहित्य से जोड़ा

वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडेय का निधन हिंदी साहित्य के लिए दुखद घटना है. हिंदी आलोचकों में उनका नाम बहुत ऊंचे स्तर पर था. उनका लेखन अमिट रहेगा. उन्होंने हिंदी आलोचना के क्षेत्र में बड़ा काम किया. उनका सारा लेखन ही महत्वपूर्ण है. उन्होंने भक्ति कालीन साहित्य को नये ढंग से पढ़ने और समझने की राह दिखायी. विशेष रूप से हिंदी साहित्य में समाजशास्त्रीय आलोचना की गंभीर शुरुआत की. नये साहित्य को पढ़ने की उनकी तरफ से दी गयी यह बड़ी दृष्टि दी थी. इसके लिए उन्हें हमेशा याद रखा जायेगा.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि दिवंगत पांडेय ने क्रांतिकारी विचारों को साहित्य से जोड़ने में बड़ी भूमिका निभायी. साहित्य को समझने और जानने में उनके द्वारा किया गया यह बड़ा बदलाव उनके लेखन से ही आया. यह उनकी बड़ी देन है. उन्होंने हिंदी आलोचना के क्षेत्र में बिहार से आगे जाकर राष्ट्रीय पहचान बनायी. नलिन विलोचन शर्मा, डॉ सुरेंद्र चौधरी और डॉ नागेश्वर लाल जैसे सशक्त आलोचकों के अलावा मैनेजर पांडेय उन आलोचक लोगों में थे, जिन्हें राष्ट्रीय ख्याति मिली. उन्होंने अपने कृतित्व से बिहार को गौरवान्वित किया. उनकी प्रतिष्ठित रचनाओं में ‘साहित्य और इतिहास’ और ‘शब्द और कर्म’ रही. ये दोनों रचनाएं कालजयी हैं.

हालांकि, उनका समूचा लेखन ही आलोचना साहित्य की धरोहर है. इससे उनकी साहित्यिक प्रखरता का अंदाजा लगाया जा सकता है. उन्होंने आलोचना को नयी शैली दी. उनका व्यक्तित्व बेहद सरल और सशक्त था. वह संवेदनशील साहित्यकार के रूप में याद रखे जायेंगे. सबसे बड़ी बात यह है कि वह बिहार को कभी नहीं भूले. वह अक्सर पटना आते थे. उनसे हुई मुलाकातें हमारे जेहन में हमेशा बनी रहेंगी. वह अपने युग के बड़े लेखक थे. उनके निधन की खबर साहित्य जगत के लिए दुखभरी घटना है. उन्हें नमन है. उन्हें सादर श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं. उनका देहांत साहित्य जगत की यह अपूरणीय क्षति है.

नदी पार कर स्कूल जाया करते थे

हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ आलोचक प्रो डॉ मैनेजर पांडेय के जीवन संघर्ष की दास्तां उनके पैतृक गांव गोपालगंज जिले के पंचदेवरी प्रखंड के लोहटी में सबकी जुबान पर है. इस गांव में गिने-चुने लोगों का ही शिक्षा से ताल्लुक रहा है. ऐसे गांव से निकलकर डॉ पांडेय ने जेएनयू तक का सफर तय किया और पूरे देश में अपनी एक अलग पहचान बनायी. गांव की बगल में राजापुर प्राथमिक विद्यालय व बगही मध्य विद्यालय से प्रारंभिक शिक्षा ली़ इसके खुरहुरिया हाइस्कूल में नामांकन हुआ. गांव से इस स्कूल की दूरी करीब 10 किमी थी. बीच में सोना नदी थी. कभी-कभी गर्दन भर पानी पार कर विद्यालय जाना पड़ता था, लेकिन वह प्रतिदिन विद्यालय जाया करते थे.1959 में उन्होंने मैट्रिक परीक्षा पास की. बीच में उन्हें पढ़ाई भी छोड़नी पड़ी थी, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. बीएचयू से पीएचडी करने के बाद 1969 में बरेली कॉलेज बरेली में उनकी नौकरी हुई. उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.

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