दिनेश दिनमणि : महान प्रकृति पर्व ‘करमा’ में मुख्यतः चार महत्वपूर्ण और अनिवार्य तत्त्व हैं- जावा डाली, करम डाइर, अनगिनत जावा गीत और करमा-धरमा की धर्मकथा. समस्त पर्व में इन तत्त्वों की अवसरगत महत्ता है. जावा डाली इस पर्व का प्राणतत्त्व है. गीत इसकी प्राणवायु हैं. करम डाइर मानो आत्मा है तो करमा-धरमा की कथा उसके विश्वास की धुरी. जैसा कि विदित है, जावा डाली झारखंड की बहनों द्वारा विधि विधान से नदी के बालू में एक उथरी टोकरी में सघन रूप से बुने गए बीजों के अंकुरण और प्रारंभिक पल्लवन का नाम है. कर्मा एकादशी के नौ दिन, सात दिन या पांच दिन पूर्व जावा डाली के उठाने की क्रिया होती है. बांस की छोटी नयी टोकरी में बीजों के अंकुरण की परंपरा को सतही दृष्टि से देखने से हमें यह कृषक कन्याओं का बाल सुलभ खेल-कौतुक सा लगता है. पर इस महानतम पर्व के इस प्राण तत्त्व का अर्थ इतना उथला नहीं है. इसके निहितार्थ में गहरा दर्शन समाहित है.
कन्याएं ही क्यों उठाती हैं डाली?
वस्तुतः जावा डाली के द्वारा हम बीजों की अभ्यर्थना करते हैं. बीज, जो कि सृष्टि का आधार हैं. जैव जगत की निरंतरता के लिए बीज और वीर्य की अनिवार्यता स्वयं सिद्ध है. इसी सार्वभौमिक, सार्वकालिक शाश्वत सत्य को जावा डाली के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है. इस पर्व में डाली उठाने का कार्य कन्याएं ही करती हैं. इसके पीछे भी एक गूढ़ रहस्य निहित है. कन्याएं धरतीस्वरूपा हैं. बीज धारण करने की क्षमता धरती में होती है और वीर्य धारण कर सृष्टि को आगे बढ़ाने का सामर्थ्य नारी में है. इस शाश्वत सत्य को सांकेतिक तौर पर कन्याओं को बताया जाता है. जावा डाली इसी सत्य का प्रतीक है. मालूम हो कि जावा डाली में अधिकतम नौ प्रकार के बीजों के वपण का विधान है. नौ सबसे बड़ी मूल संख्या होने के कारण पूर्णता का द्योतक है. अर्थात् जावा डाली में समस्त बीजों की अभ्यर्थना की जाती है. बीजों में निहित शक्ति और उसकी महिमा का वंदन किया जाता है. करम पर्व का पहला गीत “इति- इति जावा किया-किया जावा…सेहो रे जावा एक पाता सइ रे..” बीज की महत्ता को निरूपित करता है.
करम डाइर की अनिवार्यता और करमा-धरमा की कहानी
इस पर्व का दूसरा अनिवार्य तत्त्व है करम डाइर. उपवास की रात अखरा में ‘करम’ वृक्ष की डाली को स्थापित किया जाता है. इसका निहितार्थ स्पष्ट है, भाइयों को, अर्थात् पुरुष वर्ग को अपने कर्मों-दायित्वों के प्रति गड़े करम डाल की तरह अडिग रहना, जीवन के कर्मों के प्रति सदैव प्रतिबद्ध रहना. उपवास की रात को करम अखरा में वाचन-श्रवण की जानेवाली ‘करमा-धरमा’ की लोक कथा इस महान पर्व की धर्मकथा है. इसमें निहित संदेश शाश्वत जीवन-दर्शन से युक्त है. इसमें बताया गया है कि मानव जीवन में कर्म के साथ धर्म का समन्वय आवश्यक है. केवल कर्म से हम भौतिक परिणाम तो पा सकते हैं, पर कर्मों को यदि नीति-आदर्श से हीन कर दें तो उसकी कोई महत्ता नहीं रह जाती है. धर्महीन व्यक्ति की उपयोगिता नष्ट हो जाती है, उसका जीवन विकृत-विद्रूप हो जाता है. कथा में करम गोसाईं के रूठ कर ‘सात समुंदर टापुपार’ चले जाने का प्रसंग भी हमें धर्मविहीन जीवन में खुशियों के रूठ जाने की प्रतीकात्मक सीख देता है.
यों तो इस पर्व को भाई-बहन के नैसर्गिक और पावन प्रेम की उत्सवीय अभिव्यक्ति के रूप में भी देखा जाता है. पर यह इसका अनुषंगी निहितार्थ है. इसके मूल में सृष्टि की निरंतरता में बीज और वीर्य तथा धरती और कोख की महत्ता की सांकेतिक शिक्षा भी है. साथ ही निहित है, मानव मात्र का प्रकृति से अटूट संबंध और उसके सामाजिक जीवन में कर्म और धर्म के संतुलन-समन्वय की अनिवार्यता का महान संदेश.