खेती-किसानी में झारखंडी युवा कमाल दिखा रहे हैं. इसमें राजधानी और आसपास के युवा भी शामिल हैं. भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान रांची के महेंद्र सिंह धौनी भी खेती करा रहे हैं. उत्पाद तैयार कर बाजार में बेच रहे हैं. आज के दौर में फसलों के उत्पादन के साथ उसकी गुणवत्ता पर भी जोर रहता है. ऐसे में युवा सब्जी, दूध, मछली आदि आइटम भी अलग-अलग विधियों से तैयार कर बाजार में बेच रहे हैं.
इससे उत्पादों की कीमत में भी अंतर हो रहा है. नयी तकनीक और सोच के इस्तेमाल से हालात बदल रहे हैं. राजधानी के आसपास ही कई युवा जमीन की व्यवस्था कर खेती, पशुपालन या मत्स्य पालन कर रहे हैं. किसान कई प्रकार का प्रयोग भी कर रहे हैं. झारखंड में भी खेतीबारी के तरीके व तकनीक में बदलाव हो रहा है.
रातू स्थित फन कैसल परिसर में कुछ युवा मिलकर बायोफ्लॉक विधि से मछली का पालन कर रहे हैं. यह झारखंड में पहला व्यावसायिक प्रयोग है. एक साल में ही युवाओं ने विभिन्न प्रजाति की 35 से 40 टन मछली तैयार कर ली है. इस विधि में मछली का पालन एक बड़े ड्रम में होता है.
अलग-अलग ड्रम में मछली को खाना देकर विकसित किया जाता है. किंग फिशर नाम से इस व्यवसाय को शुरू करनेवाले निशांत एमबीए हैं. इनके साथी अनूप और अक्षत मिश्र भी दूसरे क्षेत्र के कारोबारी हैं. अब मिलकर मछली पालन में काम कर रहे हैं. इनकी योजना रिवराइन फिश फॉर्मिंग (आरएफपी) में भी जाने की है. इसके अतिरिक्त बॉयोफ्लॉक को भी बढ़ावा देना है. अभी इनके यहा फांगिसिय, तेलफिया, रेहू, कतला, सिल्वर क्रॉप आदि मछली हैं. इसमें इनको विभागीय सहयोग भी मिल रहा है.
तोरपा चंद्रपुर गांव के मंगरा भेंगरा आदित्य बिड़ला ग्रुप में कस्टमर केयर सर्विस में नौकरी करते थे. नौकरी से मन संतुष्ट नहीं था. मन नहीं लग रहा था, तो गांव आकर खेती शुरू की. अब लाखों रुपये कमा रहे हैं. उनके पास खेती लायक अपनी जमीन बहुत कम है. इसलिए उन्होंने गांव के अन्य लोगों की पांच एकड़ जमीन लीज पर लेकर खेती शुरू की.
इस काम में उनके भाई सुखराम भेंगरा भी पार्टनर हैं. दोनों मिलकर मेहनत कर तरबूज के अलावा फूलगोभी, ब्रोकली आदि सब्जी की खेती कर प्रति वर्ष लाखों रुपये की आय कर ले रहे हैं. सब्जी और तरबूज को टाटा, रांची, ओड़िशा आदि के व्यापारियों को बेचते हैं. इनके उगाये तरबूज नेपाल भी जाते हैं.
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झारखंड के युवा किसान प्रयोगधर्मी भी हैं. राजधानी के नगड़ी के चिपड़ा गांव के किसान तुलसी महतो को भारतीय कृषि अनुसंधान प्रबंधन अकादमी, हैदराबाद ने बेस्ट इनोवेटिव फॉर्मर्स का अवार्ड दिया है. तुलसी कहते हैं – देसी बकरी पालन से लाभ नहीं मिल पाता था.
साल में एक बकरी से सात-आठ किलो ही वजन मिल पाता था. 2016 में ब्लैक बंगाल नस्ल का प्रशिक्षण लेने के बाद नया प्रयोग शुरू किया. तीन साल में ही दो बकरियों ने 14 बच्चे दिये. आठ बकरियों का औसत वजन 10 किलो से अधिक रहा. इससे अधिक कीमत भी मिली.
Posted By : Amitabh Kumar