मेगालिथ या महापाषाणों की जब भी बात उठती है तो पुरातत्वविद् और इतिहासकार विदर्भ से दक्षिण भारत या फिर पूर्वोत्तर राज्यों की ही बातें करते हैं. मगर, झारखंड में मेगलिथ या महापाषाणों का एक विशाल भंडार है, इसका उल्लेख वे नहीं करते हैं लेकिन झारखंड विश्व का एक ऐसा राज्य है, जहां आदिवासी अति प्राचीन काल से आज तक उनके मृतक के शव या उनके अवशेषों पर पत्थरों का कब्र का निर्माण या मृतक की याद में लंबे पत्थर गाड़ते हैं, जिन्हें मेगालिथ या महापाषाण कहा जाता है. मेगालिथ शब्द की उत्पत्ति दो यूनानी शब्दों ‘मेगा’ जिसका अर्थ है ‘बड़ा’ और ‘लिथ’ यानी ‘पत्थर’ से मिलकर बना है.
झारखंड के 32 आदिवासी समूहों में आज सिर्फ उरांव, हो, असुर, भूमिज और मुंडा जातियों के लोग ही मृत्यु के उपरांत पत्थर गाड़ते हैं. संतालों में भी केयर्न रूपी मेगालिथिक कब्र बनाने की प्रथा है. प्रत्येक आदिवासी गांवों में उनकी श्मसान-भूमि है, जिसे वे अपनी ऑस्ट्रो -एशियाटिक भाषाओं में हरगड़ी, हरसली, मसान या ससान इत्यादि कहते हैं. मृतक के शव को जलाने के पश्चात उनके कुछ हड्डियों को एक छोटे घड़े में डाल कर हरगड़ी में गाड़ा जाता है. उसके पश्चात मृतक के परिवार जन उन हड्डियों पर पत्थरों का डोलोमेन बनाते हैं, जिसे ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषाओं में ‘ससंदिरी’ कहते हैं. ससंदिरी में एक सपाट पत्थर जिसे कैपस्टोन कहा जाता है. चार या अधिक छोटे पत्थरों जिसे ऑर्थोस्टेट कहते हैं, पर रखा जाता है. बहुत-सी हरगड़ियों में मृतक की हड्डियों वाली गड़े घड़े पर केवल एक सपाट पत्थर का स्लैब रखा जाता है जिसे भी ससंदिरी कहते है. गाड़े हुए खड़े पत्थरों को जिसे पुरात्तत्व की भाषा में मेनहिर कहते हैं आदिवासियों कि ऑस्ट्रिक भाषाओं में उसे ‘बिरदिरी’ कहा जाता हैं.
भारत देश में मेगालिथों का प्रथम खोज का श्रेय अगर अंग्रेजों को जाता है तो झारखंड राज्य के महापाषाणों का पहला खोज का सम्मान भी उन्हें ही जाता है. झारखंड के महापाषाणों की खोज करने वाला पहला व्यक्ति एक अंग्रेज सब-डिप्टी एजेंट टीएफ पेपे थे, जिन्होंने लोहरदगा, जपला, चोकाहातु, बरंडा इत्यादि स्थानों पर महापाषाणों की पहचान की थी. परंतु महापाषाणों पर लिखने वाले सर्वप्रथम संभवत: कर्नल इटी डाल्टन थे. डाल्टन उस समय चुटियानागपुर (आज के छोटानागपुर) के कमिशनर हुआ करते थे और तब ही पेपे ने डाल्टन साहब को रोंगसो, चोकाहातु, बरांडा इत्यादि स्थानों में आदिवासियों के प्राचीन श्मसान के विषय में जानकारी भेजी.
1872 के जनवरी माह की एक दोपहर में डाल्टन साहब अपने सहायकों को लेकर चोकाहातु पहुंचे और तुरंत ही उन्होंने अपने लोगों को स्थल की नापी और कब्रों की गिनती करने का निर्देश दिया. चोकाहातु मेगालिथ स्थल की नापी में यह साइट 22 बीघा 16 कट्ठा से भी अधिक जमीन में फैला हुआ पाया गया और इसमें करीबन 8000 मेगालिथ (समाधिपत्थर वाले) महापाषाण मिले. डाल्टन ने इस लेख में चोकाहातु को 2000 वर्षों से भी प्राचीन माना है और मुंडारी शब्द चोकाहातु का अर्थ उन्होंने ‘शोक मनाने का स्थान’बताया है.
90 के दशक के अंतिम वर्षों में झारखंड के मेगलिथ पर मैं अपना शोध शुरू कर चुका था. अतः मुंडाओं के चोकाहातु के विशालकाय मेगालिथिक साइट को देखने एवं इस पर शोध करने के लिए 90 दशक के अंत में पहुंचा. चोकाहातु मेगालिथिक हरगड़ी का प्रथम दर्शन करना मेरे लिए एक चकित कर देने वाला अनुभव रहा. स्थल के बीचोंबीच खड़े हो कर मैं मानो पत्थरों के एक विशालकाय जंगल में खो गया था.
स्थल की निगरानी करने पर मुझे काफी संख्या में ससंदिरी, बरियल स्लैब्स(समाधिपत्थर वाले) और कुछ बिरदिरी मेनहिर दिखे. कुछ ससंदिरियों की आकृति इतना बड़ी है कि देखने वाले अचंभित हो जाते हैं. एक ससंदिरी के कैप्स्टोन की लंबाई 15 फीट तीन इंच और चौड़ाई साढ़े चार फीट की है, जिसे पांच ऑर्थोस्टेट पत्थरों पर रखा गया है. एक और ससंदिरी की सेंटरस्टोन की लंबाई 18 फीट है, जिसे सात पत्थरों पर रखा गया है. यहीं पर एक बेरियल स्लैब ससंदिरी की लंबाई है 16 फीट, चौड़ाई साढ़े छ: इंच और मोटाई एक फुट की. एक दूसरी स्लैब की लंबाई है 12 फीट नौ इंच और चौड़ाई नौ फीट 10 इंच है. इन पत्थरों को शायद हेसाडीह और बरांडा बुरु पहाड़ियों से लाया गया होगा . डाल्टन साहब ने लिखा है कि बरांडा साइट के कुछ बरिअल स्लैब्स चोकाहातु के स्लैब्स से भी बड़े हैं.
कुछ पत्थरों की ऊपरी सतह पर मुझे छोटे छोटे गोलाकार गड्ढे मिले, जिसे पुरातत्त्व की भाषा में कैप्सूल कहते हैं, कोई नहीं जानता है कि प्राचीन लोग इसे क्यों बनाते थे. स्थल पर मुझे काफी सारे हर्बल औषधीय पौधे भी दिखे. गांव वालों ने मुझे बताया कि आज भी इस विशालकाय स्थल पर इस गांव और आसपास के मुंडा जाति के लोग यहां ससंदिरी गाड़ते हैं. मुझे आधुनिक काल के ससंदिरियों को देखने ले जाया गया. मैंने पाया कि वर्तमान ससंदिरि बरियल्स के लिए एक अलग स्थान ही बनाया गया है. आज के ससंदिरियां छोटे आकार की हैं और उनके कैप्सटोन पर हिंदी अक्षरों में मृतक का नाम इत्यादि उकेरा हुआ है. इन समकालीन मेगालिथ को देखकर मैं आश्चर्यचकित हो गया कि चोकाहातु दो हजार वर्षों के अधिक काल से आज तक उपयोग में लाया जा रहा है.
अगर वर्ष 1872 में चोकाहातु 22 बीघा 16 कट्ठा में फैला हुआ था तो आज इसके फैलाव में निश्चित ही वृद्धि हो चुकी होगी और आज यहां मेगालिथ की संख्या 8000 से कहीं अधिक हो गयी होगी. डाल्टन साहब ने लिखा है कि प्राचीन समय में इस स्थल पर केवल इसी गांवों के मुंडा जाति के लोग ही नहीं अपितु नौ और गांवों के मृतकों को गाड़ने की भी यहां जगह मुहैया की गयी थी.
इस स्थल का इस्तेमाल प्राचीन काल से आज तक का होने से इसे एक जीवंत विरासत(लिविंग हेरिटेज) का दर्जा प्राप्त हो सकता है और इस कारणवश इस स्थल का यूनेस्को के विश्व धरोहर बनने की पूरी संभावना इसमें निहित है.
अगर पुरात्तत्व विभाग चोकाहातु की इस प्राचीन मेगालिथिक हरगड़ी की खुदाई करता है तो राज्य के इतिहास में यह एक नया मोड़ लाएगा. खुदाई होने से यहां के दफनाने की प्राचीन विधियों का पता चलेगा और इस स्थल की वैज्ञानिक डेटिंग भी संभव हो पायेगी.
(लेखक एक जानेमाने लेखक और झारखंड के मेगालिथ शोधकर्ता हैं)