झारखंड बचाओ मोर्चा के संयोजक सह इंटरनेशनल संताल काउंसिल के कार्यकारी अध्यक्ष नरेश मुर्मू ने कहा है कि पारसनाथ मामले में राज्य और केंद्र सरकार, दोनों के निर्णय गलत हैं. पारसनाथ आदिवासियों का मरांग बुरू है और वहां के जाहेरथान में लोग सदियों से पूजा-अर्चना करते आये हैं. यह संताल समुदाय का सबसे पुराना पूजा स्थल है. इसलिए केंद्र व राज्य सकार को आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को नजर में रखते हुए विचार करना चाहिए.
वे पुराने विधानसभा सभागार में पत्रकारों से बात कर रहे थे. झामुमो विधायक लोबिन हेम्ब्रम ने कार्यक्रमों की घोषणा करते हुए कहा कि अपनी धरोहर को बचाने के लिए आदिवासी आर-पार की लड़ाई के लिए तैयार हैं. 10 जनवरी को पारसनाथ में पूरे देश पर के आदिवासी जुटेंगे और बड़ी सभा की जायेगी. मोर्चा ने केंद्र व राज्य सरकार को 25 जनवरी तक अल्टीमेटम दिया है. यदि सरकार ने हमारे मांगे नहीं मानी, तो 30 जनवरी को बिरसा मुंडा की धरती, उलिहातू और दो फरवरी को भोगनाडीह में उपवास पर बैठेंगे.
मौके पर अजय उरांव, एलएम उरांव, सुशांतो मुखर्जी, निरंजना हेरेंज टोप्पो, मरांग बुरु सुसेर बैसी के सिंकदर हेम्ब्रम, बिमवार मुर्मू, संताल समाज के परगना बाबा कुनेराम टुडू, सुरेंद टुडू व अन्य मौजूद थे. नरेश मुर्मू ने कहा कि आदिवासी इस देश के मूलनिवासी हैं और उनके आने के हजारों साल बाद ही आर्य आये. सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि आदिवासी भारत के मूल निवासी हैं. कुछ सदी पहले जैन मुनी यहां तप करने आये, जिनका निधन हो गया, वहां उनकी समाधि बना दी गयी. पर इसका अर्थ यह नहीं कि पूरा पारसनाथ ही जैनियों का हो गया.
बिहार, हजारीबाग गजट 1957 में यह उल्लेखित है कि मारंग बुरु/पारसनाथ संताल समुदाय का पवित्र स्थान है. इसमें यह भी कहा गया है कि बैशाख की पूर्णिमा के समय वहां संताल समुदाय का तीन दिवसीय सम्मेलन होता है, जिसमें पूरे देश से आदिवासी जुटते हैं. 1911 में हमें रेकार्ड ऑफ राइट मिला है. जैन समुदाय इसके खिलाफ कोर्ट गया था. निचली अदालत से ऊपरी अदालत तक उनके दावे को खारिज कर दिया गया.
यह गजट में प्रकाशित है. प्रिवि काउंसिल ने भी हमारे पक्ष में निर्णय दिया, हमारे कस्टम को मान्यता दी. हमें शिड्यूल एरिया के तहत और संविधान के आर्टिकल 244 के तहत अपने कस्टम के अनुपालन का अधिकार दिया गया है. आर्टिकल 13 हमें अपनी रूढ़ी- प्रथा के अनुपालन की आजादी देता है. आदिवासी कस्टम में हम हड़िया भी पूजते हैं और बलि भी चढ़ाते हैं.
झारखंड सरकार ने भी 2003 में हमारी व्यवस्था को मान्यता दी है. बलि को भी मान्यता दी गयी है. वर्तमान फैसले से पूरे बिहार, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल व असम के साथ साथ नेपाल, बांगलादेश व अन्य जगहों पर रह रहे आदिवासी भी उद्वेलित हैं. केंद्र व राज्य सरकार फैसले पर पुनर्विचार करे. यह उल्लेख करे कि यह आदिवासियों का धार्मिक स्थल है.