जीवेश रंजन सिंह
पत्रकारिता चाहे किसी भी काल की रही हो, हमेशा से दुरुह रही है. इसमें भी अगर ग्रामीण पत्रकारिता की बात करें, तो यह दोधारी तलवार पर चलने के समान है. रोज कुछ लोग दुआ देते हैं, तो बददुआ देने वालों की संख्या कई गुणा अधिक होती है. तमाम दावे-प्रतिदावे के बाद भी आज बुनियादी समस्याओं से जूझ रहे गांव-कस्बों के लोगों के लिए उम्मीद की आखिरी किरण हैं गंवई पत्रकार, तो अखबारी व्यवस्था में सबसे मजबूत कड़ी भी यही हैं. झारखंड में ग्रामीण पत्रकारिता ने एक मुकाम बनाया है, तो इसे परवान चढ़ाने का श्रेय प्रभात खबर को जाता है.
अग्रसोची प्रभात खबर ने हमेशा भविष्य पर निगाह रखी, उसी के हिसाब से अपनी योजनाएं बनायी और दिल से उसका क्रियान्वयन किया. उसी का नतीजा है कि तमाम प्रतिस्पर्द्धा के बावजूद आज भी झारखंड की धड़कन प्रभात खबर ही है. आज जब प्रभात खबर ने 40वें वर्ष में प्रवेश किया है, तो इसको पल्लवित-पुष्पित करने के लिए जी-जान लगा देनेवाले झारखंड के गांव-गांव में फैले प्रभात खबर के हजारों ग्रामीण पत्रकारों (कुछ अब नहीं रहे) के पसीने की खुशबू दिल-ओ-दिमाग पर छा जाती है. एकीकृत बिहार के काल में पिछड़े इलाके (दक्षिणी छोटानागपुर) की बात हो या फिर अलग राज्य झारखंड बनने के बाद की परिस्थितियां, हर वक्त अपनी जवाबदेही का सफल निर्वहन किया है गांव के पत्रकारों ने.
दौड़ती-भागती दुनिया से कदमताल में भी आगे
कभी कांधे पर झोला लटकाये कागज-कलम लिये गांवों की पगडंडियों पर कई-कई किलोमीटर चल खबरों से इतर खबर की तलाश करती गंवई पत्रकारों की टोली ने भले आर्थिक मामलों में बहुत तरक्की नहीं की, पर दौड़ती-भागती दुनिया से कदमताल करने में तकनीक के मामले में वो किसी से कमतर नहीं. खास कर सोशल मीडिया और मोबाइल ने इसे और आसान बना दिया है. आज जब ब्रेकिंग और बिग ब्रेकिंग खबरों का दौर चल रहा है, वैसे में बिना किसी शोर-शराबे के गांव के पत्रकार अपने सामान्य से मोबाइल फोन के सहारे बड़ी से बड़ी घटनाओं का खुलासा कर देते हैं.
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आर्थिक मोर्चे पर भी अलग पहचान बनायी
अब गांवों का शहरीकरण हो रहा है. सरकारी योजनाओं के सहारे गांव भी आर्थिक तौर पर मजबूत हो रहे हैं. ऐसे में सभी आर्थिक मोर्चे पर भी गांवों में मजबूती की तलाश कर रहे. बड़ी कंपनियों की बात हो या फिर सरकार की, सभी गांव की ओर हैं. गांवों में इंवेस्टमेंट बढ़ गया है. विज्ञापनों पर नजर डालें, तो गांवों से सरोकार रखते विज्ञापनों की बहुतायत है, ऐसे में ग्रामीण पत्रकारों के कांधे पर मीडिया हाउसों को आर्थिक मजबूती देने की भी अतिरिक्त जवाबदेही आ गयी है. पर यह जुनून ही है कि इस मोर्चे पर भी शहरों में रहने वाले अर्थव्यवस्था के जानकारों से कहीं ज्यादा सुलझे व सहज तरीके से गांव के पत्रकारों ने अपने-अपने संस्थानों के लिए जवाबदेही संभाली है.
झारखंड की ग्रामीण पत्रकारिता में तकनीक की बयार बना प्रभात खबर
ग्रामीण पत्रकारिता के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा संसाधनों का अभाव रहा है. पर इसमें बदलाव की बयार लाने का काम किया है प्रभात खबर ने. शुरुआती काल में डाक द्वारा कई-कई दिनों बाद खबरें चल कर आती थीं. झारखंड के जंगलों में बसे गांवों की बातें वहां के मुख्यालय में भी पहुंचने में कई दिन लगते थे, उस काल में प्रभात खबर ने झारखंड के सबसे पिछड़े जिले पलामू में कार्यालय की स्थापना की. वहां कंप्यूटर लगाया गया और कोई बाहर का आदमी नहीं गया, वहीं के लोगों को ट्रेंड किया गया.
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धीरे-धीरे यह क्रम बढ़ता गया और दुमका, चतरा और फिर तत्कालीन दक्षिणी छोटानागपुर-संथाल परगना (अब झारखंड) के सभी 18 जिलों में प्रभात खबर के कार्यालय बने. मीडिया की दुनिया के तब के बड़े जानकारों ने इसे हास्यास्पद बताया था, पर इस प्रयोग की धमक ऐसी रही कि प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थान माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल ने अपनी पत्रिका में इस प्रयोग की कहानी पर वर्ष 2001 में विशेष रिपोर्ट छापी थी. शहरीकरण के इस दौर में भी गांव को जीने और उसकी पत्रकारिता को प्रतिबद्ध प्रभात खबर आज भी ग्रामीण पत्रकारिता की पाठशाला बना हुआ है.
एक से बढ़ कर एक मामले आये, पर डिगी नहीं ग्रामीण पत्रकारिता
एकीकृत बिहार में पलामू सुखाड़ और अकाल का स्थायी घर था. 1966-67 के बाद वर्ष 1991-92 में पलामू में भीषण अकाल पड़ा, तो इलाके में प्रभात खबर न सिर्फ राहत के लिए आगे आया, बल्कि अकाल को मुद्दा बना कर इस राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा भी बनाया. अकाल और भूख के मुद्दा पर प्रभात अखबार ने जनपक्षीय पत्रकारिता को धार प्रदान की. ग्रामीण स्तर की पत्रकारिता किस तरह राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर पहचान स्थापित कर सकती है, इसका सशक्त उदाहरण प्रभात खबर ने पेश किया. ग्रामीण पत्रकारिता को लेकर प्रभात खबर ने कई तरह के प्रयोग किये, तो खास पर बट्टा भी नहीं आने दिया. अलग झारखंड राज्य बनने के बाद बालूमाथ प्रखंड में पुलिस द्वारा नक्सलियों के दो बंकरों को उड़ाये जाने का मामला हो या फिर चतरा के घने जंगल में जनअदालत में आमजन का गला रेत कर मार डालने का मामला, सिमडेगा की विधवा को पति की मौत पर समाज से निकाल देने की घटना हो या फिर कोयले के अवैध खनन में दब कर मर जाने वाले गरीबों की पहचान छुपा देने का मामला, हर जगह प्रभात खबर के ग्रामीण पत्रकारों की टोली ने अपनी लेखनी के बल पर सच को सच कहा और न्याय का परचम लहराया. यह कहने में कहीं गुरेज नहीं कि मजबूरियों व सीमाओं की दोधारी तलवार के बीच भी प्रभात खबर के ग्रामीण पत्रकारों ने मुद्दा आधारित नयी तरह की पत्रकारिता की और रोज उसे धार चढ़ा रहे हैं.
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जरूरत है ग्रामीण पत्रकारिता को सुरक्षा देने की : ग्रामीण पत्रकार मानसिक रूप से सबल हैं, पर आज भी सामाजिक रूप से निर्बल हैं, क्योंकि शहरों की तुलना में उनकी सुरक्षा की गारंटी कम है. यह उनकी चुनौतियों को दोगुना कर देता है. कलमवीर ग्रामीण पत्रकार भले खुद से नहीं डरें पर उन पर स्थानीय राजनीतिक व प्रशासनिक दबाव का संकट बना रहता है. इसलिए उनकी सुरक्षा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. जिस तेजी से ग्रामीण इलाकों में निवेश की प्रवृत्ति बढ़ी है, वैसे में पैसे की छाया में बढ़ती आपराधिक गतिविधियों से उन्हें भी ढाल की जरूरत है. इस ओर गंभीर प्रयास से कलम की धार और तेज होगी.
(लेखक प्रभात खबर धनबाद के स्थानीय संपादक हैं.)