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रिनपास रांची को 16 वर्षों से नहीं मिल रहा स्थायी निदेशक, हर साल एक लाख से अधिक मरीजों का होता है इलाज

कांके स्थित रिनपास रांची को 16 साल से स्थायी निदेशक नहीं मिल रहा है. प्रभारी निदेशकों के भरोसे संस्थान चल रहा है. संस्थान के अंतिम स्थायी निदेशक ब्रिगेडियर पीके चक्रवर्ती थे

रांची इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरो साइकेट्री एंड एलायड साइंस (रिनपास) राज्य सरकार का एकमात्र मनोचिकित्सा संस्थान है. चार सितंबर को यह 98 साल का हो जायेगा. राज्य सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के सहयोग और भारत सरकार के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की मॉनिटरिंग में इसका संचालन होता है. सुप्रीम कोर्ट समय-समय पर संस्थान की रिपोर्ट लेता है. इसके बावजूद आज संस्थान कई कमियों से गुजर रहा है.

सबसे बड़ी बात है कि कांके स्थित इस संस्थान को 16 साल से स्थायी निदेशक नहीं मिल रहा है. प्रभारी निदेशकों के भरोसे संस्थान चल रहा है. संस्थान के अंतिम स्थायी निदेशक ब्रिगेडियर पीके चक्रवर्ती थे. यही कारण है कि स्थायी निदेशकों के कार्यकाल में संस्थान के विकास के लिए जो काम हुए, वह आज नहीं दिखते हैं. नये निदेशक के लिए संस्थान ने कई बार विज्ञापन निकाला है, लेकिन वेतनमान व शर्तों की जटिलता के कारण कोई निदेशक नहीं बनना चाहता है. यहां हर साल एक लाख से अधिक मरीजों का इलाज होता है.

1925 में पटना से कांके शिफ्ट किया गया

रिनपास का इतिहास 228 साल पुराना है. यह 1925 में कांके में शिफ्ट हुआ था. 1795 में मुंगेर में एक मनोचिकित्सा संस्थान की स्थापना कोर्ट परिसर में हुई थी. नवंबर 1821 में यह पटना कॉलेजिएट स्कूल परिसर में शिफ्ट हो गया था. उस वक्त संस्थान का नाम ल्यूनेटिक असाइलम था. वर्ष 1925 में पटना से कांके आने के बाद संस्थान का नाम इंडियन मेंटल हॉस्पिटल हुआ.

इसके पहले अधीक्षक डॉ जेइ धंजाभाई थे. 30 अगस्त 1958 को इसका नाम बदल कर रांची मानसिक आरोग्यशाला कर दिया गया. यहां के मरीजों की स्थिति को लेकर जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी. सुनवाई के बाद संस्थान को दुरुस्त करने का आदेश हुआ. 1997 में इसको सुप्रीम कोर्ट व राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की देखरेख में संचालित करने का आदेश हुआ. इसका नाम भी बदलकर रिनपास कर दिया गया.

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