Prabhat Khabar special: डॉ रामदयाल मुंडा. शिक्षाविद, समीक्षक, आलोचक, लेखक, कुशल प्रशासक, भाषाविद, संस्कृति प्रेमी, गीतकार, बांसुरी वादक और एक महान दूरद्रष्टा. मां-माटी से गहरा जुड़ाव. आदिवासियत, जल, जंगल, जमीन और भाषा-संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम. बौद्धिक और सांस्कृतिक आंदोलन के प्रणेता. डॉ रामदयाल मुंडा में न जाने कितने गुण भरे थे. आज इसी महान शख्सियत की 83वीं जयंती है़
गृहमंत्री ने झारखंड पर रिपोर्ट डॉ मुंडा से ही मंगवायी थी
डॉ रामदयाल मुंडा झारखंड आंदोलन के बड़े स्तंभ थे, जिन्होंने आंदोलन के दौरान न सिर्फ सांस्कृतिक जागरण का काम किया बल्कि राजनीतिक चेतना फैलाने में अहम भूमिका अदा की. चाहे पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के माध्यम से बौद्धिकचेतना जगाने की बात हो या बांसुरी-मांदर और गीत-नृत्य के माध्यम से जागृति फैलाने का प्रयास हो , डॉ मुंडा ने बखूबी अपनी जिम्मेवारी निभायी. इतना ही नहीं, जब जरूरत पड़ी तो सड़कों पर उतर कर गांधीवादी तरीके से झारखंड आंदोलन की अगुवाई भी की और राजनीतिक गतिविधियों में खुलकर हिस्सा लिया.
डॉ मुंडा की एक खासियत थी. वह बेबाकी से अपनी बात रखते थे. झारखंड के चप्पे-चप्पे की जानकारी थी. अपनी माटी से इतना प्यार कि जब झारखंड को उनकी जरूरत पड़ी तो अमेरिका में पढ़ाने का काम एक झटके में छोड़ दिया और रांची आ कर क्षेत्रीय भाषा विभाग की जिम्मेवारी संभाल ली. जुनून इतना कि जब नये विभाग के कमरे बन रहे थे, खुद छत बनाने में लग गये थे. वे पूरे झारखंड को बेहतर तरीके से समझना चाहते थे, इसलिए अपने सहयोगी डॉ बीपी केसरी के साथ मोटरसाइकिल से झारखंड के गांव-गांव की यात्रा कर ली. सरल स्वभाव के धनी डॉ मुंडा को रांची विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया था, लेकिन झारखंड आंदाेलन का समर्थन करने की कीमत उन्हें अदा करनी पड़ी.
डॉ मुंडा कोझारखंड आंदोलन के असली कारणों की समझ थी. इस बात को तत्कालीन केंद्र सरकार भी जानती थी. जब 1987-88 में झारखंड में हिंसा हो रही थी तो तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री बूटा सिंह कार्तिक उरांव की याद में आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लेने 03 नवंबर, 1987 को रांची आये थे. रात में उन्होंने डॉ मुंडा को राजभवन बुलाया था और झारखंड आंदोलन के संभावित हल पर एक रिपोर्ट तैयार करने को कहा था. उन दिनों डॉ मुंडा कुलपति थे. 28 मार्च, 1988 को डॉ मुंडा ने दिल्ली जाकर झारखंड आंदोलन पर एक गोपनीय रिपोर्ट गृहमंत्री बूटा सिंह को सौंप दी थी जिसमें तत्काल झारखंड को केंद्र शासित प्रदेश बनाने की उन्होंने राय दी थी. रिपोर्ट जमा करने के पांच माह के भीतर डॉ मुंडा को ही राज्यपाल ने कुलपति पद से हटा दिया था.
डॉ मुंडा हार माननेवाले नहीं थे. वे झारखंड समन्वय समिति के करीब थे और उन्होंने उसी साल 15 नवंबर की रैली से झारखंड आंदोलन में जाने सक्रियता दिखायी, वह कभी कम नहीं हुई. जब झारखंड आंदोलन के दौरान हिंसा होती रही थी, डॉ मुंडा ने उसका विरोध करते हुए आजसू-जेपीपी काे नियंत्रित करने का प्रयास किया था. बार-बार आश्वासन देने के बाद जब झारखंड राज्य नहीं मिल रहा था तो डॉ रामदयाल मुंडा ने आमरण अनशन किया था. 13 मार्च, 1994 को संजय बसु मल्लिक, विनोद भगत, देवशरण भगत और रामनरेश मस्ताना के साथ उन्होंने अनशन किया था. अनशन लंबा चलने के कारण सभी अनशनकारियों की हालत बिगड़ गयी थी और उन्हें जबरन अस्पताल में भरती कराया गया था. इस अनशन काे पूरे राज्य में जाेरदार समर्थन मिला था.
डॉ मुंडा ने अनशन स्थल से ही सरकार को पत्र लिखा था- ‘मैं, संजय बसु मल्लिक, विनोद भगत, देवशरण भगत और रामनरेश मस्ताना के साथ 13 मार्च से आमरण अनशन पर हूं, हमें यह कदम, थका देनेवाली वार्ताओं के बावजूद काेई राजनीतिक हल नहीं निकाले जाने के कारण उठाना पड़ा है. झारखंड अलग राज्य के निर्माण का आंदोलन अब एक ऐसे दौर में पहुंच गया है, जब जनतांत्रिक रास्ते की अंतिम परीक्षा हो रही है. यह परीक्षा इस क्षेत्र के साथ-साथ देश के लिए भी अहम है. देखना ताे यही है कि क्या गांधी के देश में जनतंत्र के रास्ते से आम जनता की आकांक्षा असली रूप धारण करती है या जनतंत्र की राह से जनता का विश्वास तोड़ा जाता है’.
डॉ मुंडा के इस पत्र का असर पड़ा था. वार्ता का दौर आरंभ हुआ था और झारखंड राज्य निर्माण का रास्ता प्रशस्त हुआ था. यह थी डॉ मुंडा के अनशन-पत्र और गांधीवादी आंदोलन की ताकत.
मैं अपने रवींद्रनाथ का सत्यजीत नहीं बन सका : मेघनाथ
डॉ रामदयाल मुंडा से 26 वर्षों का घनिष्ठ संबंध रहा. अफसोस है कि मैं अपने रवींद्रनाथ का सत्यजीत नहीं बन सका. 2009 में मैं और डॉ मुंडा एक पेट्रोल पंप पर मिले. उस वक्त मेरी नजर में डॉ रामदयाल मुंडा की छवि वैसी ही थी, जैसा 1900 के दशक में रवींद्रनाथ टैगोर बांग्ला समाज के उत्थान के लिए कर रहे थे. इसलिए मैंने उनपर फिल्म बनाने की इच्छा जाहिर की़ लेकिन डॉ मुंडा ने कहा : मैं कोई विषय नहीं हूं, जिसपर फिल्म बने. मैंने कहा : जैसे रवींद्रनाथ टैगोर पर फिल्म बनाकर सत्यजीत रे हिट हो गये, वैसे मैं भी होना चाहता हूं. डॉ रामदयाल मुंडा शिकागो से लाैटने के बाद आदिवासी संस्कृति को बढ़ावा देने में लगातार जुटे रहे. खासकर आदिवासी, जो खुद को पिछड़ा समझते थे उन्हें प्रेरित किया. आदिवासी संस्कृति को हर मंच से बढ़ावा देने की कोशिश की. ढोल-नगाड़े की शक्ति से आदिवासी समाज में रचनात्मकता को बढ़ावा दिया.
32 जनजातियों के लिए अखरा बनाना चाहते थे : डॉ मीनाक्षी मुंडा
सामान्य आदिवासी परिवार से जुड़ाव और ग्रामीण इलाके से निकलकर डॉ रामदयाल मुंडा ने खुद को स्थापित किया. अपनी विदेश यात्रा से आदिवासी समाज के उत्थान की सीख ली. तकनीक का जमाना नहीं था, इसलिए अपनी जन्मभूमि लौटकर लोगों से संपर्क साधा. अखड़ा से समाज की छवि अच्छी हो सकती है, इसके लिए सबको प्रेरित किया. जिस अखड़ा में लोग दिनभर की थकान मिटाते थे, उसे वैश्विक पहचान दी. शायद उन्हें इस बात की भनक थी कि शहरीकरण और सामाजिक बदलाव के कारण अखड़ा संस्कृति खत्म हो रही है़ इसलिए आदिवासी भाषा और संस्कृति के लिए काम करना शुरू किया. वह टैगोर हिल को 32 जनजातीयों के केंद्र ‘अखड़ा’ के रूप में स्थापित करना चाहते थे. इसके लिए तैयारी भी की थी, टैगोर हिल के नीचे खाली जगह पर आेपेन स्टेज से लेकर ग्रीन रूम कैसा हो, इसका विस्तार भी साझा किया था.
आदि धरम में मनुष्य सिर्फ प्रकृति का हिस्सा है : रणेंद्र
डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय शोध संस्थान के निदेशक रणेंद्र कहते हैं : डॉ मुंडा के साहित्य में मानव और प्रकृति के बीच का संबंध झलकता है. उनकी पुस्तक ‘आदि धरम’ खास है. क्योंकि बाकी सभी धर्म मानव और ईश्वर केंद्रित है़ं आदि धरम पुस्तक में मानव केंद्र में नहीं है़ साथ ही इसका भी वर्णन है कि कैसे मानव श्रेष्ठ प्राणी नहीं है़ आदि धरम में मनुष्य सिर्फ प्रकृति का हिस्सा है. जहां न कोई श्रेष्ठ है न ही कोई न्यूनतम. इस पुस्तक के जरिये डॉ मुंडा ने मनुष्य के ईश्वरीय प्रार्थना में ‘हम’ का जिक्र किया है. जो व्यक्तिगत न होकर प्रकृति, पशुधन और समाज की कामना करती है. आदि धरम में सरहुल मंत्र वैश्विक मंत्र है, जहां मृत्यु के बाद आत्मा किसी दूसरे लोक में नहीं जाती़ बल्कि छाया के रूप में गृह देवता के स्थान पर स्थापित होती है. अगर इस बात को मानें, तो मृत्यु के बाद छाया संरक्षण की सीख देती है यानी प्रकृति को कैसे बचायें, स्वच्छता कैसी हो़ .. इसपर विचार के लिए प्रेरित करती है.
मुंडा काका : हमारे आदर्श
छोटानागपुर सांस्कृतिक संघ की सचिव डॉ सचि कुमारी लिखती है कि महान लोगों के बारे में हम ज्यादा से ज्यादा सुनना और जानना चाहते हैं, आखिर क्यों ? कारण अलग-अलग हो सकते है़ं परंतु उनमें प्रमुख हैं, उनके जीवन से कुछ सीख लेना, प्रेरणा लेना़ डॉ पद्मश्री रामदयाल मुंडा (काका) को उन समकक्षों ने बेहतर तरीके से जाना, जो उनके सानिध्य में थे़ जो उनके सानिध्य में नहीं भी थे, उन्होंने भी झारखंड के सामाजिक व सांस्कृतिक विकास के लिए उन्हें पढ़ना और समझना जरूरी समझा़ डॉ मुंडा की स्मृति में वर्ष 2013 में डॉ बीपी केसरी के संपादन में उनकी स्मृति में संस्था ने अपनी सांस्कृतिक पत्रिका ‘डहर’ का विशेषांक प्रकाशित किया था़ डॉ रामदयाल मुंडा वर्ष 1991 से 2011 तक छोटानागपुर सांस्कृतिक संघ संस्था के संरक्षक रहे़ उनकी वेश-भूषा और शैली अपने आप में कई अद्भुत विविधता समेटे हुए थी़ उनको हमेशा यह कहते सुना ‘जे नाची से बाची’. किसी से कोई चूक हो जाने पर वे कहते : ‘ अभी नादान है, गिरेगा, उठेगा तभी तो सीखेगा’. मां-माटी से जुड़ा है, तो सीखना ही होगा़ सतही बातों से आदिवासियत, जल, जंगल, जमीन और हमारी भाषा-संस्कृति नहीं बचेगी़ जो लोग पढ़-लिखकर आगे निकल गये हैं उन्हें भी निरंतर यह प्रयास करना चाहिए कि झारखंड में गुणवत्तापूर्ण शिक्षण के लिए भाषाई संस्थान स्थापित किये जायें. सांस्कृतिक केंद्र यानी अखड़ा को पुनर्जीवित किया जाये़ झारखंड की पारंपरिक तकनीक व ज्ञान को यहां के लोगों के आर्थिक विकास के मॉडल में शामिल करने लिए भी वकालत की. शिक्षा के क्षेत्र में मातृ- भाषा के पठन–पाठन की अनिवार्यता के लिए की गयी पहल आज भी एक मुहिम के रूप में जारी है़ मेरे बाल मन पर उनकी बातें और व्यक्तित्व गहरी छाप छोड़ी़ इनकी विद्वत चौकड़ी अर्थात स्व डॉ बीपी केसरी, स्व डॉ गिरिधारी राम गौंझू और मेरे बाबा ( ईश्वरी प्रसाद ) को घंटों विमर्श करते देखा-सुना़ काका छोटानागपुर सांस्कृतिक संघ के महिला इकाई ‘मिसी’ के वार्षिक समारोहों व संस्था के चिंतन शिविर में अक्सर शामिल होते थे. वे व्यक्ति नहीं एक विचारधारा थे़ करम महोत्सव और उनका आखिरी गीत – ‘अंखिया ही छुटल दुनिया बिराजे..’ आज भी गुनगुनाती हूं.
Posted By: Rahul Guru