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शोषण के कालचक्र में पिसने वाला है आदिवासी समाज, आने वाला कल बेहद खतरनाक, विश्व आदिवासी दिवस पर बोले बुद्धिजीवी

विश्व आदिवासी दिवस पर झारखंड के आदिवासियों का कितना विकास हुआ. क्या उनके सपने पूरे हुए? आदिवासियों को झारखंड बनने का लाभ हुआ या नुकसान. इस बारे में झारखंड के बुद्धिजीवी क्या सोचते हैं, आप भी पढ़ें.

झारखंड राज्य का गठन आदिवासियों के विकास के लिए हुआ था. आदिवासियत के नाम पर बिहार से अलग होकर झारखंड राज्य अस्तित्व में आया था. राज्य के गठन को 23 साल हो गये. इस दौरान आदिवासियों का कितना विकास हुआ. बिहार से अलग होकर झारखंड के आदिवासियों के जीवन स्तर में कितना सुधार हुआ. उन्हें कितने अधिकार मिले. विश्व आदिवासी दिवस (World Indigenous Day) इन विषयों के मंथन का उचित समय है. प्रभात खबर (prabhatkhabar.com) ने झारखंड के कई बुद्धिजीवियों से इस विषय पर बात की. इन सभी लोगों ने माना कि विकास जरूरी है, लेकिन विकास के नाम पर आदिवासियों को जल-जंगल-जमीन से अलग नहीं किया जाना चाहिए. उन्हें उनकी सभ्यता और संस्कृति से दूर नहीं किया जाना चाहिए.

कानून के बावजूद आदिवासयों को संरक्षण नहीं : दयामनी बारला

जानी-मानी पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला कहतीं हैं कि झारखंड बनने के पहले जो कानूनी अधिकार हमारे पास थे, उन संवैधानिक अधिकारों में इतने छेद हो गये कि कानून होने के बावजूद आदिवासियों को उचित संरक्षण नहीं मिल रहा है. सीएनटी-एसपीटी एक्ट है, पांचवीं अनुसूची है, कोल्हान क्षेत्र के लिए विल्किंसन रूल है, खूंटी में मुंडारी खुंटकटी राइट्स हैं, लेकिन इन सब कानूनों के होते हुए भी आदिवासियों की जमीन लूटी जा रही है. ये जो कानून हैं, वह आदिवासियों को अपने गांव, समाज, संसाधन को संरक्षित करने का अधिकार प्राप्त है. झारखंड बनने के बाद इन कानूनों में इतने छेद कर दिये गये कि आदिवासियों के संवैधानिक अधिकार स्वत: खत्म होने लगे.

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लैंड बैंक में सभी जमीनों को शामिल कर लिया गया

दयामनी बारला कहतीं हैं कि झारखंड में सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट, विल्किंसन रूल, मुंडारी खुंटकटी राइट्स वाले क्षेत्रों में जल, जंगल और जमीन के मालिक वहां के ग्रामीण हैं. ये प्राकृतिक संसाधन गांव की, समाज की सम्मिलात मिल्कियत हैं. कोई एक व्यक्ति इसका मालिक नहीं है. 1932 के डॉक्युमेंट में भी वही प्रावधान हैं. खतियान पार्ट-2 में भी ये राइट्स हैं. पांचवीं अनुसूची में गांव की जो परिभाषा दी गयी है, उसमें भी कहा गया है कि गांव के भीतर जो भी प्राकृतिक संपदा हैं, वह गांव की संपत्ति है. फॉरेस्ट राइट्स एक्ट 2006 भी यही कहता है. लेकिन, वर्ष 2016 में पांचवीं अनुसूची में कोई अमेंडमेंट नहीं हुआ. सीएनटी-एसपीटी एक्ट में भी संशोधन नहीं हुआ. विल्किंसन रूल के होते हुए वर्ष 2016 में जो लैंड बैंक बना, उसमें सीएनटी एक्ट के तहत आने वाली जमीनों के अलावा सरना, मसना जैसी जमीनों के प्लॉट्स को भी शामिल कर लिया गया.

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लैंड बैंक में 21 लाख एकड़ जमीन सूचीबद्ध

दयामनी बारला कहतीं हैं कि सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट, विल्किंसन रूल, मुंडारी खुंटकटी जमीन पर आदिवासी समाज का सामूहिक मालिकाना हक है. इसकी लगान नहीं कटती. उन्होंने कहा कि झारखंड सरकार के राजस्व विभाग ने एक लैंड बैंक तैयार किया है. इसमें 21 लाख एकड़ जमीन सूचीबद्ध है. इसमें विशेष कानून के तहत संरक्षित जमीन भी शामिल हैं. उन्होंने कहा कि पिछले दिनों मीडिया में खबर आयी थी कि जमीन के लगान की रसीद नहीं कट रही. सारे दस्तावेज ऑनलाइन हो गये हैं, लेकिन उसमें जो व्यवस्था है, आदिवासी समाज की व्यवस्था को पढ़, समझ नहीं पाता. यही वजह है कि गांव की जमीन के 70 से 80 फीसदी दस्तावेज गलत हैं. गांव के लोग परेशान हैं. खासकर वे आदिवासी और दलित, जो पढ़े-लिखे नहीं हैं.

आदिवासियों के हाथ से निकल रहीं सारी चीजें

उन्होंने कहा कि झारखंड बनने के बाद आदिवासियों के हित में काम होने चाहिए थे. लेकिन, आदिवासियों के हाथ से सारी चीजें निकलतीं जा रहीं हैं. जल-जंगल-जमीन उनके हाथ से निकलता जा रहा है. झारखंड में पंचायती राज भी है. अब तक तीन बार चुनाव हो चुके हैं. वार्ड मेंबर से लेकर प्रमुख और जिला परिषद अध्यक्ष भी गांव के मालिक हैं. प्रखंड विकास पदाधिकारी (बीडीओ) भी हैं, अंचल अधिकारी (सीओ) भी हैं. उसके साथ-साथ डीएमओ गांव की समृद्धि के लिए अलग से हैं. जिला स्तर पर डीसीएलआर, डीसी, डीडीसी, पंचायत सेवक भी हैं. विधायक, सांसद भी हैं. इन सबके होते हुए ये सब चीजें हो रहीं हैं. त्रिस्तरीय पंचायत स्तर पर इस संबंध में किसी को कोई चिंता नहीं है. विधायक, संसद या अन्य सरकारी मशीनरी को भी इसकी चिंता नहीं है. आदिवासी एट्रोसिटी कानून के कड़े प्रावधानों को भी कमजोर कर दिया गया है.

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विकास का स्वरूप बदलना चाहिए

दयामनी बारला कहतीं हैं कि विकास होना चाहिए. लेकिन, जिस तरीके से हम विकास कर रहे हैं, उसका स्वरूप बदलना चाहिए. पहले से तैयारी करके विकास कार्य शुरू किया जाना चाहिए. सत्ता में बैठे लोग आदिवासियत की बात करेंगे, मूलवासी की भी बात करेंगे, लेकिन गांव के आदिवासियों, दलितों के बारे में किसी विषय पर गंभीरता से विचार नहीं करते. किसानों की समस्या के बारे में कोई नहीं सोचता. जो कम पढ़े-लिखे लोग हैं, वे कहां-कहां चक्कर लगायेंगे. मेरी नजर में आदिवासी शोषण के कालचक्र में पिसने वाला है. आदिवासियों के लिए आने वाला कल बेहद खतरनाक है.

झारखंड बनने के बाद आदिवासियों के जीवन में नहीं हुआ गुणात्मक सुधार, स्वायत्तता नहीं मिली : अनुज लुगून

सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ झारखंड (सीयूजे) में सहायक प्राध्यापक और जाने-माने कवि अनुज लुगून ने कहा कि हमारे देश का जो संवैधानिक ढांचा है, उसके तहत झारखंड में पांचवीं अनुसूची प्रभावी होनी चाहिए. जयपाल सिंह मुंडा ने संविधान सभा में इस मुद्दे पर जोरदार बहस की थी. अनुज लुगून ने कहा कि विरासत को संरक्षित करने के लिए आदिवासियों को स्वायत्तता मिलनी चाहिए थी. पांचवीं अनुसूची और 1996 का पेसा अधिनियम लागू होना चाहिए था. लेकिन, ये चीजें नहीं हो पायीं. सरकारी मशीनरी और ब्यूरोक्रेसी का प्रभाव बढ़ता चला गया. झारखंड अलग राज्य बनने के बाद झारखंड की कमान उन लोगों के हाथों में नहीं गयी, जिन्होंने इसके लिए आंदोलन किया था. ब्यूरोक्रेट्स हावी हो गये. ब्यूरोक्रेसी ने झारखंड की ऑटोनोमी को खंडित कर दिया.

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राष्ट्रपति और राज्यपाल के जरिये हो संसदीय प्रणाली का संचालन

उन्होंने कहा कि संसदीय प्रणाली का संचालन राज्यपाल और राष्ट्रपति के जरिये होना चाहिए था. मुख्यमंत्री सचिवालय और नौकरशाहों के जरिये नहीं. झारखंड में ब्यूरोक्रेट्स हावी हो गये, तो जनआकांक्षाओं को ताक पर रख दिया गया. उपनिवेशकाल से लोगों ने जिस स्वायत्तता के लिए संघर्ष किया, वह नहीं मिली. अगर ये चीजें हो पातीं, तो आदिवासियत की बात होती. आज हम राजनीति और नौकरशाही में भ्रष्टाचार देख रहे हैं. आदिवासी समाज की जब हम बात करेंगे, उनकी सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक हित की बात करेंगे, तो उनके सामाजिक ढांचे में ही पूरी व्यवस्था निहित है. परंपरागत ग्राम सभा और अन्य व्यवस्थाएं भी हैं. इसे एक तरह से खत्म कर दिया गया. इसलिए विस्थापन हुआ. जमीन संबंधी मुद्दे खड़े हुए, असंतोष पैदा हुआ. हथियारबंद आंदोलन हुए. नक्सलवाद आया. अराजकता की स्थिति उत्पन्न हुई. पत्थलगड़ी भी इसी का नतीजा थी.

विश्व आदिवासी दिवस का थीम
9 अगस्त को भारत समेत पूरी दुनिया में हर साल विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है. हर साल वर्ल्ड इंडीजिनस डे का अलग थीम होता है. विश्व आदिवासी दिवस 2023 का थीम ‘इंडीजिनस यूथ ऐज एजेंट्स ऑफ चेंज फॉर सेल्फ डिटरमिनेशन’ है. विश्व आदिवासी दिवस पर आदिवासी समाज के पुरातन ज्ञान को सेलिब्रेट करते हैं. प्रकृति के प्रति उनके प्रेम के बारे में लोगों को बताने और लोगों को प्रकृति संरक्षण के लिए जागरूक करने के उद्देश्य से ही इस दिवस को मनाया जाता है.

विकास तो हुआ, लेकिन गुणात्मक सुधार नहीं

अनुज लुगून कहते हैं कि यह कहना उचित नहीं होगा कि झारखंड बनने के बाद विकास नहीं हुआ. राज्य गठन के बाद अच्छी सड़कें बनीं, जो इलाके शहरों से पूरी तरह कटे रहते थे, उन इलाकों तक पहुंच बढ़ी है. धीरे-धीरे गांव और शहरों का जुड़ाव बढ़ा है. शिक्षा के क्षेत्र में भी सुधार हुआ है, लेकिन जो गुणात्मक सुधार होना चाहिए था, आज तक नहीं हुआ. झारखंड को इतने सालों में जितना विकास करना चाहिए था, उसकी तुलना में बहुत कम विकास हो पाया है.

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इस तरह तो आदिवासियत की पहचान ही मिट जायेगी : वीणा लिंडा

एडवा झारखंड की राज्य सचिव वीना लिंडा कहतीं हैं कि झारखंड जिस मकसद से बना था, लोगों से जो वादे किये गये थे, वे पूरे नहीं हुए. आज आदिवासियों की स्थिति और बदतर हो गयी है. विकास के नाम पर सिर्फ लूट मची है. लोगों को काफी नुकसान हो रहा है. जल-जंगल-जमीन ही आदिवासियों की पहचान है. जंगल भी उजाड़े जा रहे हैं. लैंड बैंक बनाकर उद्योगपतियों को दिया जा रहा है. इस तरह आदिवासियों का विकास नहीं हो सकता. इससे उन्हें नुकसान हो रहा है. वीना लिंडा कहतीं हैं कि भविष्य में आदिवासियों का विकास होगा, इसकी उम्मीद भी नहीं रह गयी है.

आदिवासियों को लड़ाया जा रहा

एडवा की राज्य सचिव कहतीं हैं कि इस स्थिति के लिए कोई और नहीं, बल्कि राज्य की सरकार जिम्मेदार है. सरकार सिर्फ पूंजीपतियों को फायदा पहुंचा रही है. उन्होंने कहा कि जमीन नहीं रहेगी, तो आदिवासियों की पहचान कैसे बचेगी. उन्होंने कहा कि आदिवासियों को धर्म के नाम पर लड़ाया जा रहा है. सरना और ईसाई के नाम पर लड़ाया जा रहा है. आदिवासियों को बांटने की कोशिश हो रही है. वीणा लिंडा कहतीं हैं कि आदिवासियों के नाम पर झारखंड का गठन हुआ, लेकिन उनके अधिकार छीने जा रहे हैं. आने वाले दिनों में आरक्षण में भी आदिवासियों को नुकसान होगा. आदिवासी के नाम पर अस्तित्व में आने वाले झारखंड में आदिवासियत की पहचान ही मिट जायेगी.

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