जय कन्हैया लाल की… : द्वापरी भी थे और कलियुगी भी श्रीकृष्ण

भगवान श्रीकृष्ण के जन्मकाल को लेकर अलग-अलग मत हैं. प्रायः यह माना जाता है कि उनका अवतार द्वापर युग में हुआ था, जबकि कुछ विद्वानों का मानना है कि कलियुग में वे इस धरा पर आये थे. सटीक आकलन के लिए कई विद्वानों ने गहन शोध भी किये. वे चंद्रगुप्त के समय से (ईसा पूर्व […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 2, 2018 12:11 AM
भगवान श्रीकृष्ण के जन्मकाल को लेकर अलग-अलग मत हैं. प्रायः यह माना जाता है कि उनका अवतार द्वापर युग में हुआ था, जबकि कुछ विद्वानों का मानना है कि कलियुग में वे इस धरा पर आये थे. सटीक आकलन के लिए कई विद्वानों ने गहन शोध भी किये. वे चंद्रगुप्त के समय से (ईसा पूर्व 312) श्रीकृष्ण का समय 2760, अर्थात आज से 5090 साल पहले मानते हैं. आखिर हम सच्चाई के कितने करीब हैं?
हम प्रतिवर्ष भाद्रपद के कृष्णपक्ष की अष्टमी को भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण-दिवस मनाते हैं, जिसे जन्माष्टमी भी कहते हैं, परंतु यह अवतार द्वापर में हुआ था कि कलियुग में, कहना कठिन है. दोनों पक्ष अपना-अपना झंडा उठाये खड़े हैं. प्रायः यह माना जाता है कि यह अवतार द्वापर में हुआ था. प्रथम पुराण माने जानेवाला ‘हरिवंश’ कहता है-
‘नवमे द्वापरे विष्णुःअष्टाविंशे पुराभवत्’(1.41).
भविष्य पुराण भी द्वापरयुग में श्रीकृष्ण का उल्लेख करता है. फिर भी कलियुग में इस अवतरण को माननेवाले भी कम नहीं. ब्रह्म पुराण कहता है-
‘अथ भाद्रपदे मासि कृष्णाष्टम्यां कलौ युगे.
अष्टाविंशतिमे जातःकृष्णोsसौ देवकीसुतः’..
जन्म-समय के संदर्भ में खमाणिक्य नामक ज्योतिर्ग्रन्थ में आया है-
‘उच्चस्थाःशशि-भौम-चान्द्रि-शनयो लग्नं वृषो लाभगो
जीवः सिंह-तुलालिषु क्रमवशात् पूषोशनो-राहवः.
नैशीथः समयोsष्टमी बुधदिनं ब्रह्मर्क्षमत्रक्षणे
श्रीकृष्णाभिधमम्बुजेक्षणमभूत् आविः परं ब्रह्म तत्’..
द्वापर या कलियुग की बात की जाये, तो अभी वैवस्वत मन्वन्तर का अट्ठाइसवां कलिकाल चल रहा है. वर्तमान में विक्रम संवत् 2075, शाके 1940, ईसवीय 2018 वर्ष में गतकलि 5119 है. यानी कलियुग के इतने समय बीत चुके हैं.
उक्त ‘खमाणिक्य’ में ‘उच्चस्थाः शशिभौम..’ के आकलन के आधार पर विद्वानों ने श्रीकृष्ण का अवतरण काल इसी कलियुग में 647 कलिवर्ष, अर्थात् आज से 4472 वर्ष पूर्व हुआ था. दूसरी ओर राजतरंगिणीकार के अनुसार कलिवर्ष 653, अर्थात् आज से 4466 वर्ष पूर्व हुआ था. इनका मन्तव्य है कि कौरव-पांडवों का यही काल है और श्रीकृष्ण इनके समकालीन थे.
शतेषु षट्सु सार्धेषु त्र्यधिकेषु च भूतले.
कलेर्गतेषु वर्षाणाम् अभवन् कुरुपाण्डवाः..
चिंतामणि विनायक वैद्य ने ‘महाभारत मीमांसा’(पृष्ठ-90, प्रथम संस्करण-1990, हरियाणा साहित्य अकादमी, चंडीगढ़) में बाह्य एवं अंत साक्ष्यों के आधार पर बड़ा गहन शोध प्रस्तुत किया है. इन्होंने विभिन्न आधारों के सहारे कृष्ण-समय की प्रस्तुति दी है.
इन्होंने चंद्रगुप्त के दरबार में रहनेवाले ग्रीक का राजदूत मेगास्थनीज के कथनानुसार सैंड्रकोटस् (चंद्रगुप्त) और हिराक्लीज (हरि, श्रीकृष्ण) के बीच 138 पीढ़ियों का अंतर है. वैद्य महोदय इन पीढ़ियों का शासन-अंतराल मोटा-मोटी 20-20 वर्ष मानते हुए चंद्रगुप्त के समय से (ईसा पूर्व 312) श्रीकृष्ण का समय 2760, अर्थात् आज से 5090 साल पहले मानते हैं.
‘भारतीय ज्योतिष’ के लेखक शंकर बालकृष्ण दीक्षित पांडवों का काल शकपूर्व 1500 से 3000 वर्ष तक मानते हैं (वेदांग काल. पृष्ठ177, अनुवादक-शिवनाथ झारखंडी, तृतीय संस्करण-2002, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ). इस आकलन के अनुसार आज से 3437 से 4939 के मध्य का यह समय है. वेदांग काल से पूर्व की छान्दोग्य उपनिषद् में भी ‘कृष्णाय देवकीपुत्राय’ आया है.
अब यदि इन आकलनों के आधार बनाकर तय किया जाये तो वैद्य महोदयवाली बात सटीक बैठती है, जो आज से 5090 वर्ष पूर्व की घोषणा करती है. आज गतकलि 5119 है और पुराणों के अनुसार सामान्यतः 125 वर्ष (भविष्य पुराण के अनुसार 135 वर्ष) श्रीकृष्ण का जीवनकाल रहा है.
यदि 5090 में 125 वर्ष जोड़ देते हैं, तो द्वापर के खाते में 96 और कलियुग के खाते में 29 वर्ष आ जाते हैं. इस निर्धारण से न तो द्वपर-गत अवतार की धारणा वृथा होती है और न कलिगत की. अनुसंधानों की पहुंच भी पुष्ट हो जाती है. आशय यह कि 96 वर्ष शेष द्वापर में तथा 29 वर्ष कलिकाल के बीतने तक श्रीकृष्ण इस धराधाम पर रहे. इसलिए द्वापरी भी थे और कलियुगी भी.
रसखान
नैन लख्यो जब कुंजन तैं,
बनि कै निकस्यो मटक्यो री.
सोहत कैसे हरा टटकौ,
सिर तैसो किरीट लसै लटक्यो री.
को ‘रसखान कहै अटक्यो,
हटक्यो ब्रजलोग फिरैं भटक्यो री.
रूप अनुपम वा नट को, हियरे अटक्यो,
अटक्यो, अटक्यो री॥
कैसा था कृष्ण का वास्तविक वर्ण
कलियुग में अवतरित होने से कृष्ण काले थे, यह कहना कितना सही है?
पौराणिक मान्यता से श्रीकृष्ण विष्णु के अष्टम अवतार हैं. कहीं-कहीं बलराम को ही अष्टम अवतार माना गया है और इन्हें साक्षात् भगवान कहा गया है- ‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’.
पुराणों की मान्यता है कि विष्णु के अवतारों में युगानुसार वर्णों की भिन्नता रही है. सत्ययुग में श्वेत, त्रेता में रक्त, द्वापर में पीत, इस कारण कलियुग में कृष्ण वर्ण मान्य है-
‘कृते शुक्लं हरिं विद्यात् त्रेतायां रक्तवर्णकम्.
द्वापरे पीतवर्णं च कलौ कृष्णत्वमागतः’..
कलियुग के मानवीकरण में उसे (कलियुग को) काला-कलूटा ही बताया गया है. शायद श्याम-सुंदर की कृष्णता के कारण ही कलियुगी होना बताया गया है, जबकि प्रायः यह कहा जाता है कि श्रीकृष्ण के परलोक जाने पर कलि का प्रवेश हुआ.
खैर, कृष्ण की कृष्णता भी विचारणीय है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘काला’ है. यह तो सत्य है कि वह काले थे और हमारे यहां रंगपरक नाम भी कम नहीं चलता. इसीलिए लोक में गोरका, गोरकी, कलुआ, करुआ, करियक्की, करियट्ठी, सांवर, सांवरी-संवरी-जैसी पुकार सुनी जाती है. श्रीकृष्ण का भी कृष्ण व थोड़ा मक्खन लगाते हुए श्याम अथवा श्याम सुंदर कहा जाना लोकप्रकृति का ही संकेतक है.
विष्णु के अंशावतार या कुछ और
देवकी-नंदन की विकास-यात्रा पर ध्यान दें, तो यह मानव से भगवान और भगवान से भी बढ़कर ब्रह्म यकायक नहीं हो गये. महाभारत ही कहीं महामानव, कहीं अर्धदेव तो कहीं भगवान के रूप में स्थापित करता है.
स्पष्ट है कि यहां भी एक मानव के गुणों की अधिकता महामानव बनाती है और अधिकता अर्धदेव (विष्णु का अंशावतार) तथा और अधिकता पूर्णावतार. यानी अदिव्य का दिव्यादिव्य, पुनः दिव्य होना. एक और बात कि ‘देवीपुराण’(अध्याय-49) में एक नयी बात आयी है कि भद्रकाली ही पुरुष रूप में श्रीकृष्ण हैं, पाण्डुपुत्र अर्जुन विष्णुरूप हैं और स्त्रीरूप में शंकर राधा हैं.
अग्निषोमात्मक सृष्टि के पुरोधा शिव शिवा से कहते हैं-
‘पुंरूपेण जगद्धात्रि प्राप्तायां कृष्णतां त्वयि.
वृषभानोःसुता राधा-स्वरूपाहं स्वयं शिवे’..
अर्थात् संसार को धारण करनेवाली हे शिवे! आप जब पुरुष रूप में श्रीकृष्ण बनियेगा, तो मैं वृषभानु की पुत्री राधा के रूप में रहूंगा.
तदनुसार नवीन मेघ की आभा से युक्त श्यमवर्ण श्रीकृष्ण के रूप में महादेवी अवतीर्ण हुईं-‘तस्माद् बभूव सा कृष्णःश्यामो नवघनद्युतिः’(28).
भगवान शंकर की प्रार्थना पर भगवती श्रीकृष्ण बनीं और स्वयं भगवान राधा. यह लिंग-परिवर्तन हमारे पुनर्जन्म के सिद्धांत के विपरीत भी नहीं है. भगवती का मुख्य रंग काला ही बताया गया है, वर्णाधारित ही है.
इसीलिए काली हैं, श्यामा हैं. गौरी वयोवाचक ही रहा होगा-‘अष्टवर्षा भवेद् गौरी..’(आठ वर्ष की बच्ची को गौरी कहते हैं) या एक पौराणिक प्रसंग के अनुसार उनके कालापन पर जब शिव ने उपहास किया, तो वह तपोबल से गौरवर्णा हो गयीं.
जब शिव कहते हैं- अहं नारायणो गौरी जगन्माता सनातनः (कूर्मपुराण, पूर्वभाग-16.158), अर्थात् मैं ही जगत की माता गौरी के रूप में भी सनातन नारायण हूं, तो शिव, शिवा एवं विष्णु की भिन्नता ही कहां रह जाती है! ईश्वरीय लीला व रहस्य के रूप में कृष्ण के कृष्णत्व का ग्रहण करना ही उपयुक्त है.

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