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‘मरते-मरते भी काम जरूर करते रहो’

श्री श्री आनंदमूर्ति, आध्यात्मिक गुरु 21 अक्तूबर को श्री श्री आनंदमूर्तिजी का महाप्रयाण दिवस है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि यदि बिना किसी लक्ष्य के, बिना मिशन के कोई जीवन जीता है, तो उस अवस्था में कोई भी प्रयत्न मानसिक क्षेत्र में सफलता नहीं ला सकता. यदि तुम काम करना नहीं चाहते […]

श्री श्री आनंदमूर्ति, आध्यात्मिक गुरु
21 अक्तूबर को श्री श्री आनंदमूर्तिजी का महाप्रयाण दिवस है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि यदि बिना किसी लक्ष्य के, बिना मिशन के कोई जीवन जीता है, तो उस अवस्था में कोई भी प्रयत्न मानसिक क्षेत्र में सफलता नहीं ला सकता. यदि तुम काम करना नहीं चाहते हो, यदि तुम संसार की सेवा करना नहीं चाहते हो, तब तुम संसार के लिए एक भार हो जाओगे.
जब मनुष्य को मानसिक जगत तथा आध्यात्मिक जगत में चलना है तब सामने उसका कोई स्थूल लक्ष्य नहीं रह सकता. मानसिक जगत में मनुष्य को जब चलना पड़ता है तो हमेशा मन में एक व्रत को याद रखना पड़ता है कि हमें इस व्रत को पूरा करना है. विद्यार्थी पढ़ रहे हैं. उनको यह बात याद रखनी है कि हमें परीक्षा में पास करना है. अगर पास करने के संबंध में वह सोचता नहीं, केवल पढ़ने के लिए पढ़ रहा है, तो वह परीक्षा में पास नहीं कर सकेगा.
व्रत नहीं है, तो मानसिक प्रयास अर्थहीन हो जायेगा. इस दुनिया में तुम आये हो काम करने के लिए. और अधिक दिनों तक जीवित रहना तुम चाहोगे कर्म करने के लिए. इसी भवाना से प्रेरित होकर अधिक दिन जीवित रहना चाहोगे. अगर तुम कर्म करना नहीं चाहोगे, दुनिया की सेवा करना नहीं चाहते, हो तो तुम दुनिया के लिए बोझा हो. तुम्हारे लिए दुनिया में अधिक दिन रहना जरूरी नहीं है. मैंने एक बार कहा था कि ‘‘काम करते-करते मरो और मरते-मरते भी काम करते रहो.’’
इसलिए इस बात को मन में हमेशा रखना चाहिए कि ‘‘मैं इस संसार में अपने मिशन को पूरा करने के लिए ही जीवित हूं. इसी कारण से मैं खा रहा हूं, मैं वस्त्र पहन रहा हूं, मैं सो रहा हूं, इसको छोड़कर मेरे लिए सब व्यर्थ है.’’ और यदि बिना किसी लक्ष्य के, बिना मिशन के, कोई जीवन जीता है तो उस अवस्था में कोई भी प्रयत्न मानसिक क्षेत्र में सफलता नहीं ला सकता. यदि तुम काम करना नहीं चाहते हो, यदि तुम संसार की सेवा करना नहीं चाहते हो, तब तुम संसार के लिए एक भार हो जाओगे.
संसार का एक बोझ बनकर रहने से बेहतर है संसार को छोड़ देना.तीव्र क्रियाशीलता से मनुष्य जीवन को संपन्न बनाना चाहिए. मानसिक क्षेत्र के ऊपर आध्यात्मिक क्षेत्र है. आध्यात्मिक जगत में केवल अपने मिशन के विषय में चिंतन करना ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि मिशन का उद्देश्य है बाहरी जगत में सेवा करना.
वस्तु जगत में, वाह्य जगत में किसी का कोई भी मिशन क्यों न हो, मूल रूप से उसके मिशन का उद्देश्य है जगत के कल्याण को बढ़ा देना, किंतु गति जब भीतर की ओर होती है अर्थात् गति जब मन से आत्मा की ओर होती है तब मिशन का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि तब तुम अपने संपूर्ण अस्तित्व को परमपूर्णता में विसर्जित करने जा रहे हो. तुम अपने जगत कल्याण के मिशन में सक्रिय रह सकते हो, किंतु यही पर्याप्त नहीं है. किन्तु, ‘जगद्हिताय च’ तुम व्रत लेते हो, जगत के हित के लिए.
मगर मनुष्य जीवन क्यों है, किस वास्ते है, जगत के हित के लिए अवश्य ही और उसके साथ-साथ एक साथ में बोलना पड़ेगा कि ‘आत्ममोक्षार्थं’. आत्ममोक्षार्थ के लिए जो प्रयास नहीं करते हैं, साधना नहीं करते हैं, उनसे जगत की सेवा नहीं होती है. उनसे दुनिया की सेवा हो नहीं सकती है.

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