आत्ममंथन से प्राप्त होती हैं लक्ष्मी, दीपावली आज

सद्गुरु स्वामी आनंद जी आध्यात्मिक गुरु दीपावली का दीपक स्वयं में बहुत कुछ समेटे हुए है. इसे मिट्टी का दीया या कोई बाह्य दीप समझना उचित नहीं है. दीपावली के दीपक का आशय तो अंतर्ज्ञान है, नीयत है, मंशा है. जिसकी नीयत साफ है, वही समृद्धि का वाहक है. दीपक तो समृद्धि का बस एक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 7, 2018 6:55 AM
सद्गुरु स्वामी आनंद जी
आध्यात्मिक गुरु
दीपावली का दीपक स्वयं में बहुत कुछ समेटे हुए है. इसे मिट्टी का दीया या कोई बाह्य दीप समझना उचित नहीं है. दीपावली के दीपक का आशय तो अंतर्ज्ञान है, नीयत है, मंशा है. जिसकी नीयत साफ है, वही समृद्धि का वाहक है.
दीपक तो समृद्धि का बस एक सूत्र मात्र है. दीपावली यानी कार्तिक मास की अमावस्या, सिर्फ साधारण अंधेरी निशा नहीं है. इस निशा में तो उजाले की प्रवृत्ति समाहित है. इसलिए तो ये महानिशा कहलाती है. इस रात में जीवन को बदल देने वाला गुणधर्म जो पाया जाता है.
कहते हैं कि भौतिक संसाधनों की प्राप्ति के लिए सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियों ने मिलकर समुद्र को मथा, खंगाला और परिणाम स्वरूप नकारात्मक और सकारात्मक दो प्रकार की ऊर्जा प्राप्त हुई, जिसे अमृत, धन या लक्ष्मी, हलाहल जैसे अलंकारों से नवाजा गया, जिसने कालांतर में जिंदगी की सूरत भी बदली और मायने भी, परक्या कारण है कि इतनी बड़ी किसी घटना के सुराग जंबूद्वीप के परे नजर नहीं आते?
वह मंथन वस्तुतः बाह्य समुद्र से ज्यादा आंतरिक और मानसिक मंथन अधिक प्रतीत होता है. निश्चित रूप से, वह मंथन भौतिक न होकर कार्मिक था, मानसिक था, आध्यात्मिक था.
मंथन में जो भी रत्न निकले, उन समस्त रत्नों में दरअसल हमारी सुप्त कामना ही नजर आती है. हमारे लिए इस भौतिक जगत में समृद्धि का पैमाना सिर्फ भौतिक पदार्थ ही हैं, पर उनके सूत्र सिर्फ हमारे कर्मों से जुड़े हुए हैं. हम इसी भौतिक समृद्धि को ‘श्री’ यानी ‘लक्ष्मी’ कहते है. लक्ष्मी शब्द से संपत्ति का बोध होता है.
दरअसल, पदार्थों और तत्वों को मानव के लिए प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराने और उपयोगी बनाने की ‘क्षमता’ और तकनीकी ज्ञान को ही ‘लक्ष्मी’ कहा जाता है. जिसे कम संसाधनों का भरपूर लाभ उठाने की कला आती है, बस वही ‘श्रीमान’ है. अन्यथा बाकी सब तो धनिक या धनवान है. लक्ष्मी को धन, संपदा, समृद्धि और ऐश्वर्य की देवी माना जाता है.
अध्यात्म में गायत्री के साधन क्रम एवं तत्व दर्शन की धारा को ‘शृंकार’ यानी ‘श्री’ या लक्ष्मी कहते है. लक्ष्मी के धागे नीयत, सदाचरण, क्षमा और परोपकार में गुथे हुए हैं. धन और पदार्थ हस्तगत करने की प्रत्यक्ष पद्धति कुछ भी प्रतीत होती हो, पर इसके रहस्य तो सिर्फ कर्म में ही छिपे हुए हैं. अध्यात्म में धन प्राप्ति का सिरा पूर्व के कर्मों से जुड़ा दिखाई देता है. धन का प्रचुर मात्रा में होना ही ऐश्वर्य और सुख का परिचायक नहीं है.
बुद्धि और विवेक के अभाव में धन व्यक्ति के पराभव का भी कारण बन सकता है. लक्ष्मी की मुद्रा में समाहित संदेश शायद यही है कि यदि दूरदृष्टि और दृढ़ संकल्प के साथ अनुशासनपूर्वक पूर्ण शक्ति व सामर्थ्य से किसी भी कार्य को किया जाये, तो सफलता अवश्य उसका चरण चुंबन करती है और लक्ष्मी सदैव उसके पास विराजमान रहती हैं. लक्ष्मी की आशीर्वाद मुद्रा से अनुग्रह और अभय तथा दान मुद्रा से उनकी उदारता का भी बोध होता है, यानी ये मुद्रा धन हासिल करने की बड़ी शर्त प्रतीत होती हैं. उनके हस्त में कमल उनके सौंदर्य को परिलक्षित करते हैं.
तंत्र के अनुसार लक्ष्मी का आसन कमल है. कमल स्वयं में ही मधुरता का प्रतीक है जो कीचड़ में उत्पन्न होकर भी उपासना में शामिल है.
जो स्वयं चारों ओर से त्यज्य पदार्थों से घिरा होने के बावजूद भी मासूम है, कोमल है, पवित्र है. लक्ष्मी स्त्रीस्वरूपा हैं. क्योंकि स्त्री स्वयं में शक्ति का पुंज है. उनके मुखारविंद पर ऐश्वर्यमयी आभा है. उनका एक मुख और चतुर्हस्त, दरअसल एक लक्ष्य और चार विचारों (दूर दृष्टि, दृढ़ संकल्प, नियम/अनुशासन, परिश्रम) को प्रतिबिंबित करते हैं.

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