डॉ मुश्ताक अहमद
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अल्लाह के प्रति पूर्ण समर्पण का प्रतीक
डॉ मुश्ताक अहमद ई द-उल-अज़हा जिसे आम बोलचाल में बकर-ईद कहा जाता है, इस्लाम धर्म के मानने वालों के लिए एक अहम त्योहार है. ईद-उल-अजहा हर साल इस्लामी कैलेंडर के अनुसार जिलहिज्जह के महीने की दसवीं से बारहवीं तारीख अर्थात तीन दिनों तक कुर्बानी दी जा सकती है. लेकिन ईद-उल-अजहा की नमाज मात्र एक दिन […]
ई द-उल-अज़हा जिसे आम बोलचाल में बकर-ईद कहा जाता है, इस्लाम धर्म के मानने वालों के लिए एक अहम त्योहार है. ईद-उल-अजहा हर साल इस्लामी कैलेंडर के अनुसार जिलहिज्जह के महीने की दसवीं से बारहवीं तारीख अर्थात तीन दिनों तक कुर्बानी दी जा सकती है. लेकिन ईद-उल-अजहा की नमाज मात्र एक दिन दसवीं जिलहिज्जह को ही पूरी की जाती है. इस दिन हज जैसी इबादत पूरी की जाती है.
इस त्योहार मनाने के पीछे एक बड़ा पवित्र इतिहास है. यह इस्लाम धर्म के उद्भव के पूर्व से प्रचलित है. हज़रत इब्राहीम (अ0स0) को ईश्वर ने स्वप्न दिया कि अपनी सबसे अजीज़ चीजों की कुर्बानी दो. हजरत इब्राहीम जिन्हें खलीलुल्लाह (ईश्वर का मित्र) कहा जाता है, उन्होंने उस स्वप्न के आलोक में अपनी पसंदीदा चीजों की कुर्बानी दी. लेकिन पुन: स्वप्न आया कि अपनी सबसे अज़ीज़ (प्यारी) चीजों की कुर्बानी दो.
अब हजरत इब्राहीम के लिए परीक्षा की घड़ी थी कि उनके लिए सबसे प्यारी चीज उनका इकलौता बेटा हजरत इस्माईल थे. सनद रहे कि हजरत इब्राहीम को अल्लाह ने बुढ़ापे (85 साल की आयु) में एक मात्र संतान हजरते हाजरा की कोख से हजरत इस्माईल का जन्म हुआ था. इसलिए यह पुत्र न केवल उनके जीवन का आखिरी सहारा था, बल्कि उनके लिए ईश्वर का वरदान भी था.
अब हजरत इब्राहीम ने ईश्वर के इशारे की रोशनी में अपने बेटे हजरत इस्माईल को ही कुर्बान करने के लिए तैयार हो गये और जब हजरत इस्माईल की गर्दन पर तेज धारदार छुरी चलाने लगे, तो ईश्वर ने हजरत इब्राहीम के समर्पण को कबूल करते हुए हजरत इस्माईल की जगह दुम्बा (एक प्रकार का जानवर) रख दिया और उसकी कुर्बानी हो गयी.
हजरत इस्माईल सही-सलामत जीवित रहे. इस्लाम धर्म में हजरत इब्राहीम की इसी सुन्नत की अदायगी के लिए ईद-उल-अजहा का त्योहार मानाया जाता है. दरअस्ल, ईद-उल-अजहा का संदेश यह है कि मनुष्य ईश्वर की कृति है और इसके पास जो कुछ भी धन-दौलत है, वे सभी ईश्वर की देन हैं.
इसलिए इंसान को हमेशा अल्लाह के प्रति समर्पित रहना चाहिए, क्योंकि अल्लाह को बंदे का समर्पण ही सबसे अधिक पसंद है और यही सबसे बड़ी इबादत है.
कैसी हो कुर्बानी
कुर्बानी के जानवर के लिए भी इस्लाम धर्म ने कई शर्तें रखी हैं. जानवर हलाल चौपाया हो, बीमार न हो, अपंग न हो और देखने में भी सेहतमंद व तंदुरुस्त (स्वस्थ) हो. ज्ञात हो कि कुर्बानी सभी मुसलमानों पर फर्ज (अनिवार्य) नहीं है.
जो अार्थिक दृष्टि से सबल हैं, उन्हें ही कुर्बानी देने का हुक्म है. कुर्बानी के जानवर का मांस भी केवल कुर्बानी देने वाले के लिए नहीं होता, बल्कि जानवर के पूर्ण मांस को तीन हिस्सों में बांटा जाता है.
एक हिस्सा जिस व्यक्ति ने अपने पैसे से कुर्बानी दी है, उसके लिए है, दूसरा हिस्सा निर्धन लोगों के बीच बांटने के लिए है और तीसरा हिस्सा अपने सगे-संबंधी एवं मित्रों के बीच तकसीम करने का आदेश है. अर्थात कुर्बानी ईश्वर के प्रति समर्पण एवं सामाजिक सरोकार का भी पाठ पढ़ाता है.
हजरत इब्राहीम की सुन्नत की अदायगी
ईद-उल-अजहा का एक ऐतिहासिक पक्ष यह भी है कि इसी ईद-उल-अजहा के दिन हज जैसी इबादत पूरी की जाती है. इस्लाम में कुरआन और हदीस के आलोक में ही त्योहार मानाये जाते हैं और इस्लाम धर्मावलंबी का आचरण (इबादत) भी अल्लाह के फरमान (कुरआन) और हदीस (हजरत मोहम्मद स अ के उपदेश) की रोशनी में ही पूर्ण समझा जाता है.
हजरत इब्राहीम की सुन्नत की अदायगी हर इस्लाम धर्मावलंबी के लिए अनिवार्य है. यह त्योहार इंसान को कठिन परीक्षा के समय में धैर्य के साथ रहना, विवेक से कदम उठाना और ईश्वर के प्रति समर्पित रहने का संदेश देता है. साथ ही साथ सामाजिक सरोकार का पैगाम भी देता है. मनुष्य केवल अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए भी इस दुनिया में आया है. इसका संदेश भी ईद-उल-अजहा में छुपा हुआ है.
(लेखक सीएम कॉलेज, दरभंगा में प्रधानाचार्य हैं.
संपर्क : 09431414586)
बेशक अल्लाह तुम्हारे जिस्मों और तुम्हारी सूरतों को नहीं देखता, बल्कि तुम्हारे दिलों को देखता है.
(हदीस- सही मुस्लिम, 2564)
अल्लाह तक तुम्हारी कुर्बानियों का गोश्त (मांस) या खून हरगिज नहीं पहुंचता, बल्कि तुम्हारा तक़वा (समर्पण) पहुंचता है.
(कुरआन सूरह हज, आयत 37)
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