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असत्य पर सत्य की जीत का सबक सिखलाता है मुहर्रम

डॉ मुश्ताक अहमद प्रधानाचार्य, सीएम कॉलेज दरभंगा संपर्क – 9431414586 मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है. इस्लाम धर्म में इस महीने को बड़ी अहमियत हासिल है, क्योंकि इस महीने में कई महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं, जिनका इस्लामी इतिहास में प्रमुख स्थान है. इस्लाम धर्म के मुताबिक आसमान, जमीन और अन्य चीजों के साथ-साथ आदम अर्थात […]

डॉ मुश्ताक अहमद
प्रधानाचार्य, सीएम कॉलेज दरभंगा
संपर्क – 9431414586
मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है. इस्लाम धर्म में इस महीने को बड़ी अहमियत हासिल है, क्योंकि इस महीने में कई महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं, जिनका इस्लामी इतिहास में प्रमुख स्थान है. इस्लाम धर्म के मुताबिक आसमान, जमीन और अन्य चीजों के साथ-साथ आदम अर्थात इस पृथ्वी के पहले मनुष्य को ईश्वर ने इसी महीने में बनाया.
इसलिए जब से इस्लाम धर्म का उदय हुआ, उसी समय से इस महीने को प्रमुखता दिया जाने लगा. लेकिन हिजरी सन 61 (680 ई) में जब कर्बला के मैदान में हजरत मोहम्मद पैगंबर-ए-इस्लाम के नवासे (नाती) हजरत हुसैन और यजीद के बीच खिलाफत के लिए जंग हुई और उसमें हजरत हुसैन अपने 72 साथियों के साथ शहीद हुए अर्थात 1380 वर्षों से याद-ए- हुसैन में मुहर्रम मनाया जा रहा है.
मुहर्रम असत्य पर सत्य की विजय का सबक सिखलाता है, क्योंकि हजरते हुसैन ने यजीद के साथ जो जंग लड़ी, उस का उद्देश्य सत्ता या सिंहासन प्राप्त करना नहीं था, बल्कि इस्लाम धर्म के उसूल के मुताबिक खिलाफत हासिल करना था. अर्थात इस्लाम धर्म के कानून को जीवित रखना था.
हजरत हुसैन की शहादत की याद में ही मुहर्रम मनाया जाता है. इस्लाम धर्म के मुताबिक तो केवल हजरत हुसैन की याद में मजलिसें मुनअकिद करना और इस्लाम धर्म के मानने वालों को हजरत हुसैन के जीवन एवं चरित्र से अवगत कराना है, लेकिन बदलते युगों के साथ मुहर्रम मनाने के तरीके भी बदलते चले गये हैं. आज मुहर्रम की सातवीं से दसवीं तक ताजिया, सिपहर, तलवारबाजी, लाठी, कसरत और झड़नी की नुमाइश की जाती है. इसमें बगैर किसी भेद-भाव के सभी धर्म के लोग भाग लेते हैं.
खास कर झड़नी गायन की परंपरा तो हिंदू मजहब के लोगों ने ही शुरू की है. मुहर्रम का वर्तमान स्वरूप मुगल काल की देन है. यह महज मातम का द्योतक नहीं, बल्कि हजरत हुसैन की कुर्बानी और इस्लाम धर्म की सच्चाई को स्थापित करता है और यह सबक देता है कि कत्ल-ए-हुसैन मानवता को जीवित रखने और हमेशा सत्य का साथ देने का पैगाम देता है.
इस्लाम धर्म का शिया फिरका यौम-ए-आशुरा अर्थात मुहर्रम की दसवीं को जंजीरी मातम के माध्यम से हजरत हुसैन की शहादत को याद करता है और दुनिया को यह पैगाम देता है कि आज यजीद जो असत्य के बल पर जंग तो जीत गया, लेकिन आज उसका कोई नाम लेने वाला नहीं है. जबकि हजरत हुसैन जिन्होंने सत्य के लिए अपनी जान दी, उनका दुनिया के हर हिस्से में नामलेवा है और उनकी शहादत पर ईमान रखता है. किसी शायर ने ठीक की कहा है –
न यजीद का वह सितम रहा, न जयाद की वह जफा रही ।
जो रहा तो नाम हुसैन का, जिसे जिंदा रखती है कर्बला ॥
हजरत हुसैन की याद में जितने भी आंसू बहाये जायें, मातम किये जायें, वह कम है, क्योंकि मानवता के इतिहास में हजरत हुसैन की शहादत एक ऐसी घटना है, जिसकी मिसाल रहती दुनिया तक नहीं मिल पायेगी.
एक शायर मेहर शकरबी ने ठीक ही कहा है –
गम-ए-हुसैन में दो अश्क भी अगर न बहे ।
फिर ऐसी आंख से हासिल रहे, रहे न रहे ॥
मिसाल है हजरत हुसैन की शहादत
यौमे आशुरा अर्थात नौवीं-दसवीं के दिन मुसलमान रोजा रख कर हजरत हुसैन की शहादत की याद ताजा करते हैं और अपने जीवन में सत्य को उतारने का अहद करते हैं. मुहर्रम पूरी मानवता के लिए एक आदर्श कायम करता है.
जहां भी अत्याचार, नाइंसाफी, हकतल्फी होती है, वहां हजरत हुसैन की शहादत असहाय और दुर्बलों को अमानवीय व्यवहारों से मुकाबला करने का साहस प्रदान करता है. जब तक दुनिया में अत्याचार, अधर्म और असत्य रहेगा, उस वक्त तक मुहर्रम की प्रासंगिकता बरकरार रहेगी.
मशहूर शायर जोश मलीहाबादी ने सच ही कहा है –
‘इंसान को बेदार तो हो लेने दो, हर कौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन’’ और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा है – ‘‘इस्लाम की तरक्की उसके मानने वालों की तलवारों की बदौलत नहीं हुई, बल्कि कुर्बानियों की वजह से हुई है और उसकी मिसाल हजरत हुसैन की शहादत है.’’

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