प्रेम को जानने के लिए सबसे पहले हमें यह स्वीकार करना होगा कि प्रेम अज्ञात है. ज्ञात को छोड़ कर ही हमें अज्ञात तक आना होगा. जब हम कहते हैं कि हम किसी से प्रेम करते हैं, तो हमारा तात्पर्य होता है कि उस व्यक्ति पर हमारा अधिकार है. उस अधिकार से ईर्ष्या पैदा होती है, क्योंकि अगर मैं उसे खो दूं तो क्या होगा? मैं खुद को खाली और लुटा हुआ पाऊंगा, इसीलिए मैं उस अधिकार को वैधानिक बना लेता हूं.
यानी हम उस स्त्री या पुरुष पर अपनी पकड़ बनाये रखते हैं. इस प्रकार यह पकड़ रखने का सिलसिला ईर्ष्या लाता है, भय लाता है तथा कई तरह के दूसरे द्वंद्व पैदा करता है. निश्चित रूप से ऐसी पकड़ या ऐसा कब्जा प्रेम नहीं हो सकता. जहां अधिकार का भाव नहीं होता, वहां प्रेम संभव है. भावपूर्ण होना भी प्रेम नहीं है, क्योंकि जब किसी भावाविष्ट व्यक्ति को अपनी भावनाओं का प्रत्युत्तर नहीं मिलता, जब उसे अपने जज्बात का कोई निकास नहीं मिलता, तो वह क्रूर हो सकता है.
किसी भावुक व्यक्ति को घृणा के लिए, युद्ध के लिए, नरसंहार के लिए उकसाया जा सकता है. एक मनुष्य, जो भावनाओं में डूबा है, अपने धर्म के लिए आंसू बहा रहा है, उसका प्रेम से कोई संबंध नहीं है. प्रेम के बारे में सोचा नहीं जा सकता, उसका पोषण नहीं किया जा सकता, उसका अभ्यास नहीं किया जा सकता. जब सारी विसंगतियां समाप्त हो जाती हैं, तब प्रेम होता है और सिर्फ प्रेम ही इस दुनिया के पागलपन भरे मौजूदा हालात में बुनियादी बदलाव ला सकता है.
।। जे कृष्णमूर्ति ।।