प्रेम सदैव सर्वोच्च आदर्श है. जब वह सौदागरी छोड़ देता है और समस्त भय को दूर भगा देता है, तब वह ऐसा अनुभव करने लगता है कि प्रेम ही सर्वोच्च आदर्श है. कितनी ही बार एक रूपवती स्त्री किसी कुरूप पुरुष को प्यार करते देखी गयी है. कितनी ही बार एक सुंदर पुरुष किसी कुरूप स्त्री से प्रेम करते देखा गया है.
ऐसे प्रसंगों में आकर्षक वस्तु कौन सी है? बाहर से देखनेवालों को तो कुरूप पुरुष या कुरूप स्त्री ही दिख पड़ती है, प्रेम नहीं दिखता. पर प्रेमी की दृष्टि में तो उससे बढ़ कर सुंदरता और कहीं नहीं दिखाई देती. प्रेमियों के लिए दुनिया प्रेम से भरी है, पर द्वेष करनेवालों के लिए द्वेष से भरी है.
झगड़नेवाले केवल लड़ाई देखते हैं, पर शांत व्यक्ति देखते हैं केवल शांति. प्रेम ही तो पुरस्कार और दंड, भय और शंका, वैज्ञानिक या अन्य प्रभाव आदि सारी बातों के परे पहुंच गया है. उसके लिए प्रेम का आदर्श ही पर्याप्त है, और क्या यह स्वयंसिद्ध बात नहीं है कि यह संसार प्रेम का ही प्रकट स्वरूप है? वह कौन सी वस्तु है जो अणुओं को लाकर अणुओं से मिलाती है, परमाणुओं को परमाणुओं से मिलाती है, बड़े-बड़े ग्रहों को आपस में एक-दूसरे की ओर आकृष्ट करती है.
पुरुष को स्त्री की ओर, स्त्री को पुरुष की ओर, मनुष्य को मनुष्य की ओर, पशुओं को पशुओं की ओर- मानो समस्त संसार को एक ही केंद्र की ओर खींचती हो. यह वही वस्तु है, जिसे प्रेम कहते हैं. शुद्ध प्रेम का कोई उद्देश्य नहीं होता है. उसका कोई स्वार्थ नहीं होता है. वह जबरन किया नहीं जाता है. वह हो जाता है.
।। स्वामी विवेकानंद ।।