समता का अभ्यास
धार्मिक जगत् का एक महत्वपूर्ण शब्द है तपस्वी. साधु का एक अभिधान बताया गया है तपोधन. तपस्या जिसका धन है, वह तपोधन कहलाता है. मुनि तपस्या करे, यह तो वांछनीय है ही, किंतु एक गृहस्थ को भी अपने जीवन में तपस्या करनी चाहिए. जैन वा्मय में तपस्या के बारह भेद बताये गये हैं. वे दो […]
धार्मिक जगत् का एक महत्वपूर्ण शब्द है तपस्वी. साधु का एक अभिधान बताया गया है तपोधन. तपस्या जिसका धन है, वह तपोधन कहलाता है. मुनि तपस्या करे, यह तो वांछनीय है ही, किंतु एक गृहस्थ को भी अपने जीवन में तपस्या करनी चाहिए.
जैन वा्मय में तपस्या के बारह भेद बताये गये हैं. वे दो भागों में विभक्त हैं-बाह्यतप और अभ्यंतरतप. श्रीमद्भगवद्गीता में भी तपस्या के अनेक प्रकार उपलब्ध होते हैं. उनमें एक प्रकार है- मानस तप. मानस तप का प्रथम आयाम है- मानसिक प्रसन्नता. मन में प्रसन्नता रखना भी एक तपस्या है. मानसिक तपस्या तभी संभव है, जब आदमी का मन निर्मल बनता है, निर्विकार होता है.
सतत मानसिक प्रसन्नता उस आदमी के नहीं रहती, जिसके मन में कुछ विकार, भय आदि भाव पैदा होते रहते हैं. मानसिक प्रसन्नता उसे प्राप्त होती है, जो समता का अभ्यासी होता है. संस्कृत साहित्य में कहा गया है- मन की प्रसन्नता समता का आश्रय लेने से प्राप्त होती है. प्रसन्नता को हम सामान्यतया खुशी के संदर्भ में प्रयुक्त करते हैं, किंतु प्रसन्नता का दूसरा अर्थ किया गया है स्वच्छ होना. जिस व्यक्ति का मन स्वच्छ या निर्मल होता है, वह व्यक्ति प्रसन्न होता है.
जब प्रसन्नता प्राप्त हो जाती है, तब आदमी को सुख और शांति मिलती है. जब-जब आवेश आता है, प्रसन्नता बाधित हो जाती है. मन में ईष्र्या का भाव आता है, तो प्रसन्नता खंडित हो जाती है. प्रसन्न रहने के लिए अपेक्षा है कि आदमी आवेश और ईष्र्या से बचे एवं समता का अभ्यास करे.
आचार्य महाश्रमण