बाह्य-आंतरिक अनुकरण

समाज निस्संदेह जीर्ण-शीर्ण हो रहा है, टूट रहा है. परंतु ऐसा क्यों है? उसके मूलभूत कारणों में से एक यह है कि व्यक्ति की, आपकी सर्जनशीलता कुंठित हो चुकी है. आप और मैं केवल अनुकरण करनेवाले बन कर रह गये हैं. बाहर से और भीतर से हम नकल कर रहे हैं. बाहर से जब हम […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 16, 2014 8:05 AM
समाज निस्संदेह जीर्ण-शीर्ण हो रहा है, टूट रहा है. परंतु ऐसा क्यों है? उसके मूलभूत कारणों में से एक यह है कि व्यक्ति की, आपकी सर्जनशीलता कुंठित हो चुकी है. आप और मैं केवल अनुकरण करनेवाले बन कर रह गये हैं.
बाहर से और भीतर से हम नकल कर रहे हैं. बाहर से जब हम कोई तकनीक सीखते हैं, जब शाब्दिक स्तर पर हम एक-दूसरे से कहते-सुनते हैं, तो स्वभावत: वहां कुछ अनुकरण होता है. इंजीनियर बनने के लिए मुझे पहले तकनीक सीखनी पड़ती है और तब मैं उस तकनीक का पुलों के निर्माण में प्रयोग करता हूं. बाह्य तकनीक में किसी सीमा तक अनुकरण जरूरी हो जाता है. परंतु जब आंतरिक, मनोवैज्ञानिक अनुकरण होता है, तब निस्संदेह हम सर्जनशील नहीं रहते.
आज हमारी शिक्षा, हमारी सामाजिक संरचना, हमारा तथाकथित धार्मिक जीवन, सभी अनुकरण पर आधारित हैं; इसका अर्थ यह हुआ कि हमें किसी विशेष सामाजिक या धार्मिक फामरूले के अनुकूल बनना होता है. वास्तव में मेरा व्यक्तिगत अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मैं कुछ संस्कारबद्ध अनुक्रियाओं वाला, पुनरावृत्ति करने वाला एक यंत्र भर बन जाता हूं. हमारे प्रत्युत्तर समाज के ढांचे के अनुसार संस्कारित होते हैं, चाहे वह कोई भी प्रारूप क्यों न हो. इसलिए अनुकरण समाज के विघटन के मूलभूत कारणों में से एक है और इस विघटन को क्रियान्वित करने वाले अनेक कारकों में से एक कारक है नेता, जिसका आधार ही अनुकरण है.
जे कृष्णमूर्ति

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