हमारे जीवन के सारे कार्यकलाप परमात्मा की इच्छा पर निर्भर करते हैं, जो प्रत्येक हृदय में मित्र रूप में आसीन है. यद्यपि मूर्ख व्यक्ति नहीं समझता कि परमात्मा उसके अंतर मित्र रूप में बैठा है और उसके कर्मो का संचालन कर रहा है. यद्यपि स्थान, कर्ता, चेष्टा तथा इंद्रियां भौतिक कारण हैं, लेकिन अंतिम अर्थात् मुख्य कारण तो स्वयं भगवान हैं.
अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह परम सक्षम कारण को देखे. जो व्यक्ति कर्म के उपकरणों को, कर्ता रूप में अपने को तथा परम निर्देशक के रूप में परमेश्वर को मानता है, वह प्रत्येक कार्य को पूर्ण करने में सक्षम है. ऐसा व्यक्ति कभी मोहग्रस्त नहीं होता. जीव में व्यक्तिगत कार्यकलाप तथा उसके उत्तरदायित्व का उदय मिथ्या अहंकार से तथा ईश्वर विहीनता या कृष्णभावनामृत के अभाव से होता है. जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में परमात्मा या भगवान के आदेशानुसार कर्म करता है, वह वध करता हुआ भी वध नहीं करता. न ही कभी ऐसे वध के फल भोगता है. हमारे दैनिक कार्य के लिए तीन प्रेरणाएं हैं- ज्ञान, ™ोय तथा ज्ञाता. कर्म का उपकरण (करण), स्वयं कर्म तथा कर्ता.
ये तीनों कर्म के संघटक हैं. मनुष्य द्वारा किये गये किसी कर्म में ये ही तत्व रहते हैं. कर्म के पूर्व कुछ न कुछ प्रेरणा होती है. किसी भी कर्म से पहले प्राप्त फल कर्म के सूक्ष्म रूप में वास्तविक बनता है. इसके बाद वह क्रिया का रूप धारण करता है. पहले मनुष्य सोचने, अनुभव करने व इच्छा करने जैसी मनोवैज्ञानिक विधियों का सामना करता है, जिसे प्रेरणा कहते हैं.
स्वामी प्रभुपाद