सृष्टि का मूल कारण तत्व
मन की जिस प्रकार की कल्पना होती है, वैसे ही आभूषणों का वह निर्माण कर लेता है और आवश्यकता न होने पर उन्हें पुन: गला देता है. इसलिए ये आभूषण न सत्य हैं, न नित्य हैं. ये व्यक्ति की इच्छाशक्ति से बनते-बिगड़ते रहते हैं और नया रूप लेते रहते हैं. किंतु उसमें स्वर्ण उसी रूप […]
मन की जिस प्रकार की कल्पना होती है, वैसे ही आभूषणों का वह निर्माण कर लेता है और आवश्यकता न होने पर उन्हें पुन: गला देता है. इसलिए ये आभूषण न सत्य हैं, न नित्य हैं. ये व्यक्ति की इच्छाशक्ति से बनते-बिगड़ते रहते हैं और नया रूप लेते रहते हैं. किंतु उसमें स्वर्ण उसी रूप में रहता है जो नित्य है, जो बनता-बिगड़ता नहीं. आभूषण के गला देने व नष्ट होने पर स्वर्ण नष्ट नहीं होता, न उसको कोई हानि ही होती है, न उसमें क्षय या वृद्धि होती है.
ठीक उसी प्रकार, इस समस्त जड़-चेतनात्मक सृष्टि के सभी रूप व आकार उस एक ही विष्णु रूपी चेतनाशक्ति में कल्पित है, उसी का साकार रूप है जो नित्य परिवर्तनशील है, बनते-बिगड़ते व नया रूप ग्रहण करते रहते हैं, इसलिए इनको सत्य नहीं कहा जा सकता है, न यह नित्य पदार्थ है. यहां विष्णु का अर्थ उस पौराणिक शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी चतुर्भुज विष्णु से नहीं, बल्कि ब्रह्म की वह चेतनशक्ति है, जो सर्वव्यापक है, समस्त सृष्टि का आधारभूत एक मात्र कारण है, वही शक्ति विष्णु है.
वही नित्य है जो सच्चिदानंद स्वरूप है तथा सृष्टि से अभिन्न है, जिसके बिना सृष्टि हो ही नहीं सकती, वही सृष्टि का एकमात्र मूल कारण तत्व है. वेदांत दर्शन ने सृष्टि रचना में जिस मूल तत्व एवं उसकी रचना प्रक्रिया का जिस सूक्ष्मता से वर्णन किया है, उस सूक्ष्मता को सामान्य बुद्धि नहीं समझ सकती, जिससे इसकी भिन्न-भिन्न व्याख्याएं देखने को मिलती हैं. इस विषय पर अभी और गहराई से सोचने की आवश्यकता है.
।। आदि शंकराचार्य ।।