एक शाश्वत तत्व है अहिंसा

अहिंसा की उपेक्षा से सारे-के-सारे मूल्य अपने अर्थ खोते चले जा रहे हैं. इसीलिए वर्तमान परिदृश्य में मानवाधिकारों की बातें भी स्थायी सुपरिणामदायी नहीं सिद्ध हो रही हैं. मानवता, मानवीयता और इनसे जुड़े मूल्यों की गरिमा में गिरावट समय की एक विकट और बड़ी त्रसदी के रूप में हमारे सामने है. अहिंसा एक शाश्वत तत्व […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 29, 2014 6:28 AM

अहिंसा की उपेक्षा से सारे-के-सारे मूल्य अपने अर्थ खोते चले जा रहे हैं. इसीलिए वर्तमान परिदृश्य में मानवाधिकारों की बातें भी स्थायी सुपरिणामदायी नहीं सिद्ध हो रही हैं. मानवता, मानवीयता और इनसे जुड़े मूल्यों की गरिमा में गिरावट समय की एक विकट और बड़ी त्रसदी के रूप में हमारे सामने है.

अहिंसा एक शाश्वत तत्व है. हिंसा विनाश है और अहिंसा विकास है. हिंसा मृत्यु है, अहिंसा जीवन है; हिंसा नरक है, अहिंसा स्वर्ग है. यदि हमें प्रगति एवं विकास के नये शिखर छूने हैं, जीवन की अनंत संभावनाओं को जिंदा रखना है, धरती पर स्वर्ग उतारना है, तो अहिंसा धर्म को सर्वोपरि प्रतिष्ठा देनी ही होगी. भगवान महावीर कितना सरल किंतु सटीक कहा है- सुख सबको प्रिय है और दुख सबको अप्रिय है. हम सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता. हम जैसा व्यवहार स्वयं के प्रति चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार दूसरों के प्रति भी करें, तो कितना अच्छा हो. यही मानवता है और यही मानवता का आधार भी है.

मानवता किसी को बचाने में है, किसी को मारने में नहीं. किसी भी मानव, पशु-पक्षी या प्राणी को मारना, काटना या प्रताड़ित करना स्पष्टत: अमानवीय है, क्रूरतापूर्ण है. हिंसा-हत्या और खून-खच्चर का मानवीय मूल्यों से कभी कोई सरोकार नहीं हो सकता. इस संसार में मानवीय मूल्यों का संबंध तो ‘जियो और जीने दो’ जैसे सरल श्रेष्ठ उद्घोष से है. सह-अस्तित्व के लिए अहिंसा बहुत ही अनिवार्य तत्व है. दूसरों का अस्तित्व मिटा कर अपना अस्तित्व बचाये रखने की कोशिशें व्यर्थ और अंतत: घातक होती हैं. यह स्पष्ट है कि हिंसा मनुष्यता के भव्य प्रासाद को नींव से हिला देती है. मनुष्य जब दूसरे को मारता है तो स्वयं को ही मारता है, स्वयं की श्रेष्ठताओं को समाप्त करता है.

इस बात को भगवान महावीर ने ‘आचारांग-सूत्र’ में बहुत मार्मिक और सूक्ष्म ढंग से बताया है- ‘जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है. जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है. जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है.’ यह अद्वैत भावना ही अहिंसा का मूलाधार है. एक हिंसा, हिंसा के अंतहीन दुश्चक्र को गतिमान करती है. अहिंसा सबको अभय प्रदान करती है. वह सर्जनात्मक और समृद्धिदायिनी है. मानवता का जन्म अहिंसा के गर्भ से हुआ.

आचार्य लोकेशमुनि

Next Article

Exit mobile version